रिश्तों की मर्यादा: एक अदृश्य रेखा – डॉ० मनीषा भारद्वाज : Moral Stories in Hindi

सायंकाल की लालिमा घर के कोने-कोने में चुपचाप बिछ रही थी। अदिति ने खिड़की के शीशे पर बैठकर अपने चेहरे पर उतरती शाम की छाया देखी।

उसका मन अजीब-सा भारी था। बाहर, माँ सुप्रिया रसोई में चुपचाप रात के खाने की तैयारी कर रही थीं। दोनों के बीच की चुप्पी एक तनावपूर्ण नदी की तरह बह रही थी – गहरी और सब कुछ बहा ले जाने को आतुर।

कुछ ही दिन पहले तक सब सामान्य था। अदिति, कॉलेज की छात्रा, अपने जीवन के रंगों में मस्त थी। एक पुरानी सहेली का निमंत्रण आया – एक सप्ताह की पर्वतीय यात्रा का।

उत्साह में चूर अदिति ने माँ को बताया भर, पूछा नहीं। “मम्मी, मैं अगले हफ्ते मीनाक्षी के साथ मसूरी जा रही हूँ।” उसकी आवाज़ में वह आत्मविश्वास था जो युवा उम्र की अक्सर अतिरेकी धरोहर होती है।

सुप्रिया ने चावल धोते हुए हाथ रोक दिए। एक पल के लिए उनकी आँखों में चिंता की एक चमक कौंधी, फिर शांत गंभीरता में बदल गई। “अदिति, यह तुमने सोचा कैसे? परीक्षाएँ नज़दीक हैं। और… अकेले इतनी दूर?” उनकी आवाज़ नर्म थी, पर अंतर्निहित असहमति स्पष्ट थी।

“मम्मी, ये तो बस एक हफ्ता है! और मीनाक्षी है न साथ? मैं अब बड़ी हो गई हूँ!” अदिति का स्वर तीखा हो गया। उसने माँ की चिंता को अतिरंजित देखभाल समझा, उनके विश्वास की कमी। बहस हुई। शब्द कठोर हुए।

अदिति ने अपने अधिकार पर ज़ोर दिया, सुप्रिया ने ज़िम्मेदारी और सुरक्षा की बात की। अंततः, अदिति ने अपना बैग उठाया और दरवाज़ा खटखटा दिया, यात्रा पर चल पड़ी – बिना माँ की सहमति के,

बिना उनके आशीर्वाद के। उस क्षण, एक अदृश्य रेखा धुँधली पड़ गई थी – **रिश्तों की मर्यादा की वह सूक्ष्म पर सुदृढ़ सीमा, जो सम्मान और विश्वास के ताने-बाने से बुनी होती है**।

मसूरी की ठंडी हवा और खूबसूरत नज़ारे भी अदिति के मन के भारीपन को न हटा सके। हर फोन कॉल, हर मैसेज माँ से बचने का प्रयास बन गया। मीनाक्षी का साथ भी उस अकेलेपन को न भर सका जो माँ के मौन नाराज़गी ने छोड़ा था।

वह सप्ताह उत्साह के बजाय अपराधबोध के साये में बीता। **मर्यादा का उल्लंघन केवल एक क्षणिक विद्रोह नहीं था; वह एक दरार थी जो उसके हृदय की दीवार पर चुभ रही थी**।

घर लौटने पर, वातावरण बर्फ़ जैसा ठंडा था। सुप्रिया ने खाना बनाया, कपड़े धोए, सब कुछ किया – पर उनकी आँखों में वह स्नेहिल चमक नदारद थी। बातचीत औपचारिक, सतही। “खाना खा लो।” “कॉलेज कैसा रहा?” उनके शब्दों में एक खालीपन था,

जैसे स्नेह की डोर ढीली पड़ गई हो। अदिति को एहसास हुआ – **अनुमति न लेना केवल एक छोटी-सी गलती नहीं थी; यह उस विश्वास की नींव को हिला देने वाला धक्का था, जिस पर उनका रिश्ता टिका था**। माँ का यह मौन विरोध, यह भावनात्मक दूरी, किसी चिल्लाहट से कहीं अधिक पीड़ादायक थी।

कई दिन बीत गए। एक शाम, जब सुप्रिया टेरेस पर पौधों को पानी दे रही थीं, अदिति का धैर्य टूटा। आँसू उसकी आँखों में उमड़ आए। उसने पीछे से माँ को कसकर पकड़ लिया, उसका सिर माँ की पीठ पर टिक गया।

“मुझे माफ़ कर दो, मम्मी,” उसकी आवाज़ काँप रही थी, “सच में माफ़ कर दो। मैं… मैं समझ गई।”

सुप्रिया का हाथ रुका। उन्होंने धीरे से अदिति का हाथ थामा, उसे अपने सामने खींचा। उनकी आँखों में भी नमी थी, पर चेहरे पर एक गहरी थकान और… राहत।

“बेटा,” उनकी आवाज़ में एक कंपकंपी थी, “रिश्ते सिर्फ़ प्यार के धागे से नहीं बंधे होते। उनमें *सम्मान* की डोर भी होती है, *विश्वास* की गाँठ भी। जब तुमने बिना पूछे चली जाना चुना, तो तुमने सिर्फ़ मेरी बात नहीं टाली, तुमने मेरे डर, मेरी चिंता, और… मेरे अधिकार को भी अनदेखा कर दिया। तुम्हारी सुरक्षा और भलाई की ज़िम्मेदारी मेरी भी तो है, न?”

अदिति सिर झुकाए सुनती रही। माँ के शब्द उसके दिल में उतर रहे थे। **यह मर्यादा का ताना-बाना था – एक दूसरे की भावनाओं, चिंताओं और स्थान का आदर। यह दबाव नहीं, साझा समझ की नींव थी।**

“मैं जानती हूँ तुम बड़ी हो रही हो, अदिति,” सुप्रिया ने उसके गाल पर हाथ फेरा, “पर बड़े होने का अर्थ है *ज़िम्मेदारी से* आज़ाद होना, न कि बेरोकटोक। हर रिश्ते की अपनी मर्यादा होती है – माँ-बेटी की, पति-पत्नी की, मित्रों की। उस रेखा का सम्मान ही उसे सुंदर और स्थायी बनाता है। उसे पार करने पर, रिश्ता भले ही टूटे न, पर उसकी चमक अवश्य फीकी पड़ जाती है।”

उस शाम, माँ-बेटी के बीच सिर्फ़ शब्द नहीं बहे, आत्माओं का मेल हुआ। अदिति ने समझा कि **मर्यादा स्वतंत्रता का विरोधी नहीं, उसकी सुरक्षा-कवच है। यह प्यार को सही दिशा देने वाली मार्गदर्शिका है**। उनकी चुप्पी टूटी,

न केवल शब्दों से, बल्कि पुनर्जीवित विश्वास और गहरे सम्मान से। रसोई की गर्माहट फिर लौट आई, और खिड़की से झाँकती शाम की लालिमा अब उदास नहीं, बल्कि एक नई शुरुआत की गवाह बनी। उन्होंने महसूस किया कि **उस अदृश्य रेखा का पुनर्निर्माण हुआ था

– अब और भी मज़बूत, समझ और प्रेम के नए सूत्रों से गुथा हुआ।** रिश्तों की यही मर्यादा उन्हें महज़ परिचितों से परिवार बनाती है, और परिवार को जीवन भर का आधार।

डॉ० मनीषा भारद्वाज 

ब्याड़ा (पालमपुर )

हिमाचल प्रदेश ।

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