यह कहानी है निरवी की। निरवी एक आम गृहिणी है। सभी गृहिणियों की तरह वह भी सुबह से लेकर रात तक अपने घर के सारे कामों को करने में व्यस्त रहती है।
सास-ससुर, पति, बच्चों किसको कब क्या चाहिए ? किसको कब लाना है, कब छोड़ना है ?
बाजार के काम निपटाना आदि सभी दैनिक कार्यों को करते-करते उसका दिन सुबह 5:00 बजे से शुरू होकर कब रात के 12:00 तक पहुंच जाता है उसे भी पता नहीं चलता।
वह तो दिन भर किसे क्या अच्छा लगता है और किसे क्या नही, उसी के हिसाब से एक रोबोट की तरह चलती रहती है।
सालों से हर दिन उसे यह चाह रहती है कि काश कोई उसके पास आए उससे पूछे कि तुम क्या चाहती हो ? आज तुम्हारा क्या खाने का मन है ? क्या आज तुम कहीं घूमने जाना चाहती हो ? क्या आज तुम एक दिन की छुट्टी लेना चाहती हो ? ऐसे ना जाने कितने प्रश्न जो चाहती है कि कोई उससे पूछे।
मगर नहीं ऐसा तो कभी हुआ ही नहीं।
धीरे-धीरे समय कटता जा रहा था, बच्चे बड़े होते जा रहे थे। निरवि को लगा कि चलो अब कम से कम उसे थोड़ी स्वतंत्रता मिलेगी। जिस तरह अब तक वह सब के सारे काम समय पर करती आई है। अब उसके बच्चे भी उसकी मदद किया करेंगे।
इसीलिए उसने धीरे धीरे-धीरे अपने बच्चों को छोटे-छोटे काम अपने साथ करने के लिए प्रेरित करना शुरू किया।
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शुरू में तो बच्चे शौक-शौक में थोड़ी बहुत मदद कर दिया करते थे। धीरे-धीरे जब उसने उन्हें जिम्मेदारियां देना शुरू किया तो बच्चे चिढ़ने लगे, काम से जी चुराने लगे। बात-बात पर बहस करने लगे।
निरवि ने कभी प्यार से, कभी समझा कर, कभी डांट कर, कभी कुछ विपरीत स्थितियों का हवाला देकर उन्हें बहुत समझाने का प्रयास किया कि घर के कामकाज करना, घर में मां की मदद करना कोई एहसान नहीं है।
जिस तरह अच्छे भविष्य के लिए, रोजगार के लिए पढ़ाई आवश्यक है, ठीक उसी तरह घरेलू कार्य भी है जो जीवन में हर किसी को कभी ना कभी काम ही आते हैं।
मगर नहीं इन सब का कोई असर बच्चों पर नहीं हुआ।
निरवि ने यह महसूस किया कि उसके बच्चों का व्यवहार उसके साथ तब ही अच्छा होता है जब उन्हें पैसों की जरूरत हो या फिर उन्हें कोई वस्तु खरीदना हो, कहीं घूमने जाना हो या निरवी की मदद की आवश्यकता हो।
इस बाबत उसने कई बार अपने बच्चों को समझाने का प्रयास किया। पर इसका नतीजा हमेशा शून्य ही रहा।
जब भी वह कुछ कहती, समझाने का प्रयास करती बच्चे हमेशा दूसरे पालकों के उदाहरण देकर उसे यह एहसास कराते की उन्हें तो इस घर में बहुत सी कमियां है। जैसे बाहर तो सभी माता-पिताओं ने अपने बच्चों के कदमों में सारा जहां ही लाकर रख दिया है।
निरवि कभी बीमार हो तो कोई भी बच्चा एक पल भी उसके पास आकर बैठना, उसके हाल-चाल पूछना जरूरी नहीं समझता था।
ऐसा लगने लगा था मानो बच्चे घर में नहीं किसी और ही दुनिया में रहते हो।
व शारीरिक तौर पर तो घर में होते थे पर मानसिक तौर पर उनकी एक अलग ही दुनिया बस गई थी। उनका अधिकतर, समय टीवी, मोबाइल दोस्तों मैं बीत रहा था।
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अब तो बच्चे अपने मां पिता से ना सुनना ही नहीं चाहते थे। आज तो हद ही हो गई। निरवि के बेटे आकाश ने उससे कहा कि मुझे अपने दोस्तों के साथ गोवा घूमने जाना है। मुझे ₹25000 चाहिए। निवि को लगा बात 200, 500 ,1000 से ऊपर उठकर आज 25000 पर आ गई।
सबसे मुख्य बात जो कि आकाश में अपनी आदत बना ली थी। किसी भी विषय पर कुछ भी बताना या पूछना तो वह जरूरी ही नहीं समझता था। उसे ऐसा लगने लगा था कि उसका जीवन है वह जैसे चाहे जीए।
जब निरवि ने उससे कहा बेटा तुम्हें यह प्लान बनाने से पहले घर में मुझ से, पापा से पूछना चाहिए था। आकाश का जवाब सुनकर निरवि के पैरों तले जमीन खिसक गई।
उसने निरवि से कहा- “आप कौन होती हो मुझे ऐसा कहने वाली ? आपका कोई अधिकार नहीं है, मैं चाहे जो करूं।”
निरवि जैसे जड़ हो गई। कुछ पल स्तब्ध सी खड़ी रह गई “मैं, मैं कौन होती हूं ???
