समय का फेर‌ – उमा महाजन : Moral Stories in Hindi

  ‘हैलो ! नमस्ते आंटी जी ! कैसी हैं आप ? 

‘हम सब तो ठीक हैं बेटा ! आप अपनी सुनाओ ! काम ठीक चल रहा है न आपका ? कुछ और ग्राहक बढ़े या नहीं ?’

   ‘हां जी आंटी ! काम तो बढ़ा, लेकिन…खैर छोड़िए ! आपका सफर कैसा रहा ? यहां तो खूब बारिशें होती रही हैं।’

    दरअसल लगभग एक सप्ताह घर से बाहर व्यतीत करके हम सुबह ही घर वापिस लौटे थे। आस-पड़ोस का हाल-चाल जानने की मंशा से मैंने अपने निकटतम पड़ोसन को फोन मिलाया था । पड़ोसन संभवतः मोबाइल के निकट नहीं थी। अतः मेरा नंबर देखकर उसकी बहू ने फोन उठा लिया था।

    ‌इस पड़ोसन बहू का हंसमुख और मिलनसार स्वभाव तथा मधुर आवाज सदैव ही मेरे कानो में मिसरी घोल दिया करती है, फिर स्वर चाहे आमने-सामने के हों अथवा फोन के, किंतु आज बारिश शब्द की बजाय उसके ‘लेकिन’ शब्द के रुआंसेपन ने मुझे भिगो दिया।  

  मैंने उसे कुरेदना चाहा, ‘क्या बात बेटा ! आज कुछ परेशान सी लगीं मुझे ?’

  और इस बार मेरे वात्सल्यपूर्ण शब्द उसे भिगो गये, ‘हां,आंटी जी! दरअसल आपकी अनुपस्थिति में ‘ये’ (पति) एक बाइक से टकराकर दुर्घटना ग्रस्त हो गये थे। दोनों टांगें और रीढ़ की हड्डी बुरी तरह घायल हो गयी हैं। दोनों टांगों की सर्जरी हुई है, दोनों में प्लेट्स डली हैं और अब डाक्टर जांघ के आप्रेशन की भी बात कर रहे हैं।’ कहते-कहते वह सचमुच रो पड़ी।

  मैं सन्न रह गई। सिर्फ एक सप्ताह में इतना सब कुछ घट गया ! हां, वैसे तो एक क्षण का भी भरोसा नहीं है।

  फिर,उसे तसल्ली देने के लिए मैंने सिर्फ इतना ही कहा था कि ईश्वर पर भरोसा रखो बेटा ! मैं घर आऊंगी आप लोगों से मिलने। मैं जानती हूं कि तुम बहुत धैर्यवान हो कि वह पुनः फट पड़ी, ‘लगातार बिस्तर पर लेटे रहने से बिल्कुल अपाहिज से हो गये हैं। न स्वयं हिलकर करवट ले पाते हैं, न स्वयं खा पाते हैं, न अपने आप को संभाल पाते हैं और बार-बार अपनी असहाय अवस्था पर जोर-जोर से रोते-चिल्लाते हैं।’

  तभी मुझे ‘हाय ! मैं मर ही क्यों न गया.. उफ्फ ! दर्द से जान निकल रही है मेरी.. अरे ! तुम कहां चली गईं मुझे अकेला छोड़कर..’ जैसी चिल्लाहट सुनाई दी, तो मैंने उसे यह कहते हुए फोन बंद कर दिया कि जाओ बेटा ! उसे तुम्हारी जरूरत है ।

   किंतु एकाएक दुर्घटना से पूर्व का उनके घर का सारा वातावरण मेरे सामने साकार आ खड़ा हुआ। आए दिन माता-पिता के झर-झर बहते आंसू, नशे में धुत्त इस युवक का इस मीठी मिसरी की डली बहू के साथ मारपीट और उसका घुट-घुट कर जीना, समय-असमय‌ शराब में झूमते अपने पापा का घर में आकर कलह-क्लेश करने से दुबके-सहमे दोनों बच्चे … उफ्फ !

अपने ही घर में कितना ‘आतंकी’ माहौल बना रखा था इस हृष्ट-पुष्ट ऊंचे जवान ने ? आए दिन देर रात तक कांच टूटने, जोर-जोर से दरवाजे भड़भड़ाने, गाली-गलौज के ऊंचे-ऊंचे स्वर सुनाई देते रहते थे। 

    अति निकट खिड़की से आतीं बच्चों और सास-ससुर की खातिर इस अद्भुत धैर्यवान कोमलांगी की सिसकियां मुझे हृदय तक भेद जातीं और फिर इस दुर्व्यसनी के निद्रा में लीन होते ही धीरे-धीरे घर में सहमी ‘निस्तब्धता’ जा जाती।

जैसे-जैसे यह नशे में डूबता गया, माता-पिता कर्जदार होते गए। तब अच्छे खानदान से आई इस बहू ने परिवार की खातिर अपनी ‘सिलाई’ की प्रतिभा का लाभ उठाते हुए घर को आर्थिक संबल‌ देना आरंभ कर दिया। इस तरह अप्रत्यक्ष रूप से इस साहसी बेटी को आत्मनिर्भर होता देखकर मैं सचमुच बहुत प्रसन्न हुई थी।

    मां से आमना-सामना होते ही वे खून के आंसू रो पड़तीं, ‘दो बेटियों के पश्चात् यह हमें बड़ी-बड़ी मन्नतें मांगकर नसीब हुआ था। इसीलिए हमने इसका नाम ‘मंगतराम’ रखा था। दोनों बेटियां अपनी ससुराल में सुखी हैं, किंतु अब मैं सोचती हूं कि काश,हमने बेटी-बेटे के भेद को भुला केवल स्वस्थ एवं सुबुद्धि संतान की ही मन्नत मांगी होती!’

   असहाय पिता ने तीन माह के लिए ‘नशामुक्ति’ गृह भिजवा कर भी इसका व्यसन छुड़वाने का प्रयास किया, किंतु वहां से बाहर निकलते ही फिर वही ‘ढाक के तीन पात’। कभी मिलने पर वे भी रो पड़ते कि इसने हमारा बुढ़ापा बिगाड़ दिया।

  हम आस-पड़ोस वालों ने भी छोटे-छोटे बच्चों, पत्नी और बुजुर्ग माता-पिता तथा इसके अपने भविष्य का हवाला देकर समझाने का खूब प्रयास किया, किंतु कोई समझे तो तब न जब वह समझना चाहें। खैर…

   आज नियति के खेल पर मैं हैरान-परेशान हो उठी थी।मन का एक कोना जहां इसके शीघ्र स्वास्थ्य- लाभ की कामना कर रहा था तो दूसरे कोने से आवाज आ रही थी कि’वक्त से डरो’ की सीख हमें यूं ही नहीं दी जाती है । वक्त वाकई में बहुत बलवान है,उस पर तुर्रा यह कि इसकी लाठी में आवाज भी नहीं होती है।

उमा महाजन 

कपूरथला 

पंजाब।

#वक्त से डरो

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