विनय ने नई नवेली चमचमाती कार का दरवाजा खोल कर रघुनंदन बाबू और जानकी जी से कहा, “- आइए माँ और बाबूजी! बैठिए इसमें! हर्षातिरेक से रघुनंदन बाबू का कंठ रूंध गया। फिर उन्होंने भरे गले से पुत्र विनय से कहा,
“- बेटा पहले तू बैठ न! तूने अपने परिश्रम की गाढ़ी कमाई से आज अपने बलबूते पर यह कार खरीदी है। अपने बल पर अपने बचपन का सपना साकार कर लिया। इसमें बैठने का सबसे पहला अधिकार तेरा है!”
विनय ने उनके दोनों हाथ पकड़ कर अपनी आंखों से लगा लिया और भींगे स्वर में कहा,
“- कैसी बातें करते हैं बाबूजी! मेरा तो अस्तित्व ही आप दोनों से है! आप दोनों की मेहनत और त्याग के कारण ही आज मैं कुछ बन पाया हूं और इसे खरीदने में समर्थ हो पाया हूं! इस गाड़ी पर मुझे पहले आप दोनों का अधिकार है और अगर पहले आप दोनों के चरण इसमें पड़ेंगे तो मेरे लिए इसे खरीदना सार्थक हो जाएगा!”
रघुनंदन बाबू की आंखों में आंसू झिलमिला गए। अनायास ही उनकी आंखों के समक्ष बीस वर्ष पहले का वह दृश्य कौंध गया।
बहुत बड़े अधिकारी थे उपेंद्र जी, जिनके घर रघुनंदन बाबू उसे समय माली के रूप में नियुक्त थे और जानकी जी उनके घर में खाना पकाने का कार्य करती थी। उन्हीं के घर के पिछवाड़े में जो नौकरों का कमरा था वह उपेंद्र बाबू ने इन दोनों को दे रखा था। पास के ही म्युनिसिपालिटी विद्यालय में विनय का नामांकन भी करा रखा था । विद्यालय से आने के बाद विनय वहीं उनके पास उपेंद्र जी के अहाते में आ जाता था और उनको काम करते देखता रहता था और अपने विद्यालय की ढेर सारी बातें वाचाल की तरह अनवरत बोलता रहता था… और कभी फूल पत्तियों पर किसी विशेषज्ञ की तरह अपनी राय भी बड़ी गंभीरता से दिया करता था। उसकी मासूम बातों पर रघुनंदन बाबू निहाल हो उठते थे। बचपन से ही विनय को गाड़ियां और कारें बहुत आकर्षित करती थीं।
उस दिन भी विद्यालय से आकर वह अपनी बैटरी वाली कार से खेल रहा था, जो एक-एक पैसे बचा कर रघुनंदन बाबू उसके जन्मदिन पर लेकर आए थे। तभी उपेंद्र बाबू अपनी नई चमचमाती कार लेकर वहाँ आ पहुंचे, जो उन्होंने उसी दिन खरीदी थी। वह पूरे दर्प के साथ गाड़ी से नीचे उतरे। तब तक उनकी पत्नी गाड़ी पूजन के लिए पूजा की थाल लेकर आ चुकी थी। और घर में हल्के फुल्के गाड़ी पूजन के बाद उन दोनों उसमें बैठकर मंदिर जाना था। नई गाड़ी देखते ही कौतूहल, उत्साह और रोमांच नन्हे विनय की आंखों में नृत्य करने लगा। वह दौड़कर गाड़ी के पास आ गया और खड़ा होकर एकटक गाड़ी को निहारने लगा। उपेंद्र जी ने उसकी तरफ देखा और सहृदयता दिखाते हुए प्यार से उससे पूछा,”- क्या सोच रहा है विनय बेटा ? तू बैठना चाहता है नई कार में? अच्छा चल… मैं शाम को तुझे इस कार में बिठाकर सैर करा दूंगा…”
विनय ने तुरंत पलट कर उनकी ओर देखा और कोमल स्वर में ढेरों उत्साह और आत्मविश्वास भरकर कहा, “-नहीं अंकल! मैं तो बस यह सोच रहा हूं कि कब बड़ा होकर मैं भी आपकी तरह अधिकारी बन पाऊंगा ताकि मैं भी ऐसी कार खरीद सकूं! फिर मैं मां बाबूजी को भी उसमें घुमाऊंगा और अगर आप चलेंगे तो आपको भी घुमा दूंगा..”
ठठाकर हँस दिए उपेंद्र बाबू और फिर रघुनंदन बाबू की ओर मुड़कर बोले, “- रघुनंदन! कुछ ज्यादा ही बड़े सपने नहीं देखने लगा है तुम्हारा बेटा!!! अरे इसे अपने साथ रखो…अपने हुनर सिखाओ ताकि बड़ा होकर यह भी तुम्हारी तरह काम करके अपनी जीविका चला सके….. आकाश कुसुम के सपने देखने से आकाश कुसुम अपना नहीं हो जाता है!!!… अच्छा चलो, जल्दी से थोड़े ताजे फूल तोड़ कर ले आओ! हमें मंदिर के लिए निकलना है।”…. स्वाभिमान पर पड़े इस अप्रत्याशित आघात से तिलमिलाकर विनय का नन्हा सा मुंह लाल हो गया। उसने गाड़ी के चक्के पर जोर से अपनी लात मार दी और पलटकर कुछ कहने को उद्यत ही हुआ था कि मैडम के पीछे खड़ी जानकी जी ने झट से आगे बढ़कर उसे गोद में उठा लिया और पलट कर घर की तरफ चल दी। नन्हा आहत विनय गोद से उतरने के लिए हाथ पैर मारता रहा मगर वह उसे लेकर घर चली गई।
उपेंद्र बाबू की मुखमुद्रा कड़ी हो गई जिसे भाँप कर तुरंत रघुनंदन बाबू ने हाथ जोड़ दिए और कातर स्वर में कहा,”- क्षमा कीजिए साहब! बच्चा है… नहीं समझता है! मैं उसको समझा दूंगा! आगे से ऐसा नहीं करेगा। आप तो माई-बाप हैं! बच्चा समझ कर क्षमा कर दीजिए!”
उनकी इस बात पर उपेंद्र बाबू थोड़े नरम पड़े और कहा,” यही तो मैं तुम्हें समझा रहा हूं ना रघुनंदन कि उसको थोड़ा औकात में रहना सिखाओ और मेहनत मजदूरी में निपुण बनाओ। तभी वह अपना भविष्य संवार पाएगा और तुम्हारी तरह दो पैसे कमा कर अपना और अपने परिवार का पेट पाल सकेगा।”
यह कहकर साहब गाड़ी में बैठ गए, साथ ही मैडम भी बैठी और वे दोनों मंदिर के लिए निकल गए।
उस दिन, रात में खाना खाने के बाद विनय सोने चला गया और रघुनंदन बाबू और जानकी जी कुछ देर के लिए आंगन में जा बैठे। कुछ देर तक तो दोनों ही मौन बैठे रहे…. जैसे अपने आहत मन की पीड़ा बिना संवाद के एक दूसरे से बांट रहे हों।
गहरी सांस लेते हुए जानकी जी ने रघुनंदन बाबू के कंधे पर सिर टिका दिया!जानकी जी ने रघुनंदन बाबू से कहा, “- अच्छा जी,एक बात बताओ….क्या झोंपड़ी में रहने वालों को सपने देखने का भी अधिकार नहीं होता….??? वैसे ठीक ही है…. म्युनिसिपालिटी विद्यालय में पढ़ने वाला बच्चा क्या ही कर लेगा ज्यादा से ज्यादा…”
रघुनंदन बाबू का मन द्रवित सा हो गया। वे जानकी के सिर पर हल्के हाथों से थपकी देते हुए बोले, “-सपने अमीरी गरीबी देखकर नहीं आते और अगर मेरा बच्चा म्युनिसिपालिटी विद्यालय में भी पढ़ रहा है, तो भी मुझसे जो बन पड़ेगा मैं करूंगा उसके लिए…उसे अच्छी से अच्छी किताबें और सुविधाएं मुहैया कराने का प्रयास करूंगा…और भी ज्यादा मेहनत करूंगा ताकि और पैसे कमा सकूं। मेरे प्रयत्नों में कमी कभी नहीं होगी, सपने
पूरे हो या ना हो। ऐसे हतोत्साहित होकर मेरा बेटा आगे जीवन नहीं जिएगा! उसका पिता उसके साथ है…”
“और माँ भी…” जानकी ने भींगे स्वर में कहा,”- हम दोनों मिलकर और भी परिश्रम करेंगे।”
अंदर कमरे में अपमान के निर्मम प्रहार से चोटिल नन्हे विनय का मन उसे सोने नहीं दे रहा था। आंगन से आती हुई माता-पिता की आवाज़ उस तक साफ साफ पहुंच रही थी। अपने होठों को भेज कर अपने निश्चय को जैसे उसने और भी दृढ़ कर लिया । और अब उन दोनों के उस संकल्प में नन्हे विनय का संकल्प भी जाकर मिल गया था।
और उस दिन के बाद से जैसे विनय अपना बचपन पीछे छोड़कर जैसे अपनी आयु से कुछ और वर्ष आगे बढ़ गया हो। परिपक्वता उसके व्यवहार में झलकने लगी थी। अब वह विद्यालय से आकर भी चुपचाप अपने कमरे में चला जाता था। उसने उपेंद्र बाबू के अहाते में आना बिल्कुल बंद कर दिया था। उसने जी जान से स्वयं को पढ़ाई के प्रति समर्पित कर दिया! कभी-कभी उपेंद्र बाबू कटाक्ष के साथ उपहास करते, “-और रघुनंदन! कहां है तेरा अधिकारी बेटा?”
रघुनंदन बाबू का कलेजा छलनी होकर रह जाता। उन्होंने और जानकी जी ने अब स्वयं को पूरी तरह से काम में डुबो दिया! शाम को उपेंद्र बाबू के यहां से आने के बाद वह एक दुकान पर सहायक के तौर पर काम करने लगे और जानकी जी ने घर बैठे कागज के लिफाफे बनाने का कार्य प्रारंभ कर दिया। विनय के लिए नई-नई पुस्तकें आ गईं। शीघ्र ही अपनी मेधा के बल पर विनय ने छात्रवृत्ति भी प्राप्त कर ली। और फिर उसने कभी मुड़कर पीछे नहीं देखा।और आज वह बहुत ही उच्च पद पर एक प्रतिष्ठित अधिकारी है। जिस दिन उसे नियुक्ति पत्र मिला, वह तुरंत मिठाई का डब्बा लेकर उपेंद्र बाबू के घर पहुंचा और उनके चरण छूकर विनीत भाव से कहा,”- अंकल जी! आपकी बातों के आधार पर ही मैं अपनी जीवन को एक नई दिशा दे पाया… अगर उस दिन आपने मुझे वह सब नहीं कहा होता तो शायद मैं वह नहीं कर पाता जो अब कर पाया हूँ। साथ ही अनुमति दीजिए कि मैं अपने माँ बाबूजी को अपने साथ अपने नए क्वार्टर में ले जा सकूं। अब वह आपके यहां काम नहीं कर पाएंगे! पूरा जीवन इन्होंने बहुत कम कर लिया! बहुत-बहुत आभार और धन्यवाद आपको! अब हमे विदा दीजिए!”
उपेंद्र बाबू का मुंह खुला का खुला रह गया। उनसे कुछ बोलते नहीं बन पड़ा। बस आशीर्वाद का हाथ उन्होंने विनय के सिर पर रख दिया और उसके बाद रघुनंदन बाबू और जानकी जी विनय के साथ उसके नए क्वार्टर आ गए।
“-अरे कहां खो गए बाबूजी! कार में बैठिए तो!…. विनय के स्वर से उनकी तंद्रा टूटी। सामने नई कर मानो उनको देखकर मुस्कुरा रही थी। रघुनंदन बाबू और जानकी जी को ऐसा लगा मानो उनके सारे त्याग और सारा परिश्रम आकाश के तारे बनकर उनके दामन में समा गए। हर्ष से ओतप्रोत होकर रघुनंदन बाबू हो हो करके हंस दिए, “- अरे बैठने के लिए मैं बैठ तो जाऊं मगर मुझे कार चलाने कहां आता है…..”
इस पर विनय ने बड़ी नाटकीयता से उनको झुक कर सलाम किया और कहा, “- जी आप इसके लिए आपके सामने आपका नया शोफर खड़ा है। गाड़ी वो चलाएगा… आप बस ऑर्डर कीजिए कि जाना कहां है।” और सब एक साथ हंस पड़े।
अगले ही पल खुशियों की टोली लेकर नई कार हवा से बातें कर रही थी और अनगिनत आकाश कुसुम रास्ते में जैसे बिछे जा रहे थे।
निभा राजीव “निर्वी”
सिंदरी, धनबाद, झारखंड
स्वरचित और मौलिक रचना
Yery nice story