संध्या की हल्की धूप आंगन में बिखरी थी। पुरानी हवेली के झरोखों से रोशनी छन-छनकर भीतर आ रही थी, जैसे समय खुद थम गया हो। उसी हवेली के एक कोने में बैठी थी शांत, गम्भीर और अपने ही ख्यालों में डूबी हुई सरोजनी…
वो कभी इस हवेली की रानी थी, मन से भी और प्रेम से भी। उसका पति विनोद उससे बेहद प्रेम करता था, और उसके लिए दुनिया की हर खुशी लाकर देना चाहता था।
एक बार वह अपने दोस्तों के साथ शिकार करने जंगल में गया ।वहाँ शिकार करते हुए उनको घने जंगल के बीच एक कबीला दिखा तो वे लोग कुछ दिन वहीं रुक गए ।
कबीले के सरदार ने उनकी काफी आवभगत की।सरदार की इकलौती बेटी जो बहुत खूबसूरत थी उसको देखकर विनोद उसकी सुंदरता पर मोहित हो गया और उसके साथ विवाह कर उसे घर ले आया। उस समय राजा-महाराजा और धनी व्यक्ति दो-तीन शादी भी कर लेते थे।
शादी करके जब वा हवेली पहुँचे तो सरोजनी बहुत गुस्सा हुई लेकिन विनोद तो नई_नवेली दुल्हन नैना के सौंदर्य में गिरफ्तार था।विनोद ने सरोजनी को समझाने की कोशिश की कि वह नैना को अपना ले लेकिन स्वाभिमानी सरोजनी ऐसा न कर पाई।
नैना सुंदर थी, चंचल थी, और जानती थी कि कैसे किसी पुरुष के मन को बांधना है। उसने धीरे-धीरे विनोद के जीवन में अपनी जगह बना ली। सरोजिनी की सच्ची और गहरी आत्मा की जगह अब दिखावे और मोह में जकड़ी एक नई दुनिया ने ले ली थी। विनोद को लगा कि उसने अपनी खुशी पा ली है।
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पर सरोजिनी कुछ नहीं बोली। उसने घर छोड़ दिया — बिना किसी को कुछ बताए वह शांति के साथ वहाँ से चली गई ।
उसकी आत्मा बहुत दुखाई उन दोने ने। वह मन ही मन कहती “मेरा क्या कसूर था?मेरी आत्मा को तकलीफ देकर तुम कभी सुखी नहीं रह सकते”।
सरोजनी के हवेली से जाने के बाद कुछ समय सब ठीक चला। विनोद और नैना ने एक नई जिंदगी शुरू की। हवेली में एक अलग ही रौनक आ गई, पर ये रौनक सिर्फ ऊपर-ऊपर की थी। कुछ महीनों बाद, अजीब-अजीब घटनाएँ होने लगीं। नैना को रातों में अजनबी चीखें सुनाई देतीं। दर्पण में उसे एक चेहरा दिखता — शांत, पर तीव्र आँखों वाला, जो जैसे पूछ रहा हो — “कैसा लग रहा है मेरी जगह लेना?”
विनोद की सेहत बिगड़ने लगी। उसकी आंखों में सरोजिनी की झलक बार-बार आने लगी। उसे अपनी गलती का एहसास होने लगा।वह समझ गया कि किसी की बेकसूर आत्मा की दुखाकर उसको शांति नहीं मिल सकती।विनोद नैना की सुंदरता पर तो मोहित था लेकिन उसकी गैरजिम्मेदार हरकतों से उसकी गृहस्थी डोलने लगी। विनोद में चिड़चिड़ापन आने लगा जिससे वह नैना पर हाथ भी उठा देता।
नैना भी विनोद के दुर्व्यवहार से अब टूटने लगी थी। जो जीवन उसने चाहा था, वो अब उसे डरावना लगने लगा। एक दिन वो हवेली छोड़कर चली गई — बिना कुछ कहे।
विनोद अब अकेला था। हवेली वीरान हो गई, जैसे वहां की दीवारें भी सरोजिनी को पुकार रही हों।
सरोजिनी अब पहाड़ों के एक शांत आश्रम में थी। वहाँ के फूल, नदियाँ, और पक्षी उसकी सहचर बन गए थे। उसका चेहरा शांत था — वह आत्मा जिसने धोखा सहा, पर बदले में सिर्फ सच्चाई ही दी। अब भी कभी-कभार पुराने दिनों की कड़वी यादें उसको छूती तो वह विचलित हो जाती।और वह भेष बदलकर हवेली का एक चक्कर लगा आती। सच्ची आत्मा के दुख से विनोद की आत्मा सिहर उठती है।
मीरा सजवान ‘मानवी’
स्वरचित एवं मौलिक
फरीदाबाद, हरियाणा