आज बाबूजी कुछ ज्यादा ही सुबह उठ गये थे। बाहर वाले कमरे से लगातार खट-पट की आवाज आ रही थी। पता नहीं इतनी सुबह -सुबह उठकर बाबूजी कमरे में क्या कर रहे हैं,देखती हूं जाकर। सुधा उठकर जाने लगी तो अजय ने टोका -“कहां जा रही हो? सो जाओ आराम से नींद हराम करने की जरूरत नहीं है समझी।”
अरे, देखने तो दीजिये कि बाबूजी क्या कर रहे हैं। कहीं कोई परेशानी तो नहीं उन्हें।
कोई परेशानी नहीं है। बेचैनी है और कुछ नहीं अजय ने तकिये से अपना कान बंद करते हुए कहा-“तुम्हें याद नहीं है क्या आज कौन सी तारीख है।
ओ… मैडम अब याद करो ना आज तीस तारीख है तीस तारीख ।”.
अजय आगे बोलता गया, “तीन महीने पूरे हो गए आज। माँ आने वाली हैं हमारे पास और इसी खुशी में बाबूजी को नींद नहीं आ रही है, अभी से ही इंतजार में नहा धोकर बैठ जाएंगे। पता नहीं सत्तर साल की उम्र में कौन सा उमंग बाकी है मिलने का । इतना तो हमें भी कभी नहीं हुआ दस सालों में। एक व्यंग्य भरी हंसी अजय के होठों पर खेल गई।
लगभग तीन सालों से लगातार यही नियम चल रहा है। बँटवारे के बाद दोनों भाइयों ने -बाबूजी और माँ के सामने प्रस्ताव रखा था कि एक साथ दोनों के ख़र्चे का बोझ वे नहीं उठा सकते हैं सो
तीन महीने एक भाई के पास कोई एक आदमी ही रहेगा। पहले तो बाबूजी बहुत नाराज हुए लेकिन माँ के समझाने बुझाने पर मन मसोस कर तैयार हो गए थे ।
दूसरा कोई चारा भी तो नहीं था जिंदगी में जो कमाया सब बच्चों को पढ़ाने लिखाने में खर्च हो गया। जो कुछ बचा था उसमें बाबूजी माँ के नाम से घर बनाना चाहते थे लेकिन माँ ने ही दोनों बेटों के लिए दो फ्लैट खरीदने के लिए बाबूजी पर दबाव बना दिया। उनका मानना था कि जो भी है वह सब उन्हीं लोगों के लिए ही तो है दोनों दो जगह रहेंगे तो आपसी प्रेम भी रहेगा। रिटायर होने के बाद हम जब चाहेंगे कभी इस बेटे के पास तो कभी उस बेटे के पास रहेंगे।
उन्हें क्या पता था कि दोनों की जिंदगी रेल की पटरी बन जायेगी और अकेले -अकेले मंजिल तक अपना सफर तय करेगी । अक्सर छोटा भाई माँ को लेकर आता था और एक दिन बाद बाबूजी को लेकर चला जाता था अगले तीन महीने के लिए। उसके बाद तीन महीने तक फोन ही उनके बीच कड़ी बनकर पति- पत्नी को एक साथ जोड़ कर रखती थी।
अजय के टोकने के बावजूद सुधा उठ कर बाबूजी की कमरे की ओर चल पड़ी। जाकर देखा तो वे अपने बेड पर का चादर झाड़ रहे थे सुधा को देखते ही थोड़े झेप गए बोले-” ओह बहू , मेरी वजह से तुम्हारी नींद खराब हो गई मुझे माफ करना। असल में तुम्हारी सास को गंदगी पसंद नहीं है इसलिए झाड़ पोंछ दे रहा हूं आएगी तो परेशान नहीं होगी तीन महीने इसी में तो रहना है न उसे।”
छोटे के यहां बड़े सलीके से रखती है अपने कमरे को। अच्छा बेटा अब आ ही गई हो तो थोड़ा फोन लगाकर पूछो तो कि माँ वहां से चली की नहीं। तब तक मैं स्नान कर लेता हूं। इतना कहकर वह बाथरूम की ओर चले गए। बहू ने छोटे भाई को फोन लगाया। उधर से देवरानी ने फोन उठाया। कुशल- क्षेम पूछने के बाद बहू ने
पूछा कि माँ जी निकल चुकी हैं क्या?
प्रश्न सुनते ही देवरानी ठहाका लगाकर हंस पड़ी बोली-” दीदी आपको नहीं पता कि सावन चढ़ गया है। सबसे ज्यादा हरियाली माँ जी पर ही छाया है। कल उन्होंने हरी चूडिय़ां हरी बिंदी मंगवाया है मुझसे। सजने में लगी हैं सुबह से। लगता है जैसे पहली बार जा रही हैं बाबूजी से मिलने। चार दिन से तैयारी कर रही हैं । पता नहीं इस उम्र में कौन सा उमंग बाकी है जो इतनी तैयारी है बाबूजी से मिलने के लिए।
ये (पति) तो तैयार होकर बैठे हैं देखिए कब तक निकलती हैं। चलिये कम से कम दो दिन तो मुझे इस जिम्मेदारी से छुटकारा मिलेगा। तंग आ गई हूँ तीन महीने से ढोते -ढोते ।
सामने से नहाकर बाबूजी आ रहे थे सो बहू ने स्विच ऑफ कर दिया और बोली -“बाबूजी माँ जी थोड़ी देर में निकल जाएंगी वहां से लगभग दो बजे तक यहां पहुंच जाना चाहिए।”
आप तैयार हो लीजिए मैं आपके लिए चाय बनाती हूँ।
ऑफिस निकलते हुए अजय ने कहा -“सुनो आज ऑफिस में कुछ जरूरी काम है। माँ आएगी तो फोन कर कर के परेशान मत करना। मैं नहीं आ पाऊँगा। ”
“माँ आते ही सबसे पहले आप ही को तो ढूँढती हैं।”
अरे वह सब दिखावा है, वो मेरे लिए नहीं उनको बाबूजी से मिलने की बेचैनी रहती है ।
दोपहर के समय एक ऑटो घर के बाहर आकर रुक गया।आवाज सुनते ही बाबूजी कमरे से लगभग दौड़ कर बाहर आए। एक अलग तरह की चमक थी उनके आंखों में जैसे किसी चकोर को चांद मिल गया हो। बहू भी जल्दी से बाहर आई। उसने माँ के पांव छुए। माँ ने प्यार से बहू को ऊपर उठाकर गले से लगा लिया। छोटे भाई ने माँ के सारे सामान को बाबूजी के कमरे में रख दिया।
शाम को अजय ऑफिस से आया। माँ के पैर छुए और अनमने ढंग से खुश होने का दिखावा करने लगा । बाबूजी आज बहुत खुश थे। सबने मिलकर रात का खाना खाया। सब सोने की तैयारी करने लगे। अजय थकान के कारण पहले ही आकर सो गया। देर रात तक कमरे से माँ -बाबूजी के बात करने की आवाज आ रही थी ।
अजय खिन्न होकर बोला-” पता नहीं इन लोगों के बुढ़े देह में कितनी ताकत है। लगता है तीन महीने नहीं तीन साल पर मिले हों। इनकी बातें खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं थकते भी नहीं वाह रे रिश्ता!”
