बेजान पड़ा वह पत्थर था – शुभ्रा बैनर्जी : Moral Stories in Hindi

अपनी नौकरी लगने के लगभग एक साल में ही प्रशांत बाबू ने एक घर बनवा लिया था।इसके लिए बैंक से लोन के साथ-साथ बीबी के गहने भी बेचने पड़े उनको।

जिले में घर यही सोचकर बनवाया था उन्होंने,कि सारे रिश्तेदार (पत्नी)पास ही हैं। सुख-दुख में काम आएंगे।विडंबना यह रही कि घर बनने के बाद जिसने किराए से लिया वह घर,अब वहीं रहना चाहता है।हर साल राजीनामा हस्ताक्षर करके फिर वही रहता था उस घर में।

प्रशांत बाबू की नौकरी थी अभी बहुत।बीवी(पारुल) से कहते बात-बात में”रिटायर होकर हम दोनों यहीं रहेंगे।यह घर हमारे पहले सपने की प्रतिमूर्ति हैं।देखो , बीच-बीच में चली जाया करो।अपने घर की नकेल ख़ुद के हाथों में रहनी चाहिए।”

पारुल की सोच भी यही थी,परंतु कहा” बेटियों की बड़े-बड़े शहरों में‌ शादी हुई ।इकलौते बेटे-बहू बैंगलुरू में रहते थे।आजकल के बच्चे इतनी मुसीबतें झेलकर नहीं आना चाहते।हमें‌ बेटे के पास बैंगलुरू ही शिफ्ट हो जाना चाहिए।

इससे बेटियों को आने‌ में सहूलियत होगी।मैं तो‌ कहती हूं,बेच दो घर।चले चलतें हैं बेटे के पास।दो -दो जगह घर गृहस्थी बसाने से बोझ बढ़ेगा,घटेगा नहीं।”हर बार की‌ तरह प्रशांत जी निरुत्तर ही रहे।कभी बहस नहीं करते थे वे,ना बेटे-बहू से ना बेटी -दामादों  से।पर यह घर उनकी कमाई के निवेश का परिणाम उनके बच्चों को ही‌ मिलना था।

रिटायर मैंट के बाद अब उन्होंने अपनी घर‌ खाली करवाने की प्रक्रिया जोर शोर हैऔृसे प्रारंभ की। किराएदार सरकारी स्कूल के हेडमास्टर थे।ऊपर से एस सी।अब जाकर यह भी पता लगा कि वह जमीन भी किसी एस टी की थी। हेडमास्टर साहब ने साफ-साफ बता दिया कि ,जब तक उनका नया घर नहीं बनेगा,ये छोड़ेंगे नहीं।

प्रशांत बाबू ने हार नहीं मानी।अदालत में केस फाइल करवा दिया।कोविड के समय भी ,जब लोग घर से नहीं निकलते हैं,तब भी वे सारे कागजात लेकर पहुंचते किराएदार के पास,और वह देता वही पुराना राग।बेटे ने बैंगलुरू में एक‌‌ फ्लैट ले लिया था।उसकी पत्नी भी पापा को बहुत प्यार करती थी।अब प्रशांत जी बैंगलुरू में कम ही रह पाते।

रायपुर में अपने भाई के यहां रुकते,कभी ससुराल(शहडोल)में रहते।जब भी फोन करो बस एक ही बात पूछते”दीदी मोनी ,यह घर मेरे हांथ में‌ नहीं मिला तो मैं भूत बनकर घूमता रहूंगा यहां।सभी को परेशानी होने लगी थी।

इतनी कड़ी मेहनत और विश्वास के दम पर प्रशांत जी अपने सारे दायित्व से बंधे हुए थे।आखिर रिटायर मेंट का चरण आ गया।विभाग की तरफ से प्रशांत जी को भावभीनी विदाई दी गई।

अब मसला था कहां रहा जाए?बेटे का फ्लैट तो छोटा था।पर और कोई उपाय नहीं था।उन्ही‌ के  पास जाकर रहने लगे।जब जब कोर्ट में पेशी पड़ती,बिचारे दौड़े आते शहडोल।कोविड के समय अपने भाई के पास आकर रुके,ताकि पेशी में पहुंच सके।

उनकी इस भाग-दौड़ में परिवार के साथ रहना नहीं हो पाता था।बेटियां आतीं अपने पति और बच्चों के साथ,तब प्रशांत जी घर की गुत्थी सुलझाने में दौड़ते रहते।हैवी शुगर भी था उनको।मस्त मौला प्रशांत जी,अपने किसी भी पहचान वाले के पास रुक लेते।उन्हें हर हाल में‌ खुश रहना आता था।

केस लगभग दस सालों तक चला।तारीखें पड़तीं रहीं,और प्रशांत जी हाजिर होते रहे। किराएदार ने खोखले दावे किए थे,जो खारिज हो गए थे। अंततः मकान की चाबी प्रशांत जी को दे दी गई।खुशी के मारे भाव विभोर हो रहे थे।बड़ी बेटी ने शायद प्रस्ताव दिया था

