जितनी चादर उतने पैर फैलाना – निशा जैन : Moral Stories in Hindi

“आज फिर कुछ नया सामान…

ये रोज़ रोज़ नया सामान… कभी छोटे की जगह बड़ा फ्रीज, कभी बड़ी टीवी तो कभी नया सोफ़ा… सब फ्री में आ रहा है ? या कोई लॉटरी लग गई देवर जी की

इतने पैसे कहां से आए सुधीर ? देवर जी कुछ गलत काम तो नहीं कर रहे?”

आज जब फिर सुधीर के छोटे भाई के यहां नया सामान आया तो भावना बोली

“पता नहीं , लग तो मुझे भी रहा है कि इतने पैसे कहां से आए ? क्या पता कोई बड़ा ऑर्डर मिल गया हो , व्यापार में मुनाफा हो रहा होगा” सुधीर बोला

सुधीर और प्रदीप दोनों पास पास ही घर में रहते थे। सुधीर के साथ ही मां रहती थी।

 कहने को दोनों सगे भाई थे पर स्वभाव एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत था। जहां सुधीर एक संतोषी, स्वाभिमानी और शांत स्वभाव का था वहीं प्रदीप ज्यादा की लालसा रखने वाला, अपना काम निकालने वाला और थोड़ा उग्र स्वभाव का था। बचपन से ही उसके शौक बड़े थे। पर घर की माली हालत ज्यादा अच्छी नहीं थी तो मन मारकर रहता था

और कभी खुश नहीं रहता बस बोलता जब मैं बड़ा हो जाऊंगा तो खूब पैसे कमाऊंगा और अपने सारे शौक पूरे करूंगा भैया की तरह नहीं… जो , कुछ भी मिल जाए उसी में खुश रहते हैं । तब उसकी मां बोलती” बेटा जितनी चादर उतने पैर फैलाने चाहिए तो व्यक्ति हमेशा खुश रहेगा

अन्यथा कभी लालसा खत्म ही नहीं होगी। अभी तुम छोटे हो , मन लगाकर पढ़ाई करो और अपने पैरों पर खड़े हो जाओ । एक अच्छी नौकरी मिल जाएगी तो जिंदगी संवर जाएगी तुम्हारी और फिर शौक भी पूरे कर लेना ।”

 पढ़ाई में ज्यादा होशियार नहीं था पर फिर भी उसके शौक (घूमना , फिरना, ब्रांडेड कपड़े पहनना, मनचाहा खर्चा करना, कार, बंगला और पता नहीं क्या क्या) उसे हमेशा पैरों पर खड़ा होने के लिए उकसाते थे । जैसे तैसे करके वो बैंक में क्लर्क बन ही गया।

पर उसका बड़ा भाई ऑफिसर बन गया था । इसलिए थोड़ा दुखी था पर पढ़ने में जैसा वो था उसके हिसाब से ये नौकरी ही बहुत बड़ी थी उसके लिए।

आठ महीने नौकरी की पर मन नहीं लगा । असल में उसको किसी के अधीन रहना हमेशा से ही पसंद नहीं था और जब बॉस की डांट फटकार लगती तो उसे नौकरी छोड़ने का मन करता। पर घर वालों ने समझाया “वक्त से डरो बेटा ” इतना अच्छा समय बार बार नहीं आता कि कम उम्र में सरकारी नौकरी और वो भी बैंक में। वक्त का क्या भरोसा कब क्या हो जाए , सरकारी नौकरी में कम से कम जिंदगी भर की रोटी का जुगाड तो बना रहेगा और फिर अच्छी लड़की मिल जाएगी।

यही सोच कर वो मन बदल देता । एक साल में उसकी एक अच्छी लड़की से शादी हो गई और अगले साल दो जुड़वां बच्चे।

घर की जिम्मेदारियां बढ़ी और खर्चे भी पर आय का साधन सीमित था । उसे अपने शौक भी पूरे करने थे, रईसों के जैसे जिंदगी बसर करनी थी पर छोटी सरकारी नौकरी में बड़े ख्वाब पूरा होना नामुमकिन था।

उसने पार्टनरशिप में दोस्त के साथ प्रॉपर्टी डीलिंग का काम शुरू कर दिया 

इसके अलावा जो भी लोन उसे नौकरी में मिल रहे थे सब लेकर दो साल में घर , गाड़ी, कार सब खरीद ली। अब आधी तनख्वाह किश्त भरने में जाती और आधी घर खर्च में पर उसे व्यापार में मुनाफा हो रहा तो दिक्कत नहीं आ रही थी।

अब उसका नौकरी में मन नहीं लगता क्योंकि इससे ज्यादा तो वो बिजनेस में कमा रहा था ऊपर से किसी की सुननी भी नहीं पड़ती।

बहुत सोच विचार के बाद उसने नौकरी छोड़ दी। अब आय तो कम हो गई थी पर व्यय ज्यादा था और ऊपर से प्रदीप को अच्छा खाना , पहनना , घूमना , फिरना, मौज मस्ती करना पसंद था। उसमें उसने कभी कटौती नहीं की।

पत्नी कभी कुछ पूछती तो बोलता तुम मस्त रहो, खाओ पीओ ऐश करो

पैसा कहां से आ रहा है उसकी चिंता मत करो। पत्नी को भी पूरी सुविधाएं मिल रही थी, प्यार करने वाला पति था और क्या चाहिए था।

एक दो बार व्यापार में घाटा हुआ तो जैसे तैसे करके भरपाई कर दी। और नौकरी में मिले पैसों से लोन चुका दिया था। अब कोई बचत नहीं थी उसके पास

मुंह का मीठा तो वो बचपन से था ही, अपना उल्लू सीधा करना अच्छे से जानता था । लोगों से उधार मांगने लगा । इधर से उधार लेता उधर चुकाता, उधर से इधर 

पर ये भूल गया कि लिया हुआ उधार चुकाना भी पड़ता है।जब भी कोई पैसे वापस मांगता कुछ समय बाद देने का वादा करता फिर भूल जाता। लेकिन जिंदगी जीने का ढंग नहीं बदला। स्टेटस बनाने और दिखावे के चक्कर में शानो शौकत में कमी नहीं आने दी

बल्कि छोटे घर की जगह बड़ा घर, बड़ी कार, और नया नया सामान लाने लगा। लोन लेकर जिंदगी जीने लगा।

दिन निकल रहे थे और साथ में लिया हुआ कर्ज भी बढ़ने लगा

(ब्याज तो चुकाना ही था हर महीने)

आज जब सुधीर ने उससे पूछा ” प्रदीप ये घर में सब सामान है फिर भी नया क्यों लाए जा रहे हो? इच्छाएं कभी खत्म नहीं होती मेरे भाई। इतना पैसा कहां से आ रहा है? तू कुछ गलत तो नहीं कर रहा न?”

ये सुनकर वो थोड़ा झेंपा फिर सम्हलते हुए बोला “नहीं भैया बस कुछ पुराना हो रहा था तो नया ले लिया । अब नए घर में सब नया हो तो ही मजा है न.

आपकी तरह नहीं कि शादी का सामान अभी तक जी से लगाए हुए हो । अब आपकों शौक नहीं तो मैं क्या करूं मुझे तो अच्छे से रहने का , जिंदगी जिंदादिली से जीने का शौक है”( पर किसी को ये पता नहीं था कि ये जिंदगी उधार के पैसों की देन है)

उसके ऐसे बोलने से सुधीर थोड़ा उदास हुआ और इतना ही बोला ” मुझे अच्छा लगता है तुम्हे आगे बढ़ते हुए देखना बस मेरा फ़र्ज़ है तुम्हे समझाना कि वक्त सदा एक सा नहीं रहता

इसलिए कुछ भविष्य के लिए भी जोड़ना सीखो। मुझे भी अच्छा लगता है घर में नया सामान लाऊं, घूमने फिरने जाऊं पर उससे जरूरी है जितनी चादर उतने पैर फैलाना चाहिए जैसा मां कहती थी और फिर बच्चे बड़े हो रहे हैं उनकी पढ़ाई लिखाई का भी तो खर्चा उठाना है।

पर मुझे लग रहा है तेरी चादर छोटी और पैर कुछ बड़े हो गए शायद… बाकी तू समझदार है।

वक्त से डर कर रहने में भला है न जाने कब कौनसा रंग दिखा दे..ये तो अच्छे से जानता है” और कह कर चला गया

सुधीर तो चला गया पर प्रदीप को सोचने पर मजबूर कर गया क्या सच में मेरा जीवन इतना सरल है जैसा मै समझ रहा हूं?

अब वो हिसाब लगाने लगा तो समझा अपने शौक मौज करने के चक्कर में, ख्वाहिश पूरी करने के चक्कर में कितना कर्ज़ में डूब चुका है। कैसे चुकाएगा इतना कर्ज़? ऊपर से घर का लोन, गाड़ी का लोन सोचकर घबरा गया एकबारगी तो

उस दिन के बाद से कुछ गंभीर हो गया वो, कर्ज़ चुकाने की जुगत में लग गया।

लेनदार भी अब आने लगे थे अपना पैसा मांगने, कुछ तो धमकी भी दे रहे थे।

उसने कभी ये बात पत्नी बच्चों को बताई नहीं थी तो वो सब इससे अंजान अपनी ही मस्ती में मस्त थे और वो अकेला कश्मकश में फंसा हुआ था।

कभी सोचता मकान बेच दूं पर फिर सोचता लोग क्या सोचेंगे मेरे बारे में ,नहीं ..नहीं.. मुश्किल से इतना स्टेटस बनाकर रखा है , दोस्तों के बीच अपना दबदबा है सब खाक में मिल जाएगा।

किसी और को इसके बारे में बताया तो सब मुझे ही दोष देंगे।

बहुत सोचने के बाद उसके मन में आत्महत्या का विचार आने लगा। अचानक मेरी मौत हो जाए तो सब सुलझ सकता है। पत्नी बच्चे भी अपनी जिंदगी अच्छे से जी पाएंगे।

वो रात में बड़े भाई के घर मां से मिलने गया और बोला

“मां अचानक मुझे कुछ हो जाए तो तुम और भैया मेरे बच्चों को सम्हाल लोगी न?”

“अरे पगले ये क्या अनाप शनाप बोल रहा है? तुझे कुछ क्यों होने लगा भला।

और मां अपने बच्चों का हमेशा ख्याल रखती है तू चिंता मत कर तुझे कुछ नहीं होने दूंगी मैं। बस तू अब ये मौज शौक करना छोड़, बच्चा नहीं रहा तू, दो बच्चों का बाप बन गया है। उनके बारे में भी सोच।”

“हां उनके बारे में ही सोच कर तो सब करता हूं। उनको किसी तरह की कोई परेशानी नहीं होने दूंगा मैं मेरे जीते जी “कहकर मां की गोद में सिर रख दिया

मां ने अपना स्नेह उस पर उड़ेल दिया।

अगले दिन..

सुबह जब प्रदीप कमरे में नहीं मिला तो उसे ढूंढा गया , काफी देर बाद एक स्टोर रूम में वो पड़ा हुआ मिला और मुंह से झाग आ रहे थे। सबके पैरों तले जमीन खिसक गई । आनन फानन में हॉस्पिटल ले जाया गया तो पता चला उसने जहर खा लिया था और बचने की उम्मीद बहुत कम थी। डॉक्टर ने पूरे दो दिन भरसक प्रयास किए पर उसे बचाया नहीं जा सका। उसने आत्महत्या क्यों की किसी को नहीं पता चला। सब लोग अपनी अपनी कहानियां बना रहे थे।

वो तो चला गया पर पीछे रोते बिलखते बीबी बच्चों को छोड़ गया। 

मां भी कल रात को याद करके पछता रही थी कि शायद उसका बेटा उसे कुछ कहने आया था पर वो समझ नहीं सकी

भाई भी रोते हुए यही सोच रहा था कि काश उसे थोड़ा और समझा बुझा कर उसके मन की बात पता लगा ली होती तो वो आज शायद वक्त से ऐसे हार नहीं मानता।

मृत्यु के महीने दो महीने बाद उसके सारे राज सामने आने लगे कि कैसे उसने कर्जा ले रखा था और उसे चुका नहीं पा रहा था शायद इसलिए मौत को गले लगाना उसे आसान लगा ।

दोस्तों आपको क्या लगता है प्रदीप का ये कदम सही था?

क्या वो घर वालों से एक बार इसके बारे में बात कर लेता तो शायद उसकी समस्या सुलझ सकती थी ?

क्या उसे वक्त से डरना चाहिए था या इस तरह वक्त से हार मानकर मर जाना उचित था?

उसका इस तरह जिंदगी जीना सही था?

कहानी को कहानी की तरह पढ़े अन्यथा न ले और अपने सुझाव और विचारों से अवगत कराना नहीं भूलें 

धन्यवाद

निशा जैन

# वक्त से डरो

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