——रूचि और शानू, दोनों भाई बहनों में सिर्फ दो वर्ष का अंतर था । दोनों एक ही परिवेश में पले बढ़े लेकिन जैसे जैसे उम्र बढ़ने लगा स्वभाव में जमीन-आसमान का फर्क दिखाने लगा ।
ये हमारे भारतवर्ष का प्राकृतिक नियम है कि लड़कियां जैसे जैसे बड़ी होती जाती हैं उनका घर से बाहर का दायरा सिमटते जाता है और वे अपने पाठ्यक्रम और घरेलू कार्यों में दक्ष होती चलीं जाती हैं।
वहीं लड़के उम्र बढ़ने के साथ साथ नुक्कड़ चौपाटी में ज्यादा से ज्यादा समय व्यतीत करने लग जाते हैं।
इसी तरह छोटी बहन रूचि कुशाग्र बुद्धि के साथ पढ लिख कर चार्टर एकाउंटेंट की सर्विस अर्जित कर ली और शानू तीन वर्ष से हायर सेकेंडरी स्कूल से ही उत्तीर्ण नहीं हो पा रहा था ।
रूचि और शानू के पापाजी ने अपने दोनों ही बच्चों के संस्कारों में कमी नहीं किए थे
पढाई में कमजोर था शानू, लेकिन अपने पापाजी के कड़े अनुशासन क चलते कोई भी बुरी लत के चक्कर में नहीं आ पाया था । सिगरेट वगैरह की शुरुआत से ही ऐसी पिटाई पड़ी कि नुक्कड़ चौपाटी का शौक भी जाता रहा ।
वहीं रूचि अब सयानी हो गई थी अब वह अपने मम्मी -पापा के साथ बैठकर घर के गंभीर विषयों पर विचार विमर्श किया करती थी ।
अब रूचि के मम्मी पापा अजय और सरला अपनी जिंदगी के अंतिम मुकाम पर थे यानि कि बेटी के हाथ पीले कर देना और और बेरोजगार बेटे के लिए कुछ ब्यवसाय की शुरुआत करना ।
इसी चिंता में दोनों चिंतित रहा करते थे । एक दिन शाम को घर के सामने आँगन में दोनों चिंतित बैठे हुए थे तभी रूचि ऑफिस से आई , लड़कियां माँ-बाप के प्रति भावुक और संवेदनशील होती हैं, रूचि भांप गई वो उनके पास जाकर बैठ गई और बड़े ही मधुर लहजे में कहा-क्या हुआ मम्मी पापा! इतने चिंतित क्यों लग रहे हैं, इतना सुनते ही अजय का गला भर आया जैसे चिंता से लबालब कटोरे में समाधान का सिक्का गिर गया और आँखें छलक गई। स्नेहसिक्त शब्दों में कहा बेटी तू तो अपने पैरों पर खड़ी हो गयी है चिंता तेरे भैया के किसी रोजगार की है फिर तुम्हे भी तो हाथ पीले कर विदा करनी है बिटिया ! ऐसा कहते हुए उन्होंने रूचि को अपने अंक मे भर लिए। रूचि अपने पापाजी के बाहों से अलग होते बोली इसमें इतना ज्यादा गंभीर होने की क्या जरूरत है पापाजी! हम दोनों के एकाउंट में जितने पैसे हैं उससे क्यों न एक रैस्टोरेंट खोल दिया जाय उससे जितने भी प्रॉफिट होंगे वो भैया के लिए पर्याप्त होंगे पापाजी आप भी न ….
नहीं बेटी मै तेरे सेलरी के पैसे का इस तरह उपयोग नहीं कर सकता। क्यों पापाजी!!! आखिर क्यों??? क्या मैं आपकी संतान नहीं? क्या मुझ पर आपका हक नहीं? क्या मै वाकई पराई हू ? इस तरह के प्रश्नों की बौछार कर दी रूचि ने तब अजय ने सीना चौड़ा करके कहा- नहीं बेटी तू तोमेरा स्वाभिमान है । और अजय और सरला ने सहमति देकर चिंता मुक्त हुए समय आने पर सुयोग्य घर-वर के साथ उसको भी विदा कर दिया।
।।इति।।
-गोमती सिंह
छत्तीसगढ़
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित