शिवदत्त और बलवन्त दो भाई थे, जो माता-पिता की छत्रछाया में खेती किसानी का काम करते थे। बलवन्त बड़ा था और शिवदत्त छोटा था। बलवन्त के चार बेटे थे। उनकी पढ़ाई में जरा भी रूचि नहीं थी, एक बहिन थी लीला जो शिवदत्त के बेटो से हमेशा ईर्ष्या करती थी, क्योंकि शिवदत्त के दोनों बेटे पढ़ने में बहुत होशियार थे, और पूरा गॉंव उनकी तारीफ करता था। शिवदत्त बहुत सीधा- सीधा था, और अपने माता-पिता, भाई-भौजाई सभी का आदर करता था। उसका अपने भाई पर अटूट विश्वास था
वह उनकी हर बात मानता था। समय के साथ दोनों के बच्चे बड़े हुए। बलवन्त के दो बेटो और बेटी की शादी हो गई। शिवदत्त के बेटे सोहन ने स्नातक की डिग्री प्राप्त की और उसकी सरकारी शिक्षक की नौकरी लग गई। घर पर सब खुश थे मगर लीला को यह रास नहीं आ रहा था। शिवदत्त का छोटा बेटा मोहन भी बारहवीं कक्षा में आ गया था। अब बलवन्त के बेटों को भी अखरने लगा था, कि काका के दोनों बेटों की नौकरी लग जाएगी और उनकी कमाई तो बहुत बढ़ जाएगी। गॉंव में सब उन्हीं का सम्मान करेंगे।
अब वे अपने पिता से कहने लगