काफ़ी वर्षों के बाद मिन्नी अपने मम्मी पापा के साथ अपने घर, अपने दादा दादी के घर दिल्ली आई है। उसके बचपन में ही रमेश जी सपरिवार शिकागो में बस गए थे। पूरी तरह होश संभालने के बाद वो पहली बार भारत आई है।
पूरा परिवार उनके स्वागत में लगा हुआ था। चाचाजी, चाचीजी और उनके दोनों बच्चे कितने खुश थे। खूब दौड़ दौड़ कर मिन्नी दीदी के आगे पीछे लगे थे। तभी दादी ने ऐलान किया,
“जा बेटी, जल्दी से नहा ले। सफ़र की थकान भी मिट जाएगी और तेरे लिए चाची स्पेशल नाश्ता बना रही है।”
“ओह दादी, अब नाश्ते के लिए नहाना जरूरी है क्या?बहुत थकान लग रही है और भूख भी। पहले कुछ खिलाओ तो।” ये मिन्नी ठुनठुन कर रही थीं।
चाचाजी सस्नेह बोले थे,
“गलत बात बेटा, इस समय तुम भारत में हो। नहा कर तरोताजा हो लो । फिर तुम सब भाई बहन मस्त नाश्ता करो।”
वो थोड़े नखरों के बाद नहा कर आ गई। दोनों छोटे भाई बहन खाने की टेबल पर डटे उसकी प्रतीक्षा कर ही रहे थे। चाची घर की पुरानी मेड शीला के साथ मिल कर नाश्ता लगाने लग गई। मटर की कचौड़ी और लटपटे आलुओं की सुगंध उसे मदहोश कर रही थी। तब उसकी मम्मी मंजुला ने टोका था,
“मिन्नी, सम्हल कर खाना। तुम इतने तेल घी की कचौड़ी पचा नहीं पाओगी।”
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वो चैन से निवाला मुँह में डालते हुए बोली थी,
“टू हैल विद बोगस डायटिंग! शिकागो जाकर फिर सूप और सैंडविच निगल लूँगी पर अभी तो अपने इंडियन फूड का मज़ा लेने दो।”
मंजुला जी का मुँह बन गया था, “असल में ये बहुत हैल्थ कॉंशस है। तला भुना कुछ खाना ही नहीं चाहती।”
दादी ने उसकी प्लेट में एक कचौड़ी और डालते हुए बात को सम्भाला था,
“कुछ दिन के लिए आई है। यहाँ का, अपने देश का खाना तो खाना ही चाहिए। यहां के पानी का, खाने का स्वाद तो लेने दो।”
वो तपाक से बोली,”चाची, आपसे कुछ सीख कर जाऊँगी। वहाँ कभी कभी अपनी सहेलियों को बना कर खिलाऊँगी। यो नो चाची, दे लव इंडियन फूड।”
सारे तमाशे का आनंद लेते हुए दादा जी बोले पड़े,”हमारा भारतीय भोजन लाजवाब होता है। तुमलोग तो पिज्जा पास्ता के पीछे दीवाने हो।”
मिन्नी देख रही थी…दो नौकरानियाँ बराबर चाची के साथ लगी थी। वहाँ अमेरिका में सब काम खुद करो। इतना खाना खुद पकाने में तो आदमी पस्त ही हो जाए। लाइफ़ तो यहाँ इंडिया ही में है।
शाम को बुआजी के यहाँ जाना था। दो गाड़ियों में पूरा परिवार लदफद कर पहुँचा। कितनी धमाचौकड़ी मची। वो तो हतप्रभ सी देख रही थी। वहाँ अमेरिका में ऐसा पारिवारिक सुख…बाप रे सोचना भी बेकार है। परिवार क्या होता है…परिवार का सुख क्या होता है…वो सब कुछ अपने कलेजे में जैसे आत्मसात सा कर रही थी।
सारी चाचियां, भाभियाँ और बड़ी दीदी लोग कितनी सुंदर साड़ियों में रानियों जैसी लग रही थीं। फूफाजी जी ने सबके लिए बेला चमेली के गज़रे मँगवा दिए थे। उनकी सुगंध तो उसे मदहोश किए जा रही थी। उसे भी खूब रॉयल फ़ील आ रहा था। आज तो वो भी दादी के आग्रह पर जींस टॉप को त्याग कर चाचीजी की शिफॉन की साड़ी पहन गई थी। उस सुंदर साड़ी में उसका सौंदर्य निखर गया था। बुआजी ने तो उसकी नज़र उतार कर ढेरों बलैयां ले डाली थीं।
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अब इतने दिनों की मस्ती के बाद आज रात को उनकी वापसी थी। वो बहुत बेमन से तैयारियां कर रही थी। रह रह कर यहाँ का स्वादिष्ट खाना, लिट्टी चोखा, कामवालियों की सेना और सबसे बढ़ कर यहाँ का पारिवारिक माहौल उसे बेचैन कर रहा था। सोचते सोचते उसे रुलाई आने लगी थी। पर किसी तरह दिल को समझाया। चलते समय सबसे लिपट कर खूब रोई थी। छोटी बहन शुभा ने छेड़ा भी था,
“दीदी, आप तो ऐसे रो रही हो जैसे ससुराल जा रही हो। कूल दीदी कूल।”
सबने उसे एकदम शाही फ़ेयरवेल दिया। प्लेन उड़ते ही उसने आँखें बंद कर ली थी और मुठ्ठियाँ भींच कर मन ही मन ठान लिया… दो साल बाद पढ़ाई पूरी होने पर अपने देश लौट आएगी। अपने देश में ही जीवन है…सच्ची और सही जिंदगी भी सिर्फ़ यहीं मिलेगी।
नीरजा कृष्णा
पटना