इस बार बहू चुप नहीं रह सकी बोली-” शायद आपको पता नहीं है कि देह के भीतर एक बहुत ही कोमल दिल भी है और जब दिल से दिल का रिश्ता जुड़ता है तब वहां देह का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। माँ- बाबूजी के बीच अब वही अलौकिक रिश्ता है।
देखते -देखते बाबूजी के जाने का समय आ गया। । छोटे भाई ने बाबूजी को जल्दी तैयार होने के लिए बोला और बाबूजी का सामान कमरे से बाहर निकालने के लिए माँ को आवाज लगाने लगा l।बहू ने देखा माँ का चेहरा मुर्झाया हुआ था। वह भरे मन से बाबूजी की अटैची को बाहर खिसका रही थीं। अजय बाहर ऑटो लेकर आ चुका था। जल्दी करो, जल्दी करो चिल्ला रहा था ।बाबूजी ने एक झलक माँ को देखा और अटैची उठाने लगे। बहू तेजी से कमरे में आई और बाबूजी के हाथ से अटैची लेते हुए बोली, -“बाबूजी आप कहीं नहीं जा रहे आप दोनों अब हमेशा हमारे साथ रहेंगे ।मुझे आप दोनों चाहिए बस। मैं आप दोनों के बिना नहीं रह सकती।
माँ बहू को कलेजे से लगाते हुए बोली, -“बेटा तूने तो वह खुशी दी है जो “खून के रिश्ते” ने भी नहीं दिया इस ढलती सांझ में आस का दीया जला दिया है तुझे हम दोनों की उमर लगे।”
अजय की पत्नी सुधा…बिल्कुल अपने नाम की पर्याय थी। वह अमृत की कलश बनकर ही अजय के जीवन में आई थी जिसके कारण उसका घर तीर्थ बन गया था। बदलते आधुनिक समाज की बहुओं से एकदम अलग।
माँ- पिताजी कितने भाग्यशाली हैं जो ऐसी सुघड़, सुशील और शालीनता की मूर्ति सी बहु इन्हें मिली है। उसके आने से पूरा घर परिवार खुशियों से खिल उठा था।
माँ- पिताजी ही क्यूँ मैं भी तो नसीब वाला ही हूँ जो ऐसी कर्त्तव्य परायण पत्नी मुझे मिली है। जिसकी कदर मैं नहीं कर रहा था। मैंने जन्म लेकर भी अपने माँ- बाप का कीमत नहीं समझ पाया और सुधा ने बहु होकर भी सास -ससुर की भावनाओं को अपने सिर आंखों पर रखा।
मेरी पत्नी ने मुझे आज एक पाप करने से रोक लिया वर्ना मैं जीवन भर खुद को माफ नहीं कर पाता…मुझ जैसे बेटों की वज़ह से ही औलाद होते हुए भी माँ बाप अनाथ और बेसहारा हो जाते हैं ।
” सच ही लोग कहते हैं कि एक माँ -बाप अपने सभी बच्चों को पाल लेते हैं लेकिन चार बच्चों को अपने एक माँ बाप भारी लगते हैं ।”
सुधा ने कैसे अपने प्यार और मनुहार के बल पर बाबुजी को रोक लिया था। उसने उनके हाथ से अटैची वापस ले ली और दरवाजे के बीचोंबीच खड़ी हो गई।
पर बाबुजी कैसे निरीह की तरह सबको देख रहे थे। उन्हें मुझ पर क्या खुद पर भी विश्वास नहीं हो रहा था कि उनके हाथ से उनके बेटे ने उनकी अटैची ले भी ली है और अब वह उन्हें घर के अंदर चलने के लिए कह रहा था।
अजय ने उनको अपने छोटे बेटे के साथ जाने से रोक लिया था।
माँ को सुधा के गले लगे देख कर बाबुजी की आंखें झरने की तरह बहने लगी थीं। माँ को सुधा के गले लिपटे देख वही खड़ा छोटा भाई भी आंखें पोंछ रहा था। उसने भी कभी नहीं चाहा था कि माँ -बाबुजी का बंटवारा हो पर बड़े भाई के निर्णय को उसे मानना पड़ा था। माँ तो उसे कभी अपने से दूर नहीं करना चाहती थी लेकिन क्या करती…..उन्हें तो सब के लिए त्याग करना था।
उसने माहौल को हल्का करने के लिए बीच में टोका-” अरे भाई आप दोनों सास-बहु के बीच जो प्यार की गंगा बह चली है उसमें मुझे भी गोते लगाने का मौका दीजिये सारा पुण्य अकेले ही कमाना चाहती हैं आपलोग।”
उसकी मसखरी पर सभी लोग हंसने लगे। सुधा ने सबको अंदर चलने के लिए कहा। सभी लोग अंदर आने के लिए आगे बढ़े पर बाबुजी वहीँ के वहीँ खड़े थे। जाने क्यूँ उनके चेहरे पर अपराध बोध का भाव था। सुधा ने आवाज लगाई-“बाबुजी….
