सजावट से स्वत्व तक – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

वो हर सुबह उठते ही सबसे पहले आईने में अपना चेहरा देखती थी। एक महीन-सी मुस्कान, नपी-तुली भौंहों की कमानी, होंठों की सतर्क सजावट…

सब कुछ वैसा ही जैसी दुनिया उसे देखने की उम्मीद करती थी।

उसका नाम था—सुगंधा।

बचपन से ही वो स्वयं के लिए ‘खूबसूरत’ शब्द ही सुनती बड़ी हुई थी। कोई कहता, “इसे देखो तो आँखें चौंधिया जाती है, कोई कहता है, “पूर्णिमा की चाँदनी है तो ये तो।” उसकी माँ अतिश्योक्ति ही कर देती, कहती—”तेरे नैन-नक्श जैसे राधा रानी ने स्वयं गढ़े हों।” पिता गर्व से पड़ोसियों को बताते—”हमारी बेटी मिस इण्डिया बनेगी।” स्कूल की लड़कियाँ उसका चेहरा देखकर मेकअप करना सीखतीं, लड़के उससे बात करने के बहाने ढूंढ़ते।

उसका सौंदर्य उसकी पहचान ही नहीं उसकी जिम्मेदारी बनता चला गया। हमेशा परफेक्ट दिखना उसकी मजबूरी हो गई थी, अब वो सिर्फ सुगंधा नहीं थी—वो थी एक चलती-फिरती उम्मीद, एक नुमाइश।

धीरे-धीरे वह जान गई थी—उसका सौंदर्य उसके शरीर का नहीं, समाज की दृष्टि का विस्तार है। वह चलती-फिरती परिभाषा बन गई थी, उस स्त्री की जिसे सुंदर कहा जाए। वह अब सुगंधा नहीं थी—वह एक ‘आकृति’ थी, एक उम्मीद थी, कब वह प्रसाधन-पात्र हो गई, ये स्वयं उसे भी पता नहीं चला।

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कॉलेज में उसने अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ा, पर असल साहित्य उसकी ज़िंदगी में उन आँखों की वो भाषाएँ थीं जो उसके रंग, चाल, बदन और बनावट को पढ़ा करतीं और टिका टिप्पणी किया करती।

एक दिन जब उसके चेहरे पर एक छोटा-सा दाना निकल आया। उसे देख उसकी माँ ने उसे सख्त ताकीद किया, “ऐसी हालत में बाहर मत निकल… लोग क्या कहेंगे।” उसने पूरा दिन कमरे में खुद को छुपाए रखा। 

 उसे पहली बार अहसास हुआ—उसका सौंदर्य उसका नहीं था। वो जैसे एक उधार लिया गया श्रृंगार था, जो हर पल को चुकाने की शर्त पर मिला था।

और उधार चाहे लिपस्टिक का हो या पहचान का—उसका भार अंततः आत्मा पर ही पड़ता है। लेकिन वो चाह कर भी उस समय प्रतिकार नहीं कर सकी। अब उसके विवाह की बात चलने लगी थी। किसी के कुछ कहने पर माता-पिता गर्व से कहता, “मेरी अफ्सरा जैसी बेटी को ढूंढते हुए लोग खुद ही आएँगे और हुआ भी ऐसा ही,  उसका विवाह हुआ ईशान कपूर से—एक प्रतिष्ठित आर्किटेक्ट, जिसकी पहली शर्त ही थी: सुंदर पत्नी। शादी के दिन सबने कहा, “वाह! क्या जोड़ी है, हीरो-हीरोइन लग रहे हैं दोनों।” ईशान गर्व से और तन गया था और सुगंधा इठला उठी थी। शादी के प्रारंभ के कुछ महीने एक इत्र की तरह मोहक थे—लेकिन जैसे हर इत्र उड़ता है, यह आकर्षण भी उड़ गया। बचा तो बस एक चित्र, एक दिखावा, जिसमें हर दिन उसके बालों की लटें, होंठों का रंग, शरीर का वज़न तौला जाता था, जिसे हर दिन नया चमक देना अनिवार्य था।

ईशान का प्यार अब टोनर, फाउंडेशन और नखरे तक सीमित रह गया था। वो कहता—“प्लीज़, थोड़ा और फिट रहो न… मेरी पत्नी का फिगर ऐसी होनी चाहिए कि तो हर पार्टी में उसकी चर्चा हो!” कभी कहता, “टाइम से बॉडी वैक्सिंग करवाया करो, … या “बाल थोड़े और सीधे करवा लो न… कर्लीपन आउटडेटेड लगता है।” सुगंधा को अपने जिस कर्ली बाल से बेइंतहा प्यार था, उसे सीधे करवाते हुए वह रो पड़ी थी।

