ऑफिस में बैठे आलोक के मोबाइल पर एक अनजान नंबर से कॉल आया।
“हैलो…?”
फोन उठाते ही एक जानी-पहचानी आवाज़ सुनाई दी —
“भैया… मैं सावित्री बोल रही हूँ।”
“अरे, तुम दोपहर में कॉल क्यों कर रही हो? सब ठीक है?” आलोक ने पूछा।
“भैया… मैं कल से काम पर नहीं आऊँगी। भाभी से कह दीजिएगा।”
“क्यों? क्या हुआ? और ये मुझे क्यों बता रही हो? तुम्हारे पास सुजाता का नंबर है, उसे फोन करो।”
“नहीं भैया…”
सावित्री की आवाज़ में हल्की-सी कंपकंपी थी।
“आज सुबह जब मैं चुपचाप काम कर रही थी, तब भाभी ने मुझ पर इस तरह शक जताया… जैसे मैंने ही उनके पाँच हज़ार रुपए चुरा लिए हों।
कुछ दिन पहले भी ऐसा हुआ था। तब भी मैं कुछ नहीं बोली। लेकिन अब… अब नहीं सह पाऊँगी भैया।
मैं गरीब ज़रूर हूँ… पर चोर नहीं हूँ। अच्छा, अब फोन रखती हूँ।”
कॉल कट गया।
लेकिन आलोक की सोच यहीं अटक गई थी।
आलोक एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करता है। पत्नी सुजाता और तीन साल का बेटा विवान उसके परिवार का संसार हैं।
शादी को पाँच साल हो चुके हैं, मगर अब रिश्तों में पहले जैसी सहजता नहीं रह गई थी — खासकर सुजाता के संदेह करने की आदत के चलते।
रात नौ बजे जब आलोक घर पहुँचा, तो सब सामान्य लग रहा था।
न उसने कुछ कहा, न सुजाता ने।
अगली सुबह।
“अरे! बर्तन वैसे ही पड़े हैं… ये सावित्री आज फिर नहीं आई! कल भी तो लेट आई थी।”
सुजाता बड़बड़ा ही रही थी कि फोन की घंटी बजी। मम्मी का कॉल था।
“हाँ सुजाता, मिल गए तेरे पाँच हज़ार? कल बड़ी घबराई हुई थी तू।”
“मिल गए मम्मी! मेरी छोटी अलमारी के दराज़ में रखे थे। शायद जल्दी में पीछे रह गए थे।
तू भी ना, तुरंत शक कर बैठती है!”
और उन्होंने हँसते हुए फोन काट दिया।
लेकिन आलोक अब तक शांत नहीं था।
“मिल गए पैसे… तो अब तसल्ली हो गई? मम्मी को बता कर?” उसने हल्का कटाक्ष किया।
“तो क्या हर बात मम्मी से न बताऊँ?” सुजाता चिढ़ गई।
“कुछ बातें अपने तक भी रखनी सीखो, सुजाता। अब तुम कोई बच्ची नहीं हो।”
आलोक का स्वर अब सख़्त होने लगा था।
“कल दोपहर को सावित्री ने मुझे फोन किया था। उसने पूरी बात बताई… और कहा कि अब वो काम पर नहीं आएगी।”
“काम पर नहीं आएगी? लेकिन क्यों?” सुजाता चौंकी।
“क्योंकि तुमने उस पर शक कर लिया।
तुमने पूछा भी कैसे था, मुझे सब पता है।
उसे लगा तुमने उसे चोर समझ लिया।”
“मैंने तो बस ऐसे ही कहा कि सफाई करते हुए पैसे देखे होंगे क्या…”
“तुम्हारे पूछने का तरीका भी तो मायने रखता है।
पक्की बात है, उसी वक़्त मम्मी को भी फोन किया होगा और कह दिया होगा — ‘मेरे पैसे सावित्री ने ही लिए होंगे।’”
इतनी ही परवाह है अपने पैसों की और अपने सामान की तो मेड के आने से पहले सुनिश्चित कर लो कि सब कुछ अपनी जगह पर सही है ।अलमारी को ताला कर दो तो नौबत ही न आए इन चीज़ों की।
“आप अब मेरी नहीं, कामवाली की तरफदारी कर रहे हो?”
सुजाता का चेहरा उतर गया।
“मैं किसी की तरफदारी नहीं कर रहा।
पर तुम्हारी ये आदत — बार-बार शक करना —
सबको तुमसे दूर कर रही है।
आज सावित्री पर शक किया,
और तो और, तुम तो मुझे भी नहीं छोड़ती!
थोड़ा सा ऑफिस से देर क्या हो जाऊँ, वीडियो कॉल पर झट से पूछ लेती हो —
‘कहाँ थे? किसके साथ थे? इतनी देर क्यों हुई?’
तुम्हारी शक भरी निगाहें सब कुछ कह जाती हैं।”
सुजाता चुप रही।
“हर किसी को शक की नज़रों से देखना — ये ठीक नहीं है, सुजाता।
आज तुमने कामवाली को खोया है।
कल को कोई रिश्तेदार, या मैं ही… तुमसे दूर हो जाऊँ — तो फिर?”
अब आलोक का स्वर नर्म था, पर बहुत कुछ कह रहा था।
“रिश्तों में शक से ज़्यादा ज़रूरत होती है विश्वास की।
अगर वही नहीं है, तो रिश्ते कैसे टिकेंगे?”
आलोक ने बात जारी रखी —
“याद है नंदिता की वही लिपस्टिक? सुनील की शादी में?”
“हाँ…” सुजाता झेंप गई।
“क्या कहा था तुमने — ‘कहीं मेरी वाली तो नहीं ले ली?’
फिर चुपके से उसकी मेकअप किट भी देख ली थी, कि वही शेड है या नहीं!
इतना छोटा दिल तुम्हारा कब से हो गया?
क्या सिर्फ तुम ही इंपोर्टेड लिपस्टिक खरीद सकती हो?
आज के ज़माने में कौन-सी बड़ी बात है एक अच्छी लिपस्टिक खरीदना?
वो क्यों नहीं खरीद सकती? और तुमने मान लिया कि उसी ने तुम्हारी ले ली! क्यों लेगी भला तुम्हारी?
और चलो मान भी लो — उसने ले भी ली होती,
तो क्या फर्क पड़ता? तुम दोनों ननद-भाभी हो — एक ही परिवार की। इतनी दूरी क्यों?
छोटी सोच बड़े रिश्तों को तोड़ देती है, सुजाता।”
सुजाता अब रो पड़ी।
“आप ठीक कह रहे हो… मुझसे ग़लतियाँ हुई हैं।”
“मैं तुम्हारा पति हूँ। माफ कर सकता हूँ… समझा सकता हूँ।
पर बाहर वाले माफ नहीं करते, सुजाता।
उनके दिल टूट जाते हैं… और भरोसा भी।”
आलोक का स्वर अब फिर प्यार भरा हो गया।
“चलो, अब सावित्री को फोन लगाओ।
— शायद वो वापस आ जाए।
और मुझसे एक वादा करो — इस आदत को बदलने की पूरी कोशिश करोगी।”
सुजाता ने गम्भीरता से सिर हिलाया —
“हाँ आलोक… आज आपने मुझे आइना दिखाया।
मैं पूरी कोशिश करूँगी — थोड़ा समय दो मुझे।”
“देर से सही, पर तुमने सोचा तो सही…”
आलोक मुस्कराया और अपनी पत्नी को गले से लगा लिया।
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“रिश्तों की उम्र शक से नहीं, भरोसे से बढ़ती है।”
— ज्योति आहूजा