अरे जल्दी करो, देर हो जायेगी। उनको साड़ी भी तो ओढ़ाना है। गोपी बुआ, सब इसी नाम से बुलाते थे। पूरे मोहल्ले की बुआ थीं, तीन पीढ़ियों की खुशियों और दुखों की गवाह। किसी के यहां बच्चा हुआ हो, शादी हो, कोई त्यौहार या कुछ और काम हो, सब बुआ को याद करते और
बुआ भी सबसे पहले पहुंचकर जिम्मेदारी से काम निपटाने में लग जाती थीं। एक तो उन्हें बच्चों से भी बहुत प्यार था दूसरे सजने संवरने का शौक भी था, और सारा काम भी वह जिम्मेदारी से करती, इसलिए पूरे मोहल्ले की प्यारी भी थीं। फिर भी ये जो #स्वार्थी संसार है ना, उनके लिए बातें बनाने में पीछे नहीं रहा।
अब तो उम्र हो चली थी, इसलिए अब तो सब उनका सम्मान ही करते थे। बीस साल पहले जब बहू बन कर आई, तो उनको जिम्मेदार आदमी की तरह काम निपटाते देखा, उसके बाद दो दिन में ही बुआ चली भी गईं। धीरे धीरे नोटिस किया कि कोई उनके बारे में ज्यादा कुछ बातें नहीं करते। सासू मां से भी एकाध बार पूछा,
तो उन्होंने भी कोई दिलचस्पी नहीं जताई। धीरे धीरे पता चला पापाजी एवं माताजी, बुआ को पसंद नहीं करते थे। बुआ दादी जी के साथ पैतृक घर में ही रहती थीं। बुआ की शादी तो हुई थी लेकिन वो यहां पीहर में क्यों रहती हैं, एकाध बार पूछा तो सबने नाराजगी जाहिर की। सासू मां ने पतिदेव से कह कर बार बार बुआ के बारे में ज्यादा दिलचस्पी नहीं रखने की हिदायत दिलवाई।
कहते हैं ना धीरे-धीरे सब पता चल ही जाता है। बुआ की शादी तो हुई थी, लेकिन बाद में पता चला कि उनके पति शराबी थे और उनको कोई बीमारी भी थी, इसलिए वह फिर कभी अपनी ससुराल गई ही नहीं। हालांकि उनका तलाक भी नहीं हुआ था। बुआ को सजने संवरने का, बच्चों का बेहद शौक था,
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और यह प्यार वह रिश्तेदारों (अपने बहन भाई के बच्चों) मोहल्ले के सारे बच्चों पर खूब लुटाती थीं। वे यहीं अपने पैरों पर खड़ी होकर टीचर की जॉब करने लगी और अपने मां को भी संभालती थी। भाई भाभी ( सासू मां, ससुरजी) बाहर रहते थे नौकरी पर, एक तरह से वह भी मां की जिम्मेदारी से मुक्त थे।
यह जरूर है बुआ को सजने संवरने का बेहद शौक था, चूड़ी भरे हाथ, हमेशा मांग भरे रखती, बिंदी लगाती, उनका तलाक तो हुआ नहीं था और उनके पति भी जीवित थे, तो बाकायदा करवा चौथ का व्रत भी रखती थीं। जवान उम्र और परित्यक्ता स्त्री, उस पर सजना संवरना, हमारी सासु मां और ससुर जी को भी अखरता था।
मोहल्ले वालों की तो बात ही क्या है, किसी भी बिना पति वाली औरत पर उंगली उठाने में समाज कहां पीछे रहता है। धीरे-धीरे अब मैं भी पुरानी हो गई थी तो कभी कभी बात भी हो जाती थी। तब पता चला उन्हें सुहागन की तरह सजने संवरने का बेहद शौक था, पर भाग्य में कुछ और लिखा था।
ऐसे ही बातों बातों में उन्होंने एक दिन अपने अंतर्मन की पीड़ा मुझे बताया कि देख जब मैं मर जाऊं तो मुझे अच्छे से बनारसी साड़ी ओढ़ाना और मेरा सिंगार करके ही मुझे लेकर अंतिम विदाई देना यह मेरी ख्वाहिश है। और आज उनकी अंतिम विदाई के समय साड़ी ओढ़ाते समय मुझे अचानक ही याद आ गया,
स्त्री को सुहागन की तरह सजने संवरने का कितना शौक होता है, लेकिन फिर भी कई बार इच्छाएं ऐसी ही रह जाती हैं। कुछ समाज के कारण, कुछ भाग्य के कारण। और आज मैं सासू मां से कहकर अपनी मर्जी से उनकी अंतिम विदाई पर उनकी यह इच्छा पूरी करने के लिए आ ही गई हूं।
उनके बच्चे नहीं तो क्या, हम उनके बच्चे हैं। देर से ही सही अपनी भूल सुधारने का प्रयास तो कर ही सकते हैं। उन्होंने इस पीड़ा को झेला होगा, नहीं सासू मां! आज मैं आपकी नहीं सुनूंगी, अंत समय में तो सजायाफ्ता कैदी की भी इच्छा पूरी की जाती है, फिर ये तो अपनी थीं।
___ मनु वाशिष्ठ कोटा राजस्थान
#स्वार्थी संसार