आज मजदूरों की पगार का दिन था। लगभग साल भर हो गया, शहर में इस होटल को बनते । अनगिनत मजदूर , मिस्तरी, बिजली वाले , पंलबर मतलब कि हर तरह के लोग यहां काम कर रहे है। माना कि इतनी सुंदर, गगन चुंबी, आलीशान अट्टालिकाएं बड़े बड़े ईजिनिंयर , आर्कीटेक्ट, सलाहाकार
और न जाने कितनों के सहयोग से बनती है, लेकिन देखा जाए तो पसीना तो मजदूरों का ही बहता है।काम भले ही हजारों लोग करते है। मशीनों को चलाने के लिए भी तो हाथ चाहिए।
बहुत से काम करने के लिए तो जान जोखिम में भी डालनी पड़ती है। अब पता नहीं इतने बड़े होटल का ठेका कितनों के पास होगा और काम किस प्रकार बंटे होगें। लेकिन हम बात करेगें उस हिस्से का जहां का हिसाब किताब मुंशी तुलसी राम देखते है। देखने में ही घाघ किस्म के लगते हैं।
मजदूरी करने वालों में कुछ तो ऐसे होते है जो दिहाड़ी पर काम करते है, काम मिल गया तो ठीक , नहीं तो कई बार नहीं भी मिलता। आमतौर पर शहरों में लेबर चौक पर ऐसे मजदूर मिलते है। कुछ ऐसे भी होते है जो किसी ठेकेदार ने पक्के तौर पर रखे होते है, उन्हें एक तरह से तनख्वाह मिलती है, भले कुछ कम पैसे मिले।
तीसरी तरह के जो कुछ नए और जरूरतमंद होते है, लेकिन उन्हें ज्यादा काम नहीं मिलता। तुलसी राम जैसे ऐसे लोगों को लेते है, और उनसे कमिशन खाते हैं।जैसे कि दिहाड़ी पाच सौ है तो वह उससे हर रोज पचास रूपए लेते है काम दिलवाने के।
बात यहां तक भी नहीं, जब ये हर हफ्ते तनख्वाह बांटते है, तब भी उनहें डरा धमका कर कुछ पैसे काट लेते है, और अगर किसी को मुसीबत के समय कुछ एंडवास लेना पड़ जाए तो सौ रूपए में से दस पहले काट लेगें और उपर से इसी प्रकार से हर महीने ब्याज।
क्योंकि काम लंबा चलना था तो मजदूरों के रहने का इंतजामं भी वहीं पास में ही पड़ी खाली जमीन पर या फिर बिल्डिंग के अंदर ही निर्माण हो रहे हिस्से में किया हुआ था। उन्की पत्नियां भी वहीं काम करती, कुछ मजदूरी करती और कुछ आसपास घरों में भी काम करती।पता नहीं उनके बच्चे किसी स्कूल में पढ़ते भी होंगे या नहीं।
पुराने जमाने वाली साहूकारी है, बस नाम बदल गया। तुलसीराम के पास काम करने वाले न जाने कितने मजदूर इस प्रकार हर रोज इसी प्रकार शोषण का शिकार होते और चाहते हुए भी कुछ कर नहीं पाते।
कईयों का मन हुआ कि किसी उपर वाले से मिलें पर पता ही नहीं बेचारे लगभग अनपढ़ या बहुत कम पढ़े लोगों को। बस बद्दुआ ही देते रहते। किसी ने कुछ कहने का साहस किया तो उसे वहां से बहाना बनाकर निकाल दिया गया।
लेकिन कहते है न कि गरीब की बद्दुआ और वक्त की मार से हमेशा डरना चाहिए। “ वक्त की हर शै गुलाम, वक्त का हर शै पे राज”।
आज जब पगार बांटने का समय आया तो तुलसीराम की जगह कोई और था। आज पहली बार सब मजदूरों को पूरे पैसे मिले, सबके चेहरे पर खुशी की लहर थी। लेकिन सबके मन में एक ही सवाल था कि तुलसी राम कहां गया। उसके साथ रघुनाथ नामक बदां भी हमेशा होता था, वो भी नहीं आ रहा था।
कुछ मजदूरों ने तुलसीराम से कुछ पैसे एडवांस ले रखे थे, दो से चार पांच हजार रहे होगें एक एक के पास, लेकिन ब्याज के चक्कर में ऐसे उलझे हुए थे कि वो ही नहीं उतर रहे थे। तीन चार हफ्ते से कोई ब्याज मांगने ही नहीं आया।
वो सब भी चुप रहे,और करते भी क्या, उनके लिए तो अच्छा ही था कि वो नहीं आ रहा, लेकिन मन में जरूर था कि आखिर वो गया कहां, कहीं मर खप तो नहीं गया।
अब जो नया मुंशी आया उसका नाम रोहित था और कम उम्र का रहा होगा। अब न किसी को कमीशन देना पड़ता और न ही पैसे काट के मिलते। रोहित बाबू तो सब मजदूरों का ख्याल रखते और किसी को एंडवास चाहिए होता तो नियमानुसार मिल जाता। तीन चार पढ़े लिखे मजदूर तो रोहित के
काफी करीब हो गए और रोहित भी शायद यहां इस शहर में नया आया था तो बातचीत वगैरह होती रहती। धीरे धीरे तुलसीराम की चालाकी और बेईमानी की बातें रोहित तक पहुंची । तुलसीराम के बारे में रोहित भी कुछ नहीं जानता था लेकिन उसने खोज खबर लेने की सोची।
खोजबीन करने पर पता चला कि तुलसीराम जिसकी उम्र अभी पचास साल थी, अचानक ही हार्टअटैक आया और बहुत बड़ी सर्जरी हुई और अभी उसकी हालत ठीक नहीं।सब मजदूरों में यह बात फैल गई। भले ही किसी ने सामने से न कहा हो, लेकिन मन में तो था ही कि वक्त की मार से डरना चाहिए।
पाठकों हम मानें या न मानें लेकिन अच्छे बुरे कर्मों का लेखा जोखा तो इक दिन होता ही है। स्वर्ग नर्क इसी धरती पर है। जैसे भगवान की लाठी में आवाज नहीं वैसे वक्त से भी डर कर रहना चाहिए और अपनी और सो सद्कर्म करते रहना चाहिए।आज मेरी तो कल तेरी, बारी तो सबकी आनी है।
विमला गुगलानी
चंडीगढ़
वाक्य- वक्त से डरो