“देख सुमि,दो और भी बहुएं हैं उस घर में।बड़ी बहू ने तो स्कूल में नौकरी करके अपनी अलग गृहस्थी बसा ली।ले गई ना पति को अपने साथ।बस अनाज में हिस्सा लेने आ जाती है।छोटी बहू तो अभी भी छोटी ही बनी हुई है।
कभी बड़ी होगी भी नहीं।बस रसोई में आकर जिज्जी-जिज्जी कर देती है,और तू निहाल हो जाती है।अरे सास-ससुर क्या सिर्फ तेरे हैं?तेरे कुछ दिन मायके आकर रहने से क्या तेरे ससुराल में चूल्हा नहीं जलेगा?यहां का मोह तो तूने ऐसे झटक दिया,
जैसे हमसे नहीं उनसे खून का नाता है।कभी तो महीने भर को रुक जाया कर।”नीता जी गुस्से से भरी हुई, जानबूझकर ऊंची आवाज में बोली रहीं थीं बेटी (सुमित्रा)से।सुमित्रा ने झट मां के मुंह पर हांथ रखकर कहा”जिसे सुना रही हो,उसने कभी नहीं रोका मुझे।ना ही अम्मा-बाबूजी मना करतें हैं मां यहां आने से।मैंने तो आपके दामाद से वचन ले लिया था कि
जब मन होगा,मां-पापा से मिलाने लेकर आएंगे।काहे इतना हंगामा करती हो?दो -तीन महीने में आ जाती हूं ना।देख लेती हूं आप लोगों को।श्रेया(छोटी बहन)से भी मिल लेती हूं।आप सभी स्वस्थ हैं ईश्वर की कृपा से।दो दिन रहूं या महीने भर क्या फर्क पड़ता है?क्यों कोसती रहती हो
मेरे ससुराल वालों को?क्या वह मेरा घर नहीं?तुम्हें तो मालूम है ना?बड़ी दीदी (जिठानी)की तबीयत ठीक नहीं रहती।हफ्ते में एक बार आकर सोनू (बेटे)को ना देख लें ,तो जी अच्छा नहीं लगता उनका।बहुत प्यार करतीं हैं मेरे सोनू से।छुटकी को थॉयराइड की समस्या है।पैरों में दर्द रहता है बिचारी के।
फिर भी रसोई में मेरा हांथ बंटाती है सुबह से उठकर।रही बात अम्मा(सास)की तो इस बुढ़ापे में भी दस -दस मजदूरों से काम करवाना नहीं होता उनसे। खेती-बाड़ी बाबूजी चलातें हैं।मेरे होने से सब निश्चिंत रहते हैं।इतना प्रेम करते हैं देवर और जेठ।इससे ज्यादा और क्या चाहिए?
दीवाली में ससुराल की पूजा छोड़ नहीं सकती।दशहरे में जवारे पूजे जातें हैं वहां। इसीलिए तो कभी भी बिना त्योहार के आ जाती हूं।अच्छा सुनो ना मां,सुनो ना,,मुंह ना फुलाओ।जब श्रेया की शादी करेंगे ना ,घर जमाई ले आएंगे।वो यहीं रहेगा,तो श्रेया भी तुम लोगों के साथ हमेशा रह पाएगी।”
नीता जी ने खिसियाकर कहा”जब जिठानी को बच्चे इतने पसंद हैं,तो काहे नहीं पैदा कर लेतीं बच्चे?सुंदरता बिगड़ जाएगी ना,एही से मां नहीं बनना चाहती।छोटी के तो लक्षन दिख नहीं रहे मां बनने के।रहा -सहा एक हमारा सोनू ही है इकलौता वारिस उस घर का।तो तुझे भी तो वह रुतबा मिलना चाहिए।”
सुमित्रा समझती थी ,कि मां को समझाया नहीं जा सकता।महीने में लाकर जो दिखा जातें हैं मुझे,उसकी कोई कीमत नहीं।महीने भर रुको,तब मां को तसल्ली होगी।ऐसा कभी हो नहीं पाएगा।तुरंत मां से कहा सुमि ने”मां,तुम पापा के साथ हमारे ससुराल चलने की तैयारी करो जल्दी।कुछ दिन रूक कर देख तो लो,कितना अच्छा परिवार मिला है आपकी बेटी को।”
“अरे!मुझे नहीं जाना बेटी की ससुराल।वहां का अन्न खाना वर्जित है हमारे लिए।इतने लोग पहले से ही जमे रहतें हैं,ऊपर से हम दोनों भी पहुंच जाए तो, चिड़ियाघर ही बन जाएगा तेरी ससुराल।तू जा बेटा,मत रुक।तू सचमुच अब पराई हो गई है सुमि।
नीता जी आहत स्वर में बोल दीं।बाहर बैठे हुए दामाद जी(सुमित्रा) चुप थे बिल्कुल।सुमि ने हांथ जोड़कर माफी मांगते हुए कहा”,जानतें हैं ना आप मां की आदत।हमारे साथ समय बिता नहीं पाती ना,इसलिए खिसिया जातीं हैं। समझाते -समझाते थक गई हूं कि ससुराल मेरा भी घर है।ये नहीं समझतीं।आप इनकी बात का बुरा मत मानियेगा जी।”
दामाद जी(राजेन्द्र सिंह)सुलझे हुए इंसान थे।सासू मां की विवशता समझते थे अच्छे से।बोलते भी थे सुमि को कुछ दिन रुकने वहां,पर सुमि ही नहीं मानती थी।दो दिन बाद बेटी विदा हो रही थी।दामाद जी ने पहले से ही,ज्यादा नेंग-वेंग के लिए मना कर रखा था। सुमित्रा और दामाद जी की विदाई की नीता जी ने,पर अनमनी सी उदास लग रहीं थीं।दामाद जी ने आश्वस्त किया जल्दी लेकर आने का।
तीन -चार सालों में सोनू भी काफी बड़ा हो चुका था।पूरे घर का इकलौता बच्चा,वो भी सोनू की तरह शांत और गंभीर।हर कोई उसे प्यार करता था।पिता के साथ खेतों का हिसाब -किताब देखने में मन नहीं लगता था उसका
अभी मायके से आए मुश्किल से पंद्रह दिन ही बीते थे,श्रेया का फोन आया कि पापा नहीं रहे।सुमि ने तो सपने में भी नहीं सोचा था,इतनी जल्दी क्यों और कैसे चले गए हमेशा के लिए?श्रेया तो बहुत छोटी है अभी। कॉलेज भी खत्म नहीं हुआ था।तब सासू मां ने कहा”जाकर कुछ दिन रह ले बहू अपनी मां के साथ।छोटी बहन को भी सहारा हो जाएगा।
यहां की चिंता मत कर।बड़ी और मंझली मिलकर संभाल लेंगी।”सुमित्रा गई इस बार ज्यादा दिन रहने के लिए।विधि का विधान भला कोई समझ पाया है कभी? सुमित्रा की मंझली बहन जिसकी दो बेटियां थीं,वह भी आई थी मायके।वहीं उसके कैंसर होने का पता चला।बड़ी बेटी पांच साल की और छोटी महज तीन साल की थी।जीजाजी हैदराबाद में नौकरी करते थे,
और बहन सास-ससुर के साथ गांव में ही रहती थी अधिकतर।इकलौते बेटे थे जीजाजी।इलाज भोपाल में चल रहा था। सुमित्रा के पति गए थे साथ में।पंद्रह दिनों तक रुकना पड़ा पहली बार।बाद में लगातार जाना पड़ता था। सुमित्रा की सासू मां ने हर बार सुमित्रा के पति को साथ में भेजा था।छह महीने के भीतर ही बहन चल बसी।
नियति के आगे घुटने टेक दिए थे सुमि ने।अब बहन के बच्चों को कौन संभालेगा?मां ही लेकर आई बच्चों को।यह घटना साधारण नहीं थी।बच्चों को पिता के पास अकेले भेजना सही नहीं था।गांव में बूढ़े माता-पिता संभाल नहीं पाएंगे।
सुमित्रा की सास ने सुमित्रा को सहज करने के लिए कहा”तू ही ले आ दोनों को अपने पास।यहां भाई के साथ मन लग जाएगा।मां से बोल दे छोड़ जाएंगी।लगभग महीने बाद मां श्रेया और भांजियों को लेकर आई।
आते ही सुमित्रा की सास के गले लगकर रोते हुए बोलीं”मुझ अभागन की हालत देख रहीं हैं।एक -एक करके सब चले जा रहें हैं मेरे परिवार से।श्रेया और इन दो बच्चियों को संभालने की जिम्मेदारी मेरी है।आपने हमारे मन में साहस भर दिया।”
सुमित्रा की सास ने उनके आंसू पोंछते हुए ढांढ़स बंधाया”अरे बहन जी,रोना बंद करिए।भगवान दयालु है।जो ले लिया है,वह तो वापस नहीं मिलेगा।पर भगवान आखिरी सहारा किसी ना किसी को बना ही देता है।”सुमित्रा की मां ने अब तक अपने डर को किसी से साझा नहीं किया था।समधन के मीठे बोल ने तोड़ दी उनकी हिम्मत ।
धार-धार रोते हुए कहा”मुझे भी डॉक्टर ने कैंसर बताया है।अभी ज्यादा नहीं बड़ा है। ऑपरेशन करने से शायद ठीक भी हो जाएगा।पर आप ही बताइए,मैं इन बच्चों को छोड़कर कहां जा पाऊंगी इलाज के लिए।”
सुमित्रा की सास ने तब कहा”समधन जी ,जैसे आपकी बेटी के लिए यह घर उसका है।मेरे बेटे (आपके दामाद,)का भी तो आपका घर है।
मुसीबत के समय आपकी बेटी जब हमारा सहारा बनती है,आपका दामाद क्यों नहीं बनेगा?इन बच्चों को यहीं छोड़िए।हमारे घर सुमि के बेटा ही है बस।ये दोनों कन्या आ जाएंगी ,तो घर भरा -भरा लगेगा।यहीं पढ़ाई करेंगी।सुमि के ससुर बहुत कमाए हैं।”
समधन के मुंह से यह सुनना,बहू की मां के लिए असंभव बात थी।इतना बड़ा मन हो सकता है क्या किसी औरत का?”
अगले ही दिन सुमित्रा की मां को लेकर सुमित्रा और श्रेया भोपाल गए। ऑपरेशन हो गया था।पर उन्हें आराम की जरूरत थी।घर में खेती -बाड़ी काफी थी,बस मर्द अब कोई नहीं था।मजदूरों से काम करवाना वह भी औरत के द्वारा बड़ा कठिन था।
उन्होंने अधिया में दे दी जमीन।ताकि अपना इलाज भी जारी रख सकें।यहां सुमित्रा के ससुराल में उन दोनों बेटियों को लक्ष्मी मानकर प्रेम से रखा गया। सुमित्रा को ही मां ,और सुमित्रा के पति को पापा कहतीं।बड़ी और छोटी बहुएं भी सुमित्रा की बहन की बेटियों पर जान लुटातीं।
गांव से अनाज बेचकर सुमित्रा के ससुराल पहुंची सुमित्रा की मां,तो दामाद जी से हांथ जोड़कर विनती की “पैसे रख लें।इलाज के लिए भी खर्च कर ही देतें हैं।ऊपर से साली की बेटियों को भी पाल रहें हैं। खर्च कम नहीं होता दो बेटियों को पालने का।
“सुमित्रा की सास ने हांथ पकड़ कर कहा,क्या यह घर आपका नहीं।क्या आपके दुख हमारे नहीं?इस मुसीबत में एक घर होते हुए आप किसी और दरवाजे में क्यों जाएंगी?आप बस पूरी तरह से ठीक हो जाएं।अभी श्रेया की भी शादी करनी है।”समधन जी के अपनेपन के सामने सुमित्रा जी नतमस्तक हो गईं।उनका इलाज चलता रहा,
