गाँव के किनारे वह पुराना बरगद का पेड़ आज भी खड़ा था, जिसकी छाँव में कभी हँसी-ठिठोली गूँजा करती थी। पर आज उसके नीचे बैठी शांति की आँखों में वह चमक नहीं थी, जो कभी उसके बचपन में दिखती थी। उसकी साड़ी फटी हुई थी, हाथों में जख्मों के निशान थे, और होंठों पर एक सूनी मुस्कान—जैसे वक्त ने उसे जीना सिखाया ही नहीं, बस झेलना सिखा दिया हो।
तीन साल पहले जब उसके पति की तबीयत बिगड़ी, तो गाँव वालों ने सिर्फ़ यही कहा, “औरत की किस्मत ही ऐसी होती है।”जब उसका बेटा बुखार से तपता रहा, तो वैद्य ने दवा देने से पहले पैसे माँगे। और जब उसकी बेटी ने रोते हुए भूख बताई, तो सरपंच ने कहा, “काम करो, तभी खाना मिलेगा।”
एक रात, जब बारिश की ठंडी फुहारें खिड़की से टकरा रही थीं, शांति ने अपने बेटे का ठंडा शव अपनी गोद में लिया। उसकी आँखों में आँसू भी नहीं थे—शायद सारे आँसू सूख चुके थे। उसने अपनी बेटी को सरपंच के घर काम करते देखा, जहाँ उसकी उम्र से तीन गुना बड़ा आदमी उसे घूरता रहता।
लेकिन…
एक दिन, गाँव की नई शिक्षिका, रेखा, उधर से गुज़री। उसने शांति को पेड़ के नीचे बैठे देखा—हाथ में एक पत्थर लिए, जिसे वह बार-बार घुमा रही थी। रेखा ने पूछा, “क्या इस पत्थर में कोई राज़ है?”
शांति ने उदास स्वर में कहा, “यह पत्थर उन लोगों की याद दिलाता है, जिनके दिल भी पत्थर के बने हैं।”
रेखा ने उसका हाथ थाम लिया। उसने शांति की बेटी को सरपंच के घर से छुड़वाया, गाँव वालों को इकट्ठा किया और कहा, “अगर हमारे दिल पत्थर के हैं, तो हमारा समाज भी पत्थर की दीवार बनकर रह जाएगा।”
धीरे-धीरे बदलाव आया। गाँव वालों ने शांति की मदद की। उसकी बेटी को स्कूल भेजा गया। खेत में काम देकर उसे रोज़गार मिला। और जिस पेड़ के नीचे वह अकेलेपन में बैठा करती थी, वहाँ अब बच्चों की हँसी गूँजने लगी।
एक साल बाद, जब शांति ने अपनी बेटी को स्कूल की पहली किताब पकड़ाते देखा, तो उसकी आँखों में वह चमक लौट आई, जो कभी खो गई थी। उसने ज़मीन से एक पत्थर उठाया, मुस्कुराई और उसे दूर फेंक दिया। क्योंकि अब उसे पत्थर दिलों की ज़रूरत नहीं थी।
अगर समाज जाग जाए, तो पत्थर दिल भी पिघल सकते हैं। कभी-कभी बदलाव की शुरुआत सिर्फ़ एक हाथ के सहारे से होती है।
डॉ० मनीषा भारद्वाज
ब्याड़ा (पंचरूखी )
हिमाचल प्रदेश