रात के सन्नाटे में घड़ी की टिक-टिक की आवाज़ कमरे की खामोशी को और गहरा कर रही थी। बिस्तर पर लेटी वृद्धा सावित्री देवी की आंखों में नमी थी। उनकी कांपती उंगलियां एक पुरानी तस्वीर को सहला रही थीं, जिसमें उनका पूरा परिवार हंसते हुए दिख रहा था। लेकिन वह हंसी अब कहीं खो गई थी…
सावित्री देवी का जीवन किसी परी कथा से कम न था। जब उनके पति रमेश बाबू जीवित थे, तब यह घर हंसी-खुशी और प्यार से भरा रहता था। उनके दो बेटे थे—संदीप और अजय। संदीप पढ़ाई में अव्वल था और डॉक्टर बन गया, जबकि अजय ने इंजीनियरिंग में अपना नाम रोशन किया। दोनों बेटे अपने-अपने करियर में व्यस्त हो गए और मां-बाप को वचन दिया कि वे हमेशा उनका ख्याल रखें
समय के साथ सब बदल गया। रमेश बाबू का स्वर्गवास हुआ तो घर का माहौल धीरे-धीरे ठंडा पड़ने लगा। बेटे नौकरी के सिलसिले में शहर से दूर चले गए। पहले तो फोन आते थे, फिर धीरे-धीरे वह भी कम हो गए। बहुएं अपनी दुनिया में व्यस्त थीं, और मां की देखभाल करने का जिम्मा किसी ने नहीं लिया।
एक दिन दोनों बेटों ने आपसी सहमति से मां को वृद्धाश्रम भेजने का निर्णय लिया। सावित्री देवी के लिए यह एक तगड़ा आघात था। जिस घर को उन्होंने अपने हाथों से संवारा था, उसी घर में अब उनके लिए कोई जगह नहीं थी। आंखों में आंसू लिए उन्होंने अपने बेटों के माथे पर हाथ रखा और बिना कोई शिकायत किए वृद्धाश्रम चली गईं।
वृद्धाश्रम में सावित्री देवी को कई ऐसे लोग मिले, जिनकी कहानी भी कुछ ऐसी ही थी। वहां उन्होंने अपने दर्द को ताकत में बदला और बाकी बुजुर्गों के लिए एक सांत्वना का स्रोत बन गईं। उन्होंने बच्चों को पढ़ाना शुरू किया, वृद्धों के लिए योग सत्र आयोजित किए, और एक नई जिंदगी जीने का फैसला किया।
वक्त पंख लगाए उड़ चला
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एक दिन सावित्री जी को पूरे राज्य में सम्मानित किया गया।
जैसे ही अखबार में न्यूज़ छपी लोगों ने दोनों बेटों को सावित्री जी के बारे में पूछना शुरू कर दिया।
इतने समय तो बात घर के घर में थी अब उजागर हो गई।
तब
दोनों
बेटे परिवार सहित मिलने आए
मां को देखकर दोनों की आंखें भर आईं। दोनों ने मां के चरणों में गिरकर माफी मांगी। सावित्री देवी ने अपने कांपते हाथों से उनके सिर पर हाथ फेरा और कहा, “आंसू मोती बन जाते हैं, बेटा… बस दर्द को सहने का साहस चाहिए।”
उस दिन, सावित्री देवी के आंसू सच में मोती बन गए थे—प्यार, माफी और करुणा के मोती।
दीपा माथुर