राजेश एक स्कूल में गणित का शिक्षक था। ईमानदार, सादा जीवन-उच्च विचार और अपने छोटे से परिवार में बेहद खुश। घर में माँ, पत्नी, एक बेटा और पुरानी किताबों की अलमारी—बस यही उसकी दुनिया थी।
वह बचपन से ही पढ़ाई में अब्बल रहा लेकिन लोभ-लालच से वह सदा ही दूर रहा।लोगों की मदद करना उसे अच्छा लगता था।उसका जन्म भले ही एक साधारण परिवार में हुआ लेकिन दैनिक जरूरतें पूरी हो जाती थी।उसकी माता जी साधारण मगर उसूलों की पक्की महिला थी।उन्होंने अपने बच्चों (एक बेटा-एक बेटी) को बहुत अच्छे संस्कार दिए थे।
जब बच्चे पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खड़े हो गए तो दोनों की शादी कर दी और आज वे अपने-अपने घरों में सम्मान और सुकून की जिंदगी जी रहे थे।
वे खुद बहुत कर्मठ ,परिश्रमी और स्वाभिमानी महिला थी तो बच्चों में भी वही गुण आए।
वे सब मिल-जुलकर मेहनत करते,उनका जीवन हँसते-खेलते बीत रहा था कि
एक दिन राजेश के बचपन का दोस्त विक्रम शहर आया। अब वह एक बड़ा बिज़नेस मैन था—महंगी गाड़ी, ब्रांडेड कपड़े, और घमंड उसकी आँखों में साफ़ झलकता था। उसने राजेश का मज़ाक उड़ाया, “अभी भी वही पुराने ख्यालों में जी रहा है तू? पैसा ही सब कुछ है भाई!”
राजेश मुस्कुराया, “पैसा ज़रूरी है, पर संतोष उससे भी ज़्यादा जरूरी है मेरे भाई।”
विक्रम ने बातों-बातों में राजेश को अपने साथ पार्टनरशिप का ऑफर दिया। पहले तो राजेश झिझका, पर बेटे के भविष्य के लिए उसने हाँ कह दी।
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माँ और पत्नी ने उसे बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन वह दोस्त के झाँसे में आ गयाऔर उसी की राह चलने लगा।
धीरे-धीरे पैसे की चमक ने राजेश को बदलना शुरू किया। अब वह स्कूल छोड़ चुका था। किताबें अलमारी में धूल खाने लगीं और रिश्ते भी। अब घर में पहले जैसी बातें नहीं होतीं, अब सिर्फ़ मुनाफे और नुकसान की बातें होतीं। उसके पास अपने घर वालों के लिए समय ही नहीं था। वह कभी इस शहर तो कभी दूसरे शहर चक्करघिन्नी की तरह घूमता रहता।
इस बीच माँ भी चल बसी।अथाह धन सबका दिमाग खराब कर देता है तो उसके बेटे का भी पढ़ाई में मन न लगता।वह भी अपने रहीश दोस्तों के साथ पार्टीज में व्यस्त रहता ।राजेश की पत्नी बेटे को समझाने की कोशिश करती तो वह माँ को ही समझाने लगता और राजेश भी पत्नी को ही नसीहत देने लगता कि “जीने दो उसे अपनी जिंदगी,अभी मौज-मस्ती नहीं करेगा तो कब करेगा?”
उसकी पत्नी मन-मसोस कर रह जाती थी।
दोनों बाप-बेटे पैसे की चकाचौंध में अंधे हो गए थे।सब अपनी ही दुनिया में मस्त रहते।
ऐशो-आराम की लत ऐसी लगी कि वह अब सिगरेट-दारू भी पीने लगा। घर से सुकून तो मानो ” दुम दबाकर भाग” चुका था।
अब केवल घर में धन और ऐश्वर्य का सामान था।अपनापन और सौहार्द तो “दम ही तोड़” चुके थे।
कई-कई दिनों तक समयाभाव के चलते पति -पत्नी में आपस में बात ही नहीं हो पाती थी। वैसे तो दिखावे के बहुत दोस्त थे लेकिन अपनापन किसी में भी खोजे नहीं मिलता था ।
कभी-कभार पत्नी राजेश को समझाने की कोशिश भी करती तो राजेश उसे बहला-फुसलाकर या गुस्से में अपनी बात मानने को मजबूर कर देता।
वह अपनी इकलौती बहिन से न जाने कब से नहीं मिला था वह जब कभी घर आती तो राजेश अपने काम में व्यस्त होता,वह बहिन को भी कोई तोहफा देकर अपनेपन की इतिश्री कर देता।
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उसकी बहिन अपने प्यारे भाई के प्यार के लिए तरसती ही रह जाती।वह भाभी से कहती भी कि भाई को समझाए लेकिन दोनों ही भली-भाँति जानती थी कि इस समय धन की पट्टी जो राजेश की आँखों पर बंधी है उसके आगे उसे कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा है।
फिर एक दिन विक्रम भाग गया—सारा पैसा लेकर। राजेश को दिवालिया होने में वक़्त नहीं लगा। अब न दोस्त थे, न इज़्ज़त, न शांति। खोखलापन और पछतावा ही शेष रह गया ।
एक दिन पुराने स्कूल से बुलावा आया—”हमारे बच्चों को फिर से वही सच्चाई और मूल्य सिखाने वाला गुरु चाहिए।”
राजेश लौट आया… टूटी हुई उम्मीदों के बीच फिर से कुछ नया बोने। अब वह समझ चुका था—धन कभी भी आत्मा की भूख नहीं मिटा सकता। वो तो बस मन को भ्रमित करता है, और कई बार… खुद से भी दूर कर देता है।
मीरा सजवान ‘मानवी’
स्वरचित एवं मौलिक