नन्हीं रुचिका तूलिका लेकर कैनवास पर मनचाहे रंग भर भर कर चित्रकारी का प्रयास कर रही थी पर बार-बार कुछ ना कुछ त्रुटि रह जाती थी। उसने चिढ़ कर तूलिका फेंक दी। उसके मुंह पर जहां-तहां लाल, पीले, नीले रंग लगे हुए थे।उसका नन्हा सा मुंह गुस्से से लाल हो गया था। बरामदे में बैठे अखबार पढ़ते दादा जी सब कुछ देख रहे थे। उसका गुस्सा देखकर उन्हें बरबस हंसी आ गई। रुचिका रुआंसी हो गई थी। दादाजी ने अखबार को एक तरफ रखा और उसके पास पहुंचे और उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा
“- अरे कोई बात नहीं है, एक बार अच्छा नहीं बना तो। ….अगली बार जरूर होगा । तुम कोशिश करती रहो । मेरा विश्वास है कि एक दिन तुम बहुत बड़ी कलाकार बनोगी। और यह जो मैं बरामदे में बैठकर अखबार पढ़ता हूं ना, इसकी तस्वीर बनाओगी। फिर तुम्हारे चित्रों की खूब बड़ी सी प्रदर्शनी लगेगी। इस प्रदर्शनी में तुम मेरी यह वाली तस्वीर भी लगा देना। मेरा ख्वाब तो पूरा करेगी ना मेरी गुड़िया!….. पर यह भी तो सोचने वाली बात है कि मुझ बुड्ढे की तस्वीर पसंद कौन करेगा और खरीदेगा भी कौन??
” और उन्होंने रोने जैसी शक्ल बना ली। रुचिका का सारा गुस्सा कपूर की तरह उड़ गया और वो खिलखिला कर हंस पड़ी। दादाजी ने भी हंसते हुए प्यार से उसे अपने अंक में समेट लिया। दादी तो बचपन में ही गुजर चुकी थी पर अपने दादाजी से रुचिका को बेहद प्यार था। दादा जी का भी समय रुचिका के साथ हंसते बोलते रूठते मनाते बीत जाता था।
फिर रुचिका की चित्रांकन में रुचि को देखते हुए उसका नामांकन फाइन आर्ट्स के कोर्स में करवा दिया गया। अब रुचिका 11वीं कक्षा में पहुंच चुकी थी। उसकी लगन रंग ला रही थी।अब वह पहले से काफी बेहतर पेंटिंग करने लगी थी। उस दिन शिक्षक ने भी उसके चित्रांकन की भूरि भूरि प्रशंसा की थी। रुचिका फूली नहीं समा रही थी। उसका मन कर रहा था कि वह दौड़कर घर पहुंच जाएं और अपने प्यारे दादाजी से सारी बातें जल्दी से जल्दी बता दे और अपनी यह नई पेंटिंग उन्हें भी दिखाए।
घर पहुंचने की जल्दबाजी में उसने सड़क पार करने की कोशिश की। तभी सामने से तेजी से आती हुई कार ने उसे ठोकर मार दी। उसने गिरते हुए भी हाथ बढ़ाकर पेंटिंग को बचाने की कोशिश की मगर कार उसके हाथ के ऊपर से निकल गई। रुचिका एक चीख के साथ वहीं बेहोश हो गई। स्थानीय लोगों ने उसे उठाया और अस्पताल में भर्ती कराया। उसके आई कार्ड से पता लेकर उसके घर पर भी खबर पहुंचाई गई । बदहवास से उसके माता पिता और दादा जी भागते हुए अस्पताल पहुंचे,
जहां डॉक्टरों ने उन्हें बताया कि रुचिका का दाहिना हाथ बुरी तरह जख्मी हो चुका है और शीघ्र से शीघ्र ऑपरेशन करना पड़ेगा। रुचिका के माता-पिता और दादाजी की आंखों से अविरल आंसू बहने लगे मगर रुचिका की जान खतरे में थी। पर कोई और चारा भी न था। उन्होंने कांपते हाथों से ऑपरेशन के कागजात पर हस्ताक्षर कर दिए।
दूसरे दिन रुचिका को होश आया तो उसे अपनी मां दूर खड़ी दिखाई दी। उसने हाथ बढ़ाकर मां को बुलाने की कोशिश करनी चाही। पर यह क्या !!!..…….उसका दाहिना हाथ उस दुर्घटना की भेंट चढ़ चुका था। रुचिका वहीं अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी पागलों की तरह चीखने लगी…- “मुझे मेरा हाथ वापस दे दो…. भगवान के लिए कोई मुझे मेरा हाथ वापस दे दो…. मां, इनसे कहो ना कि मुझ में मेरा हाथ वापस दे दें….. अब मैं पेंटिंग्स कैसे बनाऊंगी मां..…..प्लीज प्लीज….”
उसकी चीख पुकार सुनकर दौड़ते भागते सब डॉक्टर्स आए और उसे किसी प्रकार से नींद का इंजेक्शन देकर सुलाया गया। उसके माता-पिता रोते रोते हलकान हो चुके थे।काफी लंबे समय तक रुचिका का इलाज चलता रहा।
रुचिका को अब अस्पताल से छुट्टी मिल गई थी और उसे घर ले आया गया। उसकी यह हालत देखकर सदमे से दादा जी की भी तबीयत अब खराब रहने लगी थी और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया था। रुचिका बहुत गुमसुम सी रहने लगी थी। पर अब धीरे-धीरे उसने विद्यालय जाना शुरू कर दिया। वहां से वापस आते ही वह अपने कमरे में बंद हो जाती। कभी-कभी वह दादाजी के पास बैठने की कोशिश करती थी, पर दादाजी की हालत देखकर उसे और रोना आ जाता था। वह अंदर से टूट सी गई थी कि वह अपने दादाजी का एक छोटा सा ख्वाब भी पूरा नहीं कर पाई। मौत से बदतर हो चुकी है उसकी जिंदगी…
हृदय की पीड़ा ने उसे बुरी तरह से तोड़ दिया था। हाथ के साथ ही मानो उसके सारे सपने उससे भी विलग हो चुके थे। वह अब अपने कमरे तक ही सीमित रहने लगी थी। उसके माता-पिता उसे समझा-बुझाकर हार चुके थे मगर उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। खाती भी बस इतना थी कि वह जीवित रह सके। उसे देख कर उसके माता-पिता का कलेजा मुंह को आ जाता था। उस पर से दादाजी की भी ऐसी हालत थी कि कब उन्हें ऊपरवाला अपने पास बुला ले, इसका भी कुछ ठिकाना ना था।
उस दिन रुचिका अपने कमरे से निकली तो कुछ बेहतर दिखाई दे रही थी। उसने नाश्ता किया फिर दादा जी के पास जाकर बैठ गई। दादाजी ने उदास आंखों से उसकी तरफ देखा तो उसने मुस्कुराकर दादा जी का हाथ चूम लिया। फिर वह एक हाथ से खींचती हुई व्हीलचेयर ले आई और पापा से जिद करने लगी कि दादा जी को वह उसके कमरे में ले चले पहले तो पापा के कुछ समझ में नहीं आया पर उसका जब बार-बार जिद करने लगी तो उन्होंने हथियार डाल दिए।
उन्होंने धीरे-धीरे दादाजी को उठाया और व्हीलचेयर पर बिठा दिया। फिर रुचिका ने अपने माता-पिता को भी इशारा किया कि वह भी उसके साथ उनके कमरे तक चलें। उसके पापा दादाजी की व्हीलचेयर को धकेलते हुए रुचिका के कमरे में पहुंचे। रुचिका के कमरे में पहुंचते ही सबकी आंखें फटी की फटी रह गईं। सामने ही ईजल पर कैनवास लगा था और उस पर उसके दादाजी की अखबार पढ़ती हुई मुस्कुराती हुई तस्वीर लगी थी और नीचे बहुत खूबसूरत अक्षरों में रुचिका का नाम लिखा था। सब हैरान रह गए।
दादाजी की आंखों से आंसू बहने लगे। रुचिका ने मुस्कुराते हुए भरे गले से कहा “- दादा जी, आज मैंने आपका ख्वाब पूरा कर दिया। मुझसे आप की हालत देखी नहीं जाती थी तो मैंने बाएं हाथ से चित्रकारी करने का अभ्यास शुरू किया और करते-करते मैंने कई सारे चित्र बनाए ताकि प्रदर्शनी लगा सकूं और यह आपका चित्र भी बनाया जो आपका बहुत पुराना ख्वाब था। अब हम सब इसकी प्रदर्शनी जरूर लगाएंगे … है ना पापा ??
उसके पापा इतने भावुक हो चले थे कि उनके कंठ से स्वर न फूट पा रहा था। उन्होंने सर हिला कर हां कहा। रुचिका ने आगे बढ़कर पापा को गले लगा लिया, फिर पास खड़ी मां के भी आंसू पोंछकर उससे लिपट गई।
अब पापा ने रूंधे गले से कहा “- हां बेटा, हम तुम्हारे चित्रों की प्रदर्शनी जरूर लगाएंगे….. और फिर यह तस्वीर कौन खरीदेगा पता है??… तुम्हारा पापा….तुम्हारा पापा अपने प्यारे पापा की यह प्यारी सी तस्वीर वापस अपने घर लाएगा ।”
पापा ने घुटनों के बल बैठकर दादाजी की गोद में सर रख दिया और साथ में रुचिका ने भी। दादाजी में मानो एक नई ऊर्जा का संचार हो गया था। उन्होंने कांपते हाथों से दोनों के सर पर अपना हाथ रख दिया। मां भाव विभोर हो खड़ी यह आनंददायक दृश्य देख रही थी। उन्होंने भी नम आंखों के साथ मुस्कुराते हुए कहा “- मैं अभी खीर खिलाकर सबका मुंह मीठा करवाती हूं। मेरी प्यारी बिटिया ने अपने दादाजी का ख्वाब जो पूरा कर दिया है।”
निभा राजीव “निर्वी”
सिंदरी धनबाद झारखंड
स्वरचित और मौलिक रचना