बाबुजी ने अपने कुर्ते के पाकेट से रुमाल निकाली और अपनी आंखें पोंछ अजय की तरफ देखने लगे……शायद वह बेटे की इच्छा उसकी जुबानी सुनना चाहते थे।
“वाह रे दुनिया और दुनियां की दस्तूर! जिसने उम्रभर जिंदगी की तपिश में झुलस -झुलस कर अपने बाग के पौधे को सींच कर बड़ा किया ताकि उसकी छाया में अपनी उम्र की “ढलती साँझ” में कुछ देर सुकून से बैठ सके। पर आज …. उसे अपने ही पौधे की डाली से कुछ पल ठहरने के लिए इजाजत का इंतजार है। ”
सुधा बाबुजी के स्वाभिमान से वाकिफ थी।
वह समझ गई कि बाबुजी के पैर क्यूँ रुके हुए थे। उसने अपने पति की ओर आग्रहपूर्ण आँखों से देखा।सुधा के भावनाओं को कभी न समझने वाला अजय आज उसकी आँखों को देखते ही उसका इशारा समझ गया।
उसने तुरंत ही बाबुजी का हाथ किसी बच्चे की तरह पकड़ते हुए कहा-” बाबुजी चलिए ना अंदर सब साथ बैठकर छोटू के हाथ से बनी चाय पीते हैं बहुत दिन हो गए भाई के हाथ का चाय नहीं पिया हमने।”
बाबुजी आँखों की नमी छुपाते हुए धीरे-धीरे सबके साथ बैठक में आ गए। इस दृश्य में ऐसा लग रहा था जैसे बाबुजी के पीछे पीछे घर की खुशियां खुद-ब-खुद चल कर आ रही थीं। आज खुशियों से भरा सुखी परिवार तीर्थ के सामान लग रहाथा! माँ- बाबुजी ने इसी की तो कल्पना की थी।”
कमरे में किसी के आने की आहट से अजय की तन्द्रा टूटी। “माँ …. आओ ना अंदर दरवाजे पर क्यूँ खड़ी हो?
“बेटा तेरे लिए दूध लाई थी पियेगा?
“माँ तुम क्यों परेशान हो गई सुधा कहां है?”
बेटा, सुधा रसोईघर की साफ सफाई कर रही थी तो मैंने सोचा मैं ही तुझे दूध दे देती हूँ….थोड़ी तो मदद हो जाएगी न उसकी।
“माँ कभी-कभी बेटे की भी तारीफ कर दिया करो ….।”
अजय ने माँ को अपने पास बुलाकर बैठा लिया और अपना सिर माँ की गोद में रखकर लेट गया। आज वह चालीस साल का नहीं बल्कि चार साल का बच्चा लग रहा था माँ की गोद में! वह माँ से बातें कर रहा था और उनकी साड़ी के आँचल को अपनी उंगलियों में बच्चों सा लपेट रहा था। आज उसके जुबान की सारी करवाहट निःशब्द हो गई थीं।
माँ को लगा जैसे उनकी गोद में वही पांच साल का नन्हा सा अजय लेटा है। कितने सालों के बाद उन्हें फिर से वही सुख मिल रहा था जो उनसे अजय की कुंठा और क्रोधी स्वभाव ने छीन ली थी।
“बच्चे की उम्र चाहे कितनी भी क्यों न हो जाएं पर माँ के लिए तो वह बच्चा ही हैं।”
माँ ने उसका माथा सहलाते हुए कहा-” बेटा तू ठीक तो है ना?”
माँ….”मेरी छोड़ो तुम बताओ मुझे माफ कर दोगी न। ”
“क्या कहा तुमने ….कौन सी माफी बेटा!”
