विवाह एक संस्कार है, सनातन से चली आ रही बड़ी पवित्र परंपरा,, जिसे निभाने में ही इसकी सार्थकता है..छोड़ने.. तोड़ने..
नकारने में कई सारी अनचाही समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं..तभी तो हमारी माएं, दादियां, नानियां और घर की न जाने कितनी ही स्त्रियां विवाह के नाम पर हर लड़की से मात्र निभाने का वचन लेकर हीं उसे ससुराल भेजती है.
विवाह हर लड़की का सपना होता है, शेफाली भी कहां अछूती थी इससे, जब कभी घर में उसकी शादी की बात छेड़ी जाती..आँखें तो नीची हो जातीं मगर कान खड़े हो जाते,आखिर शादी उसकी थी उसे भी तो जानने का अधिकार था कि जिसके साथ पूरा जीवन बिताना है वह जीवन साथी कैसा है,जिस घर में अब उसके जीवन के बचे खुचे दिन बीतने वाले हैं उस घर परिवार के लोग कैसे हैं.. विशेष रूप से उसे सास नाम के रिश्ते से बड़ा भय हो जाया करता था.
अक्सर इधर-उधर से सुनती आई थी सास के भयानक किस्से.. कभी वह सोचा करती क्यों सास इतनी सख्त दिल होती है, आखिर वह भी तो एक स्त्री है,उसे भी तो कभी अपने माँ-बाप को छोड़कर विदा होना पड़ा होगा,जैसी पीड़ा उसे हुई होगी,, क्या वैसी ही पीड़ा उसकी बहू को ना हुई होगी जिसे ब्याह कर वह अपने घर लाई है.
एकदम एक सी पीड़ाओं को साझा करना दो अलग इंसानों को एक कर देता है फिर क्यों सास और बहू नदी के दो किनारों की तरह कभी एक नहीं हो पाते जबकि नदी का कोई अस्तित्व ही नहीं इन दोनों किनारों के बिना.
एक अच्छे परिवार में देखभाल कर बड़ी ही मन्नतों से शेफाली ब्याह दी गई, सरस के साथ. शेफाली छः भाई बहनों में सबसे छोटी,,माँ-बाप ने यथाशक्ति जो बन पड़ा देकर उसे विदा किया.
ससुराल पहुँच कर भी तो सब ठीक ही रहा. शेफाली की और दो जेठानियां थीं मगर सब भरे पूरे,खाते पीते,धन संपन्न, घर की बेटियाँ थीं.. शेफाली के पापा रिटायर शिक्षक थे उस पर छः बच्चों का लालन-पालन.. शादी ब्याह,जीवन भर की कमाई उसी में न्योछावर हो गई.
शेफाली सबसे छोटी थी तो उसके हिस्से बचा खुचा ही आया.सासू माँ की ओर से पहला आक्रमण तो इसी बात को लेकर हुआ.. अपने कानों से सुना शेफाली ने, कानपुर वाली मौसी से कह रही थीं
“हम लोग तो सोचे, आखिरी बेटी है बिना माँगे ही सब दे देंगें, आखिर अंत में सब इसी का तो है इसलिए हमने मुँह नहीं खोला.. क्या पता था कि इतने कंगाल हैं कि लड़की की देह पर चार जेवर भी ढंग के नहीं पहनाए, हमारा बेटा तो सेंत का ही गया”
सुनकर दिल धक् से रह गया शेफाली का.
तेज तर्रार, लड़ने में माहिर हो, ऐसी लड़की कहाँ है शेफाली, बात का जवाब देना जानती ही नहीं..वह भी ससुराल में.. तिस पर सास को..
चुप रह गई, कमरे में आकर बहुत रोई अपने स्वाभिमानी और कर्मठ पिता के लिए कंगाल शब्द सुनकर उसके मन में विद्रोह का पहला अंकुर फूटा उस दिन.
अब तो हर दिन सासू माँ किसी न किसी बात पर उसमें कमी ही निकालने लगीं.. कभी खाने में उन्हें मिर्च मसाला अधिक लगता तो कभी सादा और फीका लगता. शेफाली कभी उनसे हिलने मिलने की कोशिश करती और उनके पास जा बैठती तो उनका एक ही आलाप रहता..
बड़ी बहू के घर वाले तब यह लाए थे,वह लाए थे तो कभी छोटी बहू के मायके का बखान करतीं.
शेफाली का मन खराब हो जाता वह उठकर चली जाती,उनके पास से. मन में एक टीस सी होती क्योंकि उसके माता-पिता इतने सक्षम नहीं हैं कि रोज़ उनके घर सौगात भिजवाते रहें.
शेफाली सरस से कहती तो वे भी उसे ही समझाते..जाने दो, यह सब चलता है कह कर बात टाल देते.
शैफाली ने भी इन बातों पर ध्यान देना छोड़ दिया. पिता ने जिस शिक्षा का जेवर उसे दहेज में दिया था उसी के सहारे वह आगे बढ़ी.
और आज उसका कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालय में पूर्णकालिक शिक्षिका के पद पर नियुक्ति हो गई. सब खुश थे.. सासू माँ भी… सामान बाँधते हुए देशी घी के लड्डू बनाकर लाईं, बोलीं..
“बहू, तुझ पर मुझे बड़ा गर्व है..आखिर शिक्षा से बढ़कर भी कोई धन है.. तेरे पिता ने इस दुनिया का सबसे बड़ा धन तुझे दिया है..”
शेफाली सासू माँ की तरफ तैश में घूमी और बोली..
“हाँ मम्मी.. उसी कंगाल पिता ने जिसके पास दहेज में देने के लिए कुछ न था..”
सासू माँ अवाक् होकर उसका मुँह देखने लगीं..
शैफाली ने फिर कहा..
“मम्मी, बहुओं से ही यह अपेक्षा क्यों की जाती है कि वह अपनी सास को मां समझे कोई सास क्या अपनी बहू को बेटी बना पाती है कभी..यह इस दुनिया की बड़ी असंभव बात लगती है मुझे.”
#सासू मां आप मुझे बेटी बना कर लाई थी लेकिन बहू भी ना बना पाईं