और डॉक्टर ने बिल्कुल स्वस्थ बता दिया था उन्हें।अब वे अपने घर जा रहीं थीं।दोनों निवासियों को पूछा चलने के लिए नानी के पास,तो बड़ी नवासी(नैना)ने कहा”नानी ,आप जल्दी घर के कामकाज निपटा आओ।हम दादी के साथ रहेंगे। मम्मी -पापा भी तो यहीं हैं।आपके साथ वहां अकेले रहना पड़ेगा।”
सुमि की मां समझ गई कि कितना प्रेम और सम्मान मिला होगा इन बच्चियों को,कि वे भरोसा करने लगीं हैं समधन और दामाद जी पर।दोनों बेटियां उसी विद्यालय में पढ़ रहीं थीं,जहां सुमि का बेटा।दोनों अपनी मम्मी (सुमि) के आगे-पीछे घूमती रहतीं।सुमि की मां अपने घर रहतीं फिर कुछ दिनों के लिए बेटी के घर आ जातीं।
भगवान को शायद और परीक्षा लेनी थी अभी।श्रेया को अभी -अभी जयपुर में एडहॉक पर नौकरी मिली थी।अब सुमित्रा की चिंता कम होने वाली थी।तभी एक दिन श्रेया की दुर्घटना हो गई। लिगामेंट रप्चर हो चुका था।
वहां कंपनी की इंश्योरेंस पॉलिसी की वजह से बड़े अस्पताल में भर्ती की गई।इधर उमरिया से सुमित्रा और उसके पति भी पहुंचे। आपरेशन अच्छे से हो गया।अभी फिजियोथेरेपी के लिए रुकना पड़ेगा जयपुर लगभग महीने भर के लिए। सुमित्रा से पहले जीजाजी ने आश्वासन दिया,रुकने का। जयपुर में श्रेया को देखने उसकी एक सहेली भी पहुंची थी।
हॉस्पिटल में जाकर देखा तो,श्रेया कमजोर लगी ।सहेली (रिया)ने पूछा “जीजाजी कहां है दीदी?”सुमित्रा का जवाब सुनकर तो हॉस्पिटल के स्टाफ ,सहेली भी आश्चर्य में पड़ गए।कोई व्यक्ति इतना अच्छा भी हो सकता है भला।
सुमित्रा के पति दो दिनों के लिए उमरिया गए थे,छोटी बेटी का जन्मदिन मनाने। सुमित्रा की मां भी हॉस्पिटल में ही थीं। सुमित्रा की सास ने समधन का हौसला बढ़ाते हुए कहा”बिल्कुल हिम्मत नहीं हारना आप।श्रेया जल्दी ठीक हो जाएगी।अरे ठीक होकर आने दीजिए,यहीं बंगला(उनके घर का नाम)से ही शादी करेंगे हम।पैर सही सलामत करके आए।”
सुमित्रा की मां ने सुमि के आगे हांथ जोड़कर माफी मांगते हुए कहा”मैं कितनी गलत बातें बोलती थीं उनके बारे में।आज देख दामाद जी और उनकी मां ने हमारे घर को कभी पराया माना ही नहीं।मैंने इतनी मौत देखकर भगवान को बहुत कोसा था रे,
पर नहीं इतना लेकर भगवान ने मुझे एक भरा-पूरा परिवार दिया है।मुझे भगवान कभी माफ नहीं करेंगें।तू मुझे माफ़ कर दे।चिढ़ जाती थी जब तू बोलती थी कि ससुराल मेरा भी घर है।आज तेरे ससुराल वालों ने मेरे घर को अपना बना दिया।
सभी दामाद पराए नहीं होते,कुछ अपने बेटे भी बन जातें हैं।बस कुछ दिनों बाद ही हम घर चलेंगे।”
सुमित्रा ने पूछा “कौन से घर”उमरिया वाला या सतना वाला?”मां ने खुश होकर कहा “उमरिया वाला बंगला।”
सब हंस दिए, हंसते-हंसते श्रेया का पैर भी उठ गया गलती से,फिर सब साथ में हंसने लगे।
शुभ्रा बैनर्जी
#मत भूलो, कि ये भी मेरा परिवार है।