माँ ,मैं तुम्हें और बाबुजी को अलग -अलग रखने का गुनाहगार हूँ। मै भाई में बड़ा हूँ लेकिन बड़े होने का फर्ज मैंने नहीं निभाया । आप दोनों ने हमें पाल पोस कर बड़ा किया,पढ़ाया लिखाया और इस काबिल बनाया कि हम अपने पैरों पर खड़े हैं।
माँ बोली-“हाँ बेटा तो इसमें नया क्या है … सभी माँ बाप अपने बच्चों को का भविष्य ऐसे ही बनाते हैं… हमने कोई नया काम किया है क्या !”
अजय माँ की हाथों को अपने हाथ में लेकर बोला-” माँ यही तो तुम्हारी महानता है तुमने वह सब कुछ किया जो एक माता- पिता करते हैं लेकिन हमने…..!”
अजय आगे कुछ कहता इससे पहले ही कमरे में सुधा आ गई। सुधा को देखते ही अजय चुप हो गया ।
सुधा ने आजतक कभी माँ -बेटे का ऐसा वात्सल्य नहीं देखा था। वह जब से ससुराल आई थी तब से अजय को हर बात के लिए चाहे वह उसके लाभ के लिए ही क्यूँ न हो। माँ बाबुजी के साथ झीक -झीक करते देखा था। मध्यम वर्ग के लोगों के जीवन में आर्थिक कठिनाई तो रहती ही है । आज के आधुनिक परिवेश में चाहे जितनी भी आमदनी क्यों नहीं हो ,खर्चे हमेशा दोगुने होते हैं। अजय का भी कुछ ऐसा ही हाल था वह हमेशा ही अपने चादर से ज्यादा पांव फैलाये रहता और उससे जब परेशानी आती तो उसके लिए भी जिम्मेदार पत्नी या माँ- बाबुजी को ही ठहराता था। उसके इस व्यवहार के कारण पूरे घर -परिवार में तंगी के साथ- साथ कलह छाई रहती थी। और यही वजह था कि दोनों भाई ने मिलकर माँ बाबुजी को आपस में बांट लिया। अजय के ऊपर उसका ‘अहम’ इतना हावी था कि बाबुजी के ही पैसों से खरीदे मकान में अजय मालिक की तरह और माँ बाबुजी पड़ोसी की तरह रहने के लिए मजबूर थे ।
खैर ‘जो भी हो सुबह का भूला शाम को घर आ जाये तो उसे कभी भूला नहीं कहते हैं। ”
सुधा ने धीरे से पलटकर कमरे से बाहर निकलना चाहा तभी माँ ने पुकारा-“बहु….. बेटा इधर आना तो जरा…”
“जी माँ …..आपने बुलाया मुझे..
“हाँ बेटा इधर आ और मेरे पास बैठ …तेरे बिना मेरा परिवार पूरा कैसे होगा ।”
इतना कहकर माँ ने एक हाथ से अजय को और दूसरे हाथ से सुधा को समेट कर अपने कलेजे से लगा लिया। सुधा ने प्यार से माँ को झिड़की लगाई-” माँ यह गलत बात है मैंने यह दूध का ग्लास बाबुजी के लिए दिया था न…….और आपने पुत्र प्रेम में…..!
अजय ठहाका लगा कर हँस पड़ा और बोला माँ कुछ पाप मेरे भी तो कटने दो! लाओ मैं दूध का ग्लास बाबुजी को देकर आता हूँ ।
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ .अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर ,बिहार
Ser
Very very nice n heart touching story
बहुत अच्छी रचना, अंत बहुत ही सुन्दर
बहुत सुंदर और प्रेरक रचना की प्रस्तुति के लिए अतिशय साधुवाद और अनेकानेक मंगल कामनाएं !!!
Bahut hi badiya. Aisa rista ki jiski koi misal nahi.Bahut hi kam parivaro me milta sas sasur aur bahu ka aisa RISTA jo aapne apni rachna me bataya 👍
Very touching end bahut hi acha lga sab bahut aisi hi ho jaye to kya baat hai
Beautiful so nice bhu asi ho to kya baat