सरिता जी रसोई से निकलकर ड्राइंगरूम की खिड़की के पास आकर बैठ गईं।
हाथ में चाय की प्याली थी, लेकिन नज़र कहीं दूर ठहरी थी।
उनके पति, श्याम बाबू, आज अपना बासठवां जन्मदिन मना रहे थे।
घर शांत था।
मोमबत्तियाँ, मिठाई की थाली, और केक — सब कुछ था…
सिवाय बच्चों की आवाज़ के।
नीरज और राहुल, दोनों बेटे अब अपने परिवारों के साथ अलग-अलग शहरों में रह रहे थे —
नीरज अपनी पत्नी पूजा के साथ गुड़गांव में,
और राहुल, रिया के साथ पुणे में।
जिन घरों में एक समय चार जोड़ी चप्पलें उलझती थीं,
अब वहाँ सिर्फ दो जोड़ी जूते रखे होते थे —
और दोनों का सिर झुका रहता था।
सरिता, जो कभी पूरे घर में सुबह से रात तक एक माँ की तरह घूमती रहती थीं —
अब खामोशी से बस समय का आंचल थामे बैठी थीं।
कोई शिकायत नहीं थी उनके पास।
बस एक मौन था,
जिसे श्याम बाबू पढ़ लेते थे — हर रोज़।
वो उनके पास आकर बोले —
“सरिता… तुम उदास हो न?”
सरिता ने कुछ नहीं कहा।
श्याम बाबू वहीं पास में बैठ गए।
धीरे से बोले —
“जानता हूँ, माँ के लिए सबसे मुश्किल होता है वो वक़्त जब बच्चे उड़ान भरते हैं,
और वो खाली घोंसले में बैठी रह जाती है — वही आँचल लेकर,
जिसे कभी ममता से भरकर फैलाया करती थी…”
“कभी बच्चों के लिए तुमने अपनी नींद, अपनी भूख, अपनी साँसें तक लगा दी थीं…
आज मन करता है कोई बेटा भी आकर कहे —
‘माँ, अब आप हमारे साथ रहिए।’”
सरिता की पलकें भीग गईं।
श्याम बाबू ने मुस्कुराकर उसका हाथ थामा —
“चलो सरिता… अब हम ही एक-दूसरे के लिए आँचल पसारते हैं।
मैं चाहता हूँ अब तुम्हारे आँचल में सुकून पाऊँ — जैसे कभी बच्चे पाते थे।
और तुम मेरे कंधे पर सिर रखो —
जैसे थकी हुई माँ अपने बेटे के पास सुकून पाती है।”
सरिता ने उनकी बात ध्यान से सुनी… और पहली बार मुस्कराईं।
वो बोलीं —
“बच्चों की उड़ान पर हमें गर्व है… लेकिन जड़ तो हमें ही बनानी होगी — साथ मिलकर।”
और श्याम बाबू ने उन्हें चुपचाप बाँहों में भर लिया —
जैसे कह रहे हों,
अब तुम्हारा आँचल सिर्फ़ बच्चों के लिए नहीं,
हम दोनों के लिए भी पसरा रहेगा — हर शाम, हर सुबह।
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दोस्तों,
इस कहानी को पढ़कर शायद बहुत से पाठक इस वक़्त अपने दिल के किसी कोने में हलचल महसूस कर रहे होंगे।
शायद कोई माँ, जो अपने बच्चों से दूर है।
शायद कोई पिता, जो हर त्यौहार पर बेटे के कॉल का इंतज़ार करता है।
शायद कोई घर, जो अब सिर्फ़ दीवारें बनकर रह गया है।
ऐसी बहुत-सी माएं जो इस कहानी को पढ़ रही हैं, वो इस समय अपने बच्चों से अलग होंगी।
उनके बेटे-बेटियाँ किसी दूसरे शहर में होंगे — नौकरी, करियर, जीवन की रफ़्तार में डूबे हुए।
और उन माँओं के लिए हर दिन थोड़ा लंबा, थोड़ा अकेला और थोड़ा भारी होता होगा।
मैं खुद एक माँ हूँ।
और मुझे मालूम है, ये समय बहुत जल्द मेरे जीवन में भी आएगा।
मुझे नहीं पता समय क्या मोड़ लेगा…
क्योंकि आजकल का ज़माना कुछ इस तरह का ही है।
हो सकता है उस वक्त —
जब घर में दो कप चाय रखे होंगे, लेकिन पीने वाले कम होंगे।
जब मोबाइल में सबके फोटो होंगे, लेकिन आवाज़ नहीं।
इस कहानी के ज़रिए…
मैं जैसे खुद को समझा रही हूँ।
और अगर इस लेखन से कोई एक माँ भी खुद को थोड़ा हल्का महसूस करे…
तो मुझे लगेगा कि कहानी ने अपना मकसद पूरा कर लिया।
अश्रुओं की धार में भीगती —
आप जैसी ही एक माँ,
(लेखिका: ज्योति आहूजा )