सुगंधा को महसूस होने लगा था, वह अब पत्नी नहीं, प्रदर्शन का शोपीस बन चुकी थी। उसे यह भान होने लगा था कि उसकी सुंदरता, जिसे वह अपना समझती थी, असल में उसकी थी ही नहीं। यह एक उधार ली हुई किसी किताब की तरह थी, जिसे हर समय चमकाकर रखना होता है, लेकिन जिसके पन्नों पर अपने मन की कोई इबारत नहीं लिखी जा सकती, वहाँ पहले से ही किसी के भाव लिखे होते हैं।

शादी की तीसरी सालगिरह पर पार्लर से लौटते हुए, उसकी गाड़ी एक झुग्गी के पास रुकी। वहीं एक औरत थी—थकी, साँवली, पर गोद में बच्चे को लिए हँस रही थी। उसने कितनी बार ईशान से बच्चे के लिए बात की थी, लेकिन ईशान उसकी सुंदरता का हवाला देते हुए बात को इग्नोर कर देता। 

सुगंधा अपलक दोनों को निहारती रही।

उसे लगा उसने पहली बार एक ऐसा चेहरा देखा, जो समाज के लिए भले सुन्दर नहीं थी लेकिन उसमें मातृत्व की जो रोशनी थी, वो हर आईने से ज़्यादा पारदर्शी थी। उस हँसी में न कोई प्रसाधन था, न कोई संकोच था और वह सचमुच सुंदर कहलाने लायक थी। 

रात को आईने के सामने खड़े होकर उसने खुद से पूछा—“मैं हँसती कब हूँ?”

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अब हर रात वो खुद से पूछती—

क्या मैं सुंदर हूँ, या बस ‘दिखाई’ देती हूँ?

क्या मैं चाहती हूँ कि लोग मुझे चाहें या मुझे समझें?

क्या मैंने कभी खुद को बिना मेकअप के देखा है?

ईशान को उसका यह बदलता स्वर अखरने लगा। एक दिन उसने कहा—”तुम बहुत नेगेटिव हो गई हो यार, काउंसलर को दिखाओ।”

सुगंधा चुप रही। लेकिन उस रात उसके भीतर एक निर्णय चुपचाप आकार ले रहा था।

अगले सप्ताह उसने सोशल मीडिया पर बिना मेकअप वाली तस्वीर डाली। नीचे सिर्फ एक पंक्ति थी:

“ये मैं हूँ—थकी, टूटी, लेकिन अब झूठी नहीं।”

कुछ तारीफें आईं, कुछ तंज भी। एक महिला ने कमेंट किया—”हिम्मत चाहिए ऐसा करने के लिए। मैं भी करना चाहती हूँ, लेकिन डरती हूँ।”

सुगंधा ने जवाब दिया:

“डर पहला दरवाज़ा है। खुलते ही भीतर अपना चेहरा मिलता है—सच वाला। सौंदर्य कभी चेहरे में नहीं होता—वो तो उस नज़र में होता है, जो उसे देखती है और जब नज़रें समाज के साँचे में ढली हों, तो हर असलियत धुँधली हो जाती है।”

उसने ब्लॉग शुरू किया—”नकाब से आगे”—जहाँ वह उन स्त्रियों की कहानियाँ लिखती, जो सुंदरता के भार तले दबकर साँस लेना भूल गई थीं।

सुगंधा ने लिखा, “शुरुआत हमेशा एक आँसू से होती है। फिर वही आँसू आँखों का काजल बन जाता है।”

ईशान ने यह सब देखा। उसे लगा उसकी छवि खराब हो रही है। एक दिन झुंझलाकर बोला—

“तो अब तू समाज सुधारक बन गई है? तुझे जो मिला, वो लाखों को नहीं मिलता और तू वही त्याग रही है?”

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सुगंधा ने उसकी आँखों में देखकर धीरे से कहा—

“मुझे जो मिला… वो शीशा था। अब मैं पत्थर बनना चाहती हूँ—ताकि जब टूटूँ, बिखरूँ नहीं, सख्त रहूँ।”

उस रात उसने ईशान से अलग होने का निर्णय ले लिया। बिना शोर, बिना आँसू, बिना शिकायत। बस, जैसे नदी किसी चट्टान को चुपचाप पार कर जाती है।

आज सुगंधा एक महिला आश्रम में बच्चों को पढ़ाती है। वहाँ कोई दिखावा नहीं है, लेकिन चेहरे पर उजाला है।

कभी-कभी वो अकेले आईने के सामने खड़ी होती है—बिना मेकअप, बिना सजावट के मुस्कान के साथ और खुद से कहती है, “जब कोई औरत अपना ही चेहरा नए अर्थों में रचती है, तब वो सिर्फ खुद को नहीं, अगली पीढ़ियों को भी आज़ाद करती है। दिखावे की दुनिया से दूर अब तुम सच में सुंदर लगती है।”

आरती झा आद्या 

दिल्ली 

#दिखावे की दुनिया

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