पत्थर दिल – दीपा माथुर : Moral Stories in Hindi

बरामदे में शहनाई की धीमी गूंज थी। रसोई से पकवानों की खुशबू हवाओं में घुल रही थी। आंगन में औरतें मेंहदी रचाते हुए फ़िल्मी गीत गा रही थीं, और बच्चों की शरारतें कोने-कोने से टकरा रही थीं। सजे-धजे रिश्तेदार, चमकते लहंगे, डिज़ाइनर ब्लाउज़ और हर चेहरे पर कैमरे की तलाश।

पर उस शोरगुल और रोशनी के बीच, एक कमरा था — जहां सन्नाटा घुटनों पर बैठा था।

दरवाज़ा भीतर से बंद था।

कमरे की खिड़की पर मोटा परदा लटका था।

भीतर एक लड़की बैठी थी — माथे पर हल्का सिंदूर, चेहरे पर सादगी, और किताबों से भरी मेज़ पर झुका मन।

वो लड़की, इस घर की बहू थी — अन्वी।

कमरे के कोने में रखी अलमारी की सबसे ऊपर वाली शेल्फ पर उसका मोबाइल था — बंद, ढका हुआ, जैसे समाज के दिखावे से अनजान पड़ा हो।

तीन साल हो गए उसे छुए हुए।

न इंस्टाग्राम, न वॉट्सऐप स्टेटस, न किसी फोटो में ‘ग्लो अप’ की ज़रूरत — अन्वी के लिए ये शब्द अब नीरस थे।

उसे अब ‘फेसबुक लाइक्स’ नहीं, बल्कि ‘कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल्स’ याद थे।

उसे अब ‘पार्टी लुक्स’ नहीं, बल्कि ‘पॉलिटी के सेक्शन’ याद होते थे।

और उसे अब ‘किसी ब्राइडल मेकअप’ की चिंता नहीं — बल्कि उस “स्वप्न” की भूख थी, जिसे उसने अपने मन में जला रखा था: IAS।

बाहर चाय लेकर सास खड़ी थीं,

“बहू, थोड़ा नीचे आ जा… मेहमान पूछ रहे हैं, ‘IAS बनना है या राजघराने की रानी?'”

अन्वी ने दरवाज़ा खोला, मुस्कुराई, और धीरे से कहा,

“राज तो खुद पर करना है, मांजी… भीड़ पर नहीं।”

सास कुछ कह न सकीं।

ये लड़की उनमें कुछ तो बदल रही थी।

पर बाहर समाज नहीं बदला था।

आँगन में अब फुसफुसाहटें थीं —

“तीन साल से बहू ने पार्लर तक नहीं देखा।”

“फोन नहीं चलाती, क्या ज़माने से पीछे है?”

“IAS का घमंड है या ससुराल से ऊब?”

“बड़ी पढ़ी-लिखी है, पर बहुओं की तरह बर्ताव नहीं करती!”

किसी ने ये नहीं पूछा कि उसकी आँखों के नीचे काले घेरे क्यों हैं,

या उसके कमरे में सजावट नहीं, तो किताबों का बोझ क्यों है।

किसी को फर्क नहीं पड़ता था कि वो दीवाली पर अपने लिए कपड़े नहीं मंगवाती, क्योंकि उसने उस पैसे से नोट्स की फोटो कॉपी करवाई थी।

उसे देखने कोई नहीं आया,

क्योंकि वो ‘देखने’ लायक नहीं थी —

न चमकीले कपड़े पहनती थी, न बड़े-बड़े बयान देती थी।

वो बस पढ़ती थी।

एक दिन जब सास ने कहा,

“बहू, फोन तो चालू कर ले, कभी-कभी रिश्तेदारों को हाल तो बता।”

तो अन्वी ने जवाब दिया —

“मांजी, हाल तो तब पूछते हैं जब दिल में जगह हो,

इनका हाल तो बस स्टेटस पर होता है —

मैं अब खुद को खोकर किसी की सूची में नाम नहीं बनाना चाहती।

मैं बनना चाहती हूं — वो जो सूचियाँ बनाती है।”

रात को जब सब सोते, अन्वी अकेली एक दीया जलाती थी —

कुर्बानी का दीया।

किसी को दिखाने के लिए नहीं —

अपने भीतर के अंधेरे को हर रात टुकड़ा-टुकड़ा काटने के लिए।

उसकी डायरी में लिखा था —

“सफलता पाने के लिए पत्थर दिल बनना पड़ता है,

क्योंकि दुनिया फूलों को इत्र में बदल देती है — और सपनों को स्टेटस में।”

तीसरे प्रयास में जब रिज़ल्ट नहीं आया,

उस रात उसने अपने सिरहाने पड़ी माँ की पुरानी साड़ी ओढ़कर सोने की कोशिश की,

पर नींद नहीं आई।

उसने फोन देखा —

चालू नहीं किया,

बस देखा।

फिर अलमारी की शेल्फ पर वापस रख दिया।

तीन दिन तक कमरे से नहीं निकली।

पति आरव, जो चुपचाप उसके नोट्स पढ़ता था, आया और बस इतना बोला,

“तेरा सपना मैं भी देखता हूं — लेकिन तेरे लिए, आँखें मेरी जलती हैं। तू अब हार नहीं सकती।”

उसी दिन से फिर पढ़ाई शुरू की।

और फिर… चौथा प्रयास।

जब रिज़ल्ट आया, तो गांव के गेट से लेकर घर की दहलीज़ तक बधाइयों की भीड़ थी।

अब वही औरतें आकर कह रही थीं —

“बहू, मेरी बेटी को भी पढ़ा दो।”

“हमारा बेटा थोड़ा बिगड़ गया है, दो बातें समझा दो ना।”

“तू तो देवी निकली बहू… शांति से सफलता पा गई!”

अन्वी खामोश मुस्कुरा दी।

उसने किसी को जवाब नहीं दिया।

बस वही पुराना मोबाइल अलमारी से उतारा,

स्विच ऑन किया —

पहली स्क्रीन पर वही पड़ा था:

“SIM Not Detected.”

जैसे तीन साल की तपस्या के बाद भी दुनिया उससे कटी हो,

लेकिन इस बार फर्क नहीं पड़ा।

अब दुनिया को उससे जुड़ना था।

उस रात, पहली बार सास ने कहा —

“आज तेरे जैसी बहुएं हर घर में हों तो समाज की सोच बदल जाए।

तू अब बहू नहीं, आदर्श है।”

अन्वी ने सिर झुकाया और सिर्फ इतना बोला —

“मैंने किसी को बदलने की कोशिश नहीं की मांजी,

बस खुद को नहीं बदला — आडंबर के हिसाब से।”

और आंगन की वो बहू, जो कभी सबसे अलग थी —

आज सबसे ऊपर थी।

क्योंकि उसने एक ताज नहीं पहना,

बल्कि खुद को ऐसा बना लिया —

कि लोग झुककर उसका नाम लेने लगे।

दीपा माथुर

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