आँचल पसारना – डॉ० मनीषा भारद्वाज : Moral Stories in Hindi

सुबह की ठंडी हवा में बारिश की सोंधी गंध घुली हुई थी। सड़कें भीगी थीं, चमकती हुई। रामकिशन अपना पुराना ऑटो-रिक्शा चलाते हुए स्टेशन की ओर बढ़ रहा था। उसकी आँखें थकी हुई थीं, पर चेहरे पर एक जिद्दी संकल्प था।

आज अस्पताल में पत्नी माया का आखिरी इलाज था। बिल चुकाना था। जेब में पिछले तीन दिनों की कमाई का कुछ ढीला-ढाला सिक्का था, वह भी गिनते हुए हाथ काँप रहे थे। कमी बहुत थी।

स्टेशन के बाहर “चाय-समोसा” की भीड़ में उसने ऑटो खड़ा किया। भागा हुआ रिक्शा चालक देखकर कुछ यात्री उसकी ओर आए, पर जाने क्यों, आज किस्मत ने भी साथ छोड़ दिया। एक-एक कर सबने मना कर दिया।

घंटे बीत गए। दोपहर की धूप ने जब झुलसाना शुरू किया, तो रामकिशन का धैर्य टूटा। उसकी निगाहें अस्पताल की ओर उठीं। डॉक्टर ने कहा था – “कल तक बाकी रकम नहीं आई, तो दवाइयाँ बंद।”

वह उठा। उसके पैर सुन्न थे, मन लज्जा से भरा हुआ। भीड़ में से एक शांत कोना ढूँढ़ता हुआ वह एक दीवार के सहारे खड़ा हो गया। उसकी साँसें तेज थीं, हृदय धड़क रहा था मानो छाती फाड़कर बाहर आ जाएगा। फिर, धीरे से, किसी अदृश्य भार को ढोते हुए,

उसने अपनी साधारण सी कमीज के निचले हिस्से को, अपना आंचल, फैला दिया। कपड़े का वह छोटा सा हिस्सा, जो उसकी गरिमा का अंतिम आवरण था, अब खुला हुआ था – भीख की खुली प्याली की तरह।

उसकी निगाहें जमीन से चिपकी थीं। उसने कुछ नहीं कहा। न “भैया मदद कर दो,” न “बीवी बीमार है।” बस खड़ा था,

उसका फैला आंचल उसकी मूक पुकार बन गया था। कुछ लोग तेजी से निकल गए। किसी ने झिड़की दी – “हटो यहाँ से! काम करो, भीख मत माँगो!” एक युवक ने उपहास में ठहाका लगाया। रामकिशन का शरीर सिकुड़ गया, पर वह हिला नहीं। माया का धुंधलाता चेहरा आँखों के सामने तैर रहा था।

तभी एक गर्म हाथ ने उसके कंधे को छुआ। एक सफेद कुर्ते वाले बुजुर्ग सज्जन उसके सामने खड़े थे। उनकी आँखों में जिज्ञासा नहीं, सहानुभूति थी। उन्होंने रामकिशन के फैले आंचल में कुछ नोट रखे, ज्यादा नहीं, पर जितना चाहिए था उससे कुछ ज्यादा। “लो बेटा,” उन्होंने धीरे से कहा, “जल्दी जाओ।”

रामकिशन ने ऊपर देखा। उसकी आँखों में भरा पानी अब बह निकला। उसने कुछ कहना चाहा, गले में गांठ फंस गई।

बुजुर्ग सज्जन पल भर उसकी आँखों में झाँकते रहे, फिर बिना कुछ कहे चल दिए। रामकिशन ने अपना आंचल समेटा। कपड़ा अब भारी लग रहा था – सिक्कों के वजन से नहीं, उस अनजान सहानुभूति के भार से, जिसे उसने कभी जाना न था।

वह तेजी से अस्पताल की ओर भागा। भीख माँगने की जलन अभी भी उसके गालों पर तप रही थी, पर दिल में एक गहरी, दर्दभरी राहत थी। उसका आंचल पसारना सिर्फ पैसों के लिए नहीं था; यह उसकी टूटी हुई मर्यादा की चीख थी,

व्यवस्था के सामने एक मूक प्रश्नचिह्न था। उसने पाया था कि कभी-कभी संवेदना की बूँदें ही निराशा की आग बुझाती हैं। वह बूँद आज उसके आंचल में टिमटिमा रही थी।

डॉ० मनीषा भारद्वाज

ब्याड़ा ( पालमपुर) 

हिमाचल प्रदेश

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