मन ही मन सोचने लगी। क्या यह बच्चे इतने बड़े हो गए कि हमारा इन पर कोई अधिकार ही नहीं रहा।
अभी तो यह आत्मनिर्भर भी नहीं बने हैं। ना ही हम इन पर निर्भर हैं। यह आज ऐसा है तो कल कैसा होगा ???
उसका मन चित्कार उठा- हे ईश्वर! “मेरे तो कर्म ही फूट गए जो ऐसी सन्तान को जन्म दिया।”
आकाश जा चुका था और वह वहीं जमीन पर बैठी सोच रही थी। सारे संस्कार न जाने कहां चले गए ?
सभी का आदर सत्कार करना सभी के साथ मधुर व्यवहार करना यह तो निर्वि का श्रेष्ठ गुण था।
उसने हमेशा से यह प्रयास किया कि उसके बच्चे भी इसी तरह सबके साथ व्यवहार करें।
आज वह स्वयं को बहुत तुच्छ महसूस कर रही थी। उसे लगता था की जो संस्कार वह बच्चों को दे रही है उसके बच्चों के व्यवहार में भी संस्कार अवश्य झलकेंगे। मगर ऐसा नहीं हुआ।
आज की पीढ़ी के बच्चों को अपने मां-बाप से भावनात्मक जुड़ाव तो बहुत कम ही रह गया है।
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ऐसा लगने लगा है जैसे सभी बच्चे एक रोबोट सी जिंदगी जी रहे हैं। बस एक दूसरे से जितना स्वार्थ है, उतना ही रिश्ता है। स्वार्थवश सारे रिश्ते निभाए जा रहे हैं।
आजकल के बच्चों के लिए उनके मां-बाप, मां बाप कम और एटीएम मशीन ज्यादा हो गए हैं। बच्चों की खुशी, प्रेम, प्रसन्नता और मां-बाप के प्रति उनका अच्छा व्यवहार सिर्फ और सिर्फ मां-बाप रूपी इस एटीएम मशीन से निकलने वाली नोटों की गड्डियों पर ही निर्भर करता है।
मित्रों यह कहानी केवल एक निरवि कि नहीं है। आज के समय में यह कहानी हर घर की हर मां की है।
हर घर की आर्थिक स्थिति एक जैसी नहीं हो सकती। हर मां-बाप अपने सामर्थ्य से अधिक अपने बच्चों की शिक्षा और उनके अच्छे जीवन स्तर हेतु खर्च करते हैं।
फिर भी बच्चों के मन में अपने माता-पिता के लिए यह दुर्भावना क्यों ?
कौन है इसके लिए जिम्मेदार ????
क्या वे माता-पिता जो अपने बच्चों को आवश्यकता से अधिक सुविधा समय से पूर्व ही उपलब्ध करा रहे हैं ???
सोचना होगा ऐसे पालकों को कि उनका यह व्यवहार आर्थिक स्तर से कमजोर वर्ग के पालकों के आत्म सम्मान को कितनी ठेस पहुंचा रहा है एवं उनके घरों को तोड़ रहा है।
स्वरचित
दिक्षा बागदरे
11/08/2024
#क्या करें, हमारे तो कर्म ही फूट गए जो ऐसी संतान को जन्म दी