आदर्श – पुष्पा कुमारी “पुष्प” : Moral Stories in Hindi

“निशा!.पिछले महीने मैंने तुम्हें पचास हजार रुपए दिए थे रखने के लिए; उसमें से तुम मुझे दस हजार रुपए दे दो।”

भोजन कर जल्दबाजी में कहीं बाहर जाने के लिए घर से निकलते नीरज की बात सुनकर निशा ने सर झुका लिया..

“वह रुपए तो अभी मेरे पास नहीं हैं।”

“नहीं है का क्या मतलब हुआ?.कहां गए वो रुपए?”

“जी वो मैंने”..

“निशा तुम बहुत खर्चीली हो गई हो!.माना कि त्यौहार का मौसम चल रहा है किंतु तुम्हें अपने खर्चों पर थोड़ा लगाम लगाना चाहिए।”

नीरज निशा को समझाने लगा। निशा अभी कुछ सफाई दे पाती उससे पहले ही नीरज के मोबाइल की घंटी बजी उठी।

मोबाइल के स्क्रीन पर गांँव में रहने वाले नीरज की मांँ यानी निशा की सास का नंबर डिस्प्ले हो रहा था।

“मांँ!.मैं अभी थोड़ा बिजी हूंँ!.आपसे बाद में बात करता हूंँ।” नीरज ने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया।

“मांँ जी क्या कह रही थी?”

निशा ने नीरज से जानना चाहा।

“कुछ नहीं!..बस ऐसे ही हालचाल पूछने के लिए फोन करती रहती हैं।”

नीरज ने निशा को टालना चाहा नीरज के चेहरे के बदले भाव पढ़ती निशा फिर पूछ बैठी..

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“आजकल आप माँजी से पहले की तरह खुलकर अच्छे से बात क्यों नहीं करते?”

“ऐसी कोई बात नहीं है निशा!.वैसे भी तुम दुनियादारी नहीं समझती हो इसलिए मैं हर बात तुम्हें नहीं बताता।”

“लेकिन मैं समझ ना तो चाहती हूंँ ना!. अगर आप मुझे नहीं समझाएंगे तो कौन समझाएगा?”

अपनी पत्नी निशा के चेहरे पर उदासी देख नीरज उसके करीब आया..

“अच्छा बताओ!.क्या जानना चाहती हो?”

“आप माँ जी से पहले की तरह ढेरों बातें क्यों नहीं करते?.और अब तो आप उनकी बातें सुनना तक नहीं चाहते,. ऐसा क्यों?”

“देखो निशा!.पहले मैं अकेला था तो मेरे खर्चे कम थे और मैं अपनी मांँ की हर फरमाइश और उनका आदेश बिना कोई सवाल किए तुरंत अपनी कमाई से पूरी कर देता था लेकिन अब मैं शादीशुदा हूँ!. और मेरे अपने खुद के ही हजार खर्चे हैं।”

“तो क्या हुआ?”

नीरज की बातें सुनती निशा को आश्चर्य हुआ।

“तुम तो जानती ही हो कि,.अभी कुछ दिनों पहले ही मैंने होम लोन लिया है और पहले से एक चार पहिया की किस्त भी चल रही है!.इस घर का किराया,.महीने का खर्च भी मैं अपनी तनख्वाह से ही चलाता हूंँ।”

“मैं आपकी बात समझती हूंँ!.लेकिन इसमें माँजी का क्या दोष?”

“निशा मैं किसी को दोष नहीं दे रहा!. लेकिन अब मैं किसी की बेफिजूल फरमाइश और आदेश पूरी नहीं कर सकता,.बस।”

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“माँ जी ने आपसे ऐसी कौन सी फरमाइश कर दी जिसकी वजह से आप अब उनसे सीधी मुंह बात तक नहीं करते?”

“कुछ दिनों पहले मांँ ने मुझसे पचास हजार रुपए मांगे थे।”

“माँ जी ने इतने रुपए आपसे क्यों मांगे?. कम से कम यह तो आपको जानने की कोशिश करनी चाहिए थी ना!”

“हाँ!.मांँ ने बताया था कि,. उनका एक दूर का रिश्तेदार जो मेरे मुंह बोले मामा लगते हैं अस्पताल में भर्ती थे और उन्हें इलाज के लिए रुपए चाहिए थे!.माँ अपनी दरियादिली में उन्हें मदद करने की बात कह रही थी।”

“फिर आपने क्या किया?”

“मैंने कुछ दिनों तक मांँ का फोन उठाना बंद कर दिया।”

“यह तो आपने बहुत गलत किया?” निशा के चेहरे पर फिर से उदासी छा गई।

“समझने की कोशिश करो निशा!.मेरे पास उस बेवजह खर्चे से बचने का कोई और उपाय नहीं था।”

“मैं आपसे एक बात कहना चाहती हूंँ।”

“हाँ!.कहो।”

निशा अभी कुछ कह पाती उससे पहले ही नीरज का मोबाइल फिर से बजे उठा।

मोबाइल के स्क्रीन पर फिर से नीरज की मांँ का नंबर डिस्प्ले हो रहा था।

“प्लीज फोन डिस्कनेक्ट मत कीजिए!”

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निशा ने इस बार नीरज से विनती की और अपनी पत्नी निशा की बात मान नीरज ने इस बार अपनी मांँ से बात करने का मन बनाकर डिस्कनेक्ट होने से पहले ही फोन रिसीव कर लिया..

“बेटा नीरज!.एक जरूरी काम था इसलिए मैंने फिर से फोन लगा दिया।”

नीरज की मांँ ने बेटे की व्यस्तता को समझते हुए बिना कोई भूमिका बांधे जल्दबाजी में अपनी बात रखनी चाही।

“मांँ मैं सुन रहा हूंँ!.बताइए क्या काम था?”

“बेटा!. अगर तुम अपना अकाउंट नंबर दे देते तो मैं रुपए तुम्हारे अकाउंट में डलवा देती।”

“कौन से रुपए माँ?”

अपनी मांँ की बातें सुनते नीरज को आश्चर्य हुआ।

“बेटा!.वह पचास हजार रुपए जो तुमने पिछले महीने मेरे अकाउंट में डाले थे अपने सुभाष मामा के इलाज के लिए।”

“उनका इलाज हो गया?”

“हांँ बेटा!.उनका बेटा भी तुम्हारे जैसा ही लायक निकला; इलाज के सारे रुपए भर दिए उसने और वह तुम्हारे वो पचास हजार रुपए भी जल्द से जल्द लौटाना चाहता है।”

अपनी मांँ के मुंँह से हमेशा की तरह अपनी तारीफ सुनता नीरज नि:शब्द हो अपनी पत्नी निशा की ओर देख रहा था जिसने अपनी समझदारी से एक आदर्श बेटे की छवि में तनिक भी दाग नहीं लगने दी।

पुष्पा कुमारी “पुष्प”

पुणे (महाराष्ट्र)

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