कि मुंबई में घर लेते हैं।कम से कम सुख दुख में पास आ तो सकतें हैं।तब पापा ने कहा था ,”बेटा तुम्हारे पापा की आधी से ज्यादा ज़िंदगी यहां रहकर बीती है।अब नई जगह जाकर तबीयत बिगड़ने से अच्छा है हम  यहीं रहें।कुछ दिनों बाद जब अच्छा पैसा मिलेगा,तब बेच देंगे।”

अब उस घर में प्रशांत और पारुल ही रुके।बेटा बहू को लेकर चला गया बैंगलुरू। समझा कि पापा की सोच भविष्य के लिए चली जाती है।बेटी ने वापस जाने के लिए दोबारा में रिजर्वेशन करवा भी लिया था।बेटी मुंह फुलाए बैठी थी,पर प्रशांत जी को अपने सपने वाले आशियाने में ही रहना था।

योजना थी कि दशहरा में तीनों भाई -बहन और दामाद-बहू यही शहडोल आएंगे।उतना समय भी नहीं मिला।हमेशा हंसने हंसाने वाले दादा अब अपोलो‌ के बेड पर पड़े दादा क्लांति हीन लगे।सभी ने पूछा” क्या हुआ ?जल्दी घर चलना है ना!

बेहोशी की हालत में भी सर हिलाने लगे वे। हार्ट अटैक आया था उन्हें।एन्जियोप्लास्टरी करते समय ही एक और अटैक आया,बस दादा की इहलीला खत्म।पारुल जी को लेकर आया गया।सफेद चादर से ढका हुआ शरीर देखकर भरभरा कर  रोने लगीं वे।

चादर खोलकर चीखते हुए बोलीं”सारी जिंदगी घर के पीछे अपनी भूख-प्यास आराम सब गंवा दिया तुमने।अपने बच्चों के साथ ज्यादा नहीं रह पाए तुम इन्हीं पत्थर मिट्टी के लिए।तुम्हारा दिल पत्थर हो गया था।किसी के लिए ममता नहीं बची थी।आज देखो,घर रह गया तुम्हारा।

तुम ही मुझे छोड़कर चले गए।”धार-धार रोती हुईं पारुल को उनकी दो बहनों ने संभाला।अंतिम संस्कार की तैयारी चल रही थी।तभी प्रशांत जी का भतीजा एक चिट्ठी दिया पारुल को”चाची, एंजियोप्लास्टी होने से पहले यह लिखकर मुझे दिया था ,आपको देने के लिए।”

हैरान पारुल उत्सुकता के साथ चिट्ठी पढ़ने लगी।”पारुल ,तुम लोग हमेशा मुझे परिवार से छूटा हुआ समझते थे,पर मैं पत्थर नहीं ।मैं जाने के बाद भी तुम्हारे लिए इतना रख जाऊंगा,कि तुमको परेशानी नहीं होगी न।मैं तुमसे पहले जाऊंगा,क्योंकि तुम तो रो धोकर जी लोगी,पर तुम्हारे बगैर तो मेरी सुबह भी नहीं होती।तुम लोगों से दूर रहकर ही भाग दौड़ कर पाया।

बैंगलुरू से यहां आना कोई संभव था क्या?अब देखो।इस घर में तुम मालकिन बनकर रहोगी।तुम मेरी अर्धांगिनी हो।तुम्हें जितनी तकलीफ़ दीं हैं आज तक,माफ़ कर देना।एक खास बात का ख्याल रखना।यहां से बेटे के घर मत शिफ्ट होना।आराम से अपने घर में रहना।

बच्चे अपने बच्चों को अगर दादा-दादी या नाना नानी से मिलवाना चाहतें हैं,तो वो लोग आएंगे तुम्हारे पास।यह तुम्हारा घर है पारुल।ये घर कोई छीन नहीं पाएंगे।मैं रहूं या ना रहूं,तुम यहीं खुशी से और स्वस्थ रहना।मैं पत्थर बनकर ही बाहर से देखता रहूंगा।”

चिट्ठी खत्म हो गई।एक पिता के द्वारा लिखा  यह आखिरी खत, आशीर्वाद था उनका।

आज बाहर बरामदे में प्रशांत जी को उचित परिधान पहना दिया गया है।अब शायद कुछ विधान  का काम बचा है।पत्थर दिल आदमी,जो मन का भोला था,आज पत्थर की तरह अपनी चौखट पर डटा पड़ा था।ना किसी से अपनी सेवा करवाई,ना ही अस्पताल में लंबा बिल होने दिया।पिता का दिल पत्थर की तरह यदि कठोर होता है,तो बस अनुशासन के लिए।सारी जिंदगी की कमाई लगाकर इतना बड़ा किया है बच्चों को इसी पत्थर दिल वाले पिता ने।

शुभ्रा बैनर्जी 

#पत्थर दिल

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