“अगर जाना है तो तू कहीं चला जा…नेहा कहीं नहीं जाएगी”…।
“मगर माँ…..मैं कहांँ जाऊँगा…. ये मेरा घर है” ..।
“तो नेहा भी क्यों कहीं जाएगी..बहू है वह इस घर की..ये घर उसका भी है”…।
“मगर मैं इसके साथ नहीं रह सकता”… ।
“इसीलिए तो कह रही हूँ तू कहीं और अपना ठिकाना देख ले…. मगर नेहा को मैं कहीं नहीं जाने दूंँगी..ये मेरा आखिरी फैसला है….। रिश्ते सूरत से नहीं सीरत से निभाए जाते हैं इस बात को तू जितनी जल्दी समझ लेगा तेरे लिए अच्छा होगा………।”
सरला जी कई दिनों से अपने बेटे नितिन का व्यवहार देख रहीं थीं। अपनी पत्नी नेहा के साथ उसका व्यवहार बिल्कुल भी ठीक नहीं था। बात बात पर तुनक जाना, हर काम में नुक्स निकालना उसकी आदत में शुमार हो गया था। नितिन की पत्नी नेहा साधारण नैन नक्श वाली मध्यमवर्गीय परिवार की एक संस्कारी और सुघड़ लड़की थी ।
मगर न जाने क्यों नितिन को ऐसा लगता था कि उसके और नेहा के विचार मेल नहीं खाते। जबकि सरला जी इस बात को भली भाँति जानती थीं कि नेहा वह लड़की है जो परिवार को जोड़े रख सकती है….। उन्होंने जो पीड़ा अपनी शादीशुदा जिंदगी में झेली… वे नहीं चाहती थीं कि वही सब कुछ उनकी बहू नेहा को झेलना पड़े।
सरला जी के पिता ईश्वर चंद्र और उनके ससुर सुरेशचंद्र आपस में अच्छे मित्र थे। उन्होंने अपनी मित्रता को और सुर्ख रंग देने के लिए अपने बच्चों का विवाह आपस में करने का निश्चय किया। इस तरह सरला जी सुरेशचंद्र के घर बहू बन कर आ गईं। लेकिन उन्हें इस बात का एहसास अपनी ससुराल आने के बाद ही हुआ
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कि उनकी सास और पति इस शादी के खिलाफ थे, लेकिन सुरेशचंद्र जी के सामने उनकी एक न चलती थी। शादी तो हो गई मगर जिस सम्मान की वे हकदार थी वह उन्हें कभी नहीं मिला। उनके साधारण रंग रूप और दहेज को लेकर उन्हें काफी कुछ सुनने को मिलता। जबकि हर पिता की तरह उनके पिता ने भी अपनी हैसियत से बढ़कर ही दहेज दिया था।
अपने पिता की इज्जत की खातिर वे मौन रहकर सब सहती रहीं।इसी तरह प्रताड़ित होकर उनका समय गुजरता रहा। इस बीच बेटे नितिन का जन्म हुआ।जब तक उनके ससुर जीवित थे मांँ बेटे में से किसी की हिम्मत नहीं हुई उन्हें घर से निकालने की । ससुर की मृत्यु के बाद सास ने उनका रहना दुश्वार कर दिया । पति भी बात बात पर घर से निकालने की धमकी देने लगे और एक दिन तंग आकर सरला जी ने घर छोड़ दिया।
दुश्वारियों से गुजर कर उनकी जिंदगी जैसे तैसे सही ढर्रे पर आई । नितिन की शादी हुई। सरला जी बड़े चाव से नेहा को नितिन की दुल्हन बना कर लाईं, मगर आज नियति ने एक बार फिर उसी मोड़ पर खड़ा कर दिया। फर्क सिर्फ इतना था पहले पति था और आज बेटा है…..। पहले वे स्वयं थीं आज उनकी बहू है……।
आज फिर वही कहानी न दोहराई जाए इसलिए सरला जी ने अपने बेटे को ही घर से निकल जाने के लिए कहा।
अपने परिवार को बचाने के लिए उन्होंने जो तीर चलाया शायद वह सही जगह जाकर लगा । उन्हें यह अच्छी तरह से पता था कि नितिन उनसे बहुत प्यार करता है और वह उन्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाएगा। बस उसे थोड़ा सबक सिखाने की जरूरत है। जिस दिन वह रिश्तों की कद्र करना सीख जाएगा उस दिन अपनी पत्नी की भी कद्र करने लगेगा।
नितिन को भी अपनी मांँ से ऐसी उम्मीद बिल्कुल न थी कि माँ उससे ही घर से निकल जाने को कहेंगी। वह हक्का बक्का सा कभी अपनी माँ को देखता और कभी अपनी पत्नी को…जो डरी सहमी दरवाजे की ओट से यह सब देख रही थी।
सरला जी ने आवाज लगाई…. नेहा……इसका सामान पैक कर दे……आज से यह यहाँ नहीं रहेगा……। माँ मैं कहाँ जाऊँगा….।
कहीं भी जा…।
माँ….. तुम जानती हो मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता….।
क्या तू ये नहीं जानता … कि मैं तुम दोनों के बिना नहीं रह सकती….।
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आज एहसास हो गया मांँ…. कोई घर छोड़कर जाने के लिए कहता है तो कैसा लगता है……?
और तू जो बहू को बार-बार घर से निकलने को कहता है तो….. उसके दिल पर क्या बीतती होगी…. जानता है ….?
क्षमा कर दो मांँ…. अपराध बोध से नितिन ने अपने दोनों कान पकड़ लिए।
माफी मुझसे नहीं…अपनी पत्नी से मांँग.. तूने बहुत दिल दुखाया है उसका…..।
कान पकड़े पकड़े ही नितिन नेहा की तरफ घूम गया…. जिसकी आँखों से झर झर आंँसू बह रहे थे…..ऐसा लगता था जैसे मानो इतने दिनों का दर्द आज आंँसूओं में बह जाना चाहता हो।
नाम – एकता बिश्नोई