सूरज अपनी पहली किरणें शहर की ऊँची इमारतों पर फैला रहा था। सब कुछ रोज़ की तरह ही था ।भागती गाड़ियाँ, जल्दी में लोग, और समय से आगे निकलने की कोशिश में उलझे चेहरे। लेकिन इस सुबह की खास बात थी राघव का चेहरा। शांत, गम्भीर और कुछ सोचता हुआ।
राघव, एक सफल व्यवसायी, जिसने कॉलेज के दिनों से ही ठान लिया था कि वह जिंदगी में बड़ा बनेगा। वह बना भी। आलीशान बंगला, चमचमाती गाड़ी, विदेशी यात्राएं, और वो सब कुछ जो एक मध्यमवर्गीय परिवार का बेटा सपने में सोचता है। लेकिन इस सब के बीच एक चीज़ थी जो वह खोता चला गया वह था वक़्त।
पापा, देखो मैंने चित्र बनाया उसकी बेटी नैना ने नन्हें हाथों में तस्वीर लेकर जब भी पुकारा, राघव ने कहा—बाद में बेटा अभी मीटिंग है।
राघव, माँ को डॉक्टर को दिखाना है। पत्नी स्मिता ने कहा तो वह बोला—मैं बिज़ी हूँ तुम देख लो।
भाई, एक बार गाँव आ जा, बाबूजी बहुत बीमार हैं। छोटे भाई का फोन आया, लेकिन राघव ने टाल दिया—बिजनेस ट्रिप पर हूँ। अगले महीने आता हूँ।
और फिर एक दिन वो फोन आया जिसे कोई सुनना नहीं चाहता बाबूजी नहीं रहे।
राघव के पैर जैसे ज़मीन से उखड़ गए। वह भागा गाँव की ओर। बाबूजी का चेहरा आखिरी बार देखने की इच्छा अधूरी रह गई। श्मशान की आग में जलती लकड़ियों के बीच उसका आत्मग्लानि से भरा मन रो रहा था—”काश, थोड़ा वक्त निकाल लिया होता…”
वापस आकर राघव कुछ बदल गया था। अब वह रोज़ नैना की ड्राइंग देखता, माँ को डॉक्टर के पास खुद ले जाता, और पत्नी के साथ चाय की चुस्कियों में मुस्कराता।
एक दिन उसकी बेटी ने पूछा, पापा, आप इतना बिज़ी होकर अब मेरे साथ खेलने कैसे आ जाते हो?पहले तो आप नही खेलते थे मेरे साथ?
राघव ने मुस्कराकर कहा-क्योंकि मैंने वक़्त से लड़ने की गलती की थी अब मैं उससे डरता हूँ और उसका आदर करता हूँ।
वक़्त किसी के लिए नहीं रुकता। यह अमूल्य है, और यदि इसे समय रहते न पहचाना जाए तो पछतावे के सिवा कुछ नहीं बचता।
जीवन की दौड़ में जीतने से ज्यादा जरूरी है अपनों के साथ वक़्त बिताना। वक़्त न किसी का दोस्त है न दुश्मन, यह बस एक सच्चा आईना है,जो दिखाता है कि आपने उसे कैसे जिया।
इसलिए –
“वक़्त से डरो, क्योंकि वही सबसे बड़ा शिक्षक और सबसे निष्पक्ष न्यायाधीश है।”
स्वरचित-प्रतिमा पाठक
दिल्ली