आज से मैं ही तुम्हारी मॉं हूॅं….. – भाविनी केतन उपाध्याय 

अपनें तो अपने होते हैं पर पराया भी कैसे अपना बन जाता है ये मैं अपने निजी अनुभव के तहत आप सबसे सांझा करने की कोशिश की है।

मेरी सासूमा और मैं यानि कि रीमा दोपहर में टीवी देख रहे थे कि अचानक से डोरबेल बजी, हम दोनों ने एक दूसरे के सामने देखा कि इस वक्त भरी दोपहरी में कौन हो सकता है? मैंने टीवी को कर दरवाजा खोला तो सामने पचास पचपन साल की महिला सामने खड़ी थी। मैने प्रश्नवाचक निगाहों से उनकी और देखा तो उन्होंने प्यारी सी गुस्कान बिखेरते हुए कहा, “मैं आप के नीचे वाले फ्लोर पर रहने आई हूँ मतलब की आप की नई पडोसन।”

मैंने मुस्कुरा कर उनका अभिवादन किया और घर के भीतर आने को कहा सासूम के साथ बातें करने लगी वो सभ्य महिला | उनके साथ बातों बालों में एक घंटा कहां बीत गया पता ही नहीं चला चाप नापता कर जाते जाते अपने घर आने का निमंत्रण देकर गई। पर ऐसा मौका कभी नहीं आया कि हम उनके घर जा सकें क्योकि वो रोज़ कुछ ना कुछ बहाना कर के कभी भी आ जाती थीं

मेरे और उनका यानि कि सुमित्रा आटी का रिश्ता कुछ अलग ही जुड़ गया था जैसे एक माँ बेटी.. मेरे लिए वो तरह तरह के पकवान बनाकर लाती और में भी घर में जी भी अच्छा बनता उन्हें जरूर चखाती कहीं आना जाना हो तो वह हमेशा तैयार हो जाती कभी मना नहीं करतीं, मुझे उनके साथ बहुत अच्छा लगने लगा था या यूं कहें कि मुझे जैसे ससुराल में मापका महसूस करा रही थीं वो..!! में उस वक्त उस दौर से गुजर रही थी यानिकि मैं मातृत्व के सफर का आनंद ले रही थी तो उनका साथ एक माँ की भांति महसूस होता था मुझे। दो तीन दिन से सुमित्रा आंटी दिखाई नहीं दी तो मैं बेचैन हो उठी, दिल कहीं लगता नहीं था। सासूम की इजाजत लेकर उन्हें मिलने चली गई तो देखा कि उनके पति खाना खा रहे हैं और वो पंखा चालू होने के बावजूद भी हाथ से देखा कर रही थी। खाना खाकर उनके पति दुकान चले गए। आज मैंने उनकी आंखों में उदासी और दुःख देखा फिर भीवो मुस्कुराने का प्रयास कर रही थीं मुझे देखकर। मैंने उन्हें मेरे यहां नहीं आने का कारण पूछा तो मुझे बातों में उलझाकर बात को टालना चाहा पर मैंने भी मन में ठान लिया था कि आज नहीं आने का कारण जाने बिना घर वापस नहीं जाउंगी।




मेरे बहुत बार पूछने पर आंखों में आसूं लिए उन्होंने कहा, ” बेटी, तुम मेरी बेटी जैसी है। मैं अपना मनहूस और अभागा साया तुम्हारे पर आने नहीं देना चाहती, खुद की बेटी को तो गंवा चुकी हूँ अब मुंह बोली बेटी को खोना नहीं चाहती। तुम्हारे अंकल ने सही कहा है कि मैं किसी खुशी के लायक ही नहीं हूँ। “

उनकी बात सुनकर कर मैंने यानिकि रीमा ने कहा, ” क्या एक माँ अपनी बेटी की खुशी छीन सकती है ? मुझ पर विश्वास कीजिए आंटी मेरी मां के बाद आप को ही मैंने अपना सबकुछ माना है ” कहते कहते रो पड़ी मैं।

मुझे चुप कराते हुए कहा, ” इस अवस्था में रोया नहीं करते बेटी पर मातृत्व के हर पल को एंजॉय करना चाहिए। मुझे माफ़ करना बेटी, मैं इस सफर में तुम्हारे साथ हूँ पर तुम से दूर हो कर ।” ‘एक नारी दूसरी नारी की दुश्मन कैसे हो सकतीं ” है ? ये तो सरासर नारीत्व का अपमान नहीं है माँ ? मुझे ये अपनापन और प्यार ये पराए शहर और पराए लोगों के बीच आप ने ही तो दिया है माँ फिर आप अपनी बेटी से कैसे दूर हो सकती है ? मैं ये मनहूस और अभागे साए के बारे में कुछ जानना नहीं चाहती, अगर आप को मुझ से दूर ही रहना था तो मेरे और आपके क्यों नई पहचान दी आप ने ? ‘ कहते हुए बिलख पड़ी मैं । “

मेरे आंसूओं को पोंछते हुए मुझे गले लिपटते हुए कहा, ” बस, कर मेरी बच्ची, अब चुप हो जा आज से मैं ही तेरी माँ और बाकी सबकुछ भी मैं ही हूँ, जिसको जो कहना है कहें पर आज तुम ने मुझे माँ कहकर मेरी बरसों से तरसे मातृत्व पर प्यार कि बारिश छिड़क दी है। आज से मैं वापस तुम्हारे साथ हूँ चिंता मत करना।”

 

सच कहूं उनकी यह बात सुनकर मुझे तसल्ली हुई और सोचने पर बाध्य हो गई कि क्या कोई इन्सान इतना अपना कैसे हो सकता है ? 

स्वरचित और मौलिक रचना ©®

भाविनी केतन उपाध्याय 

धन्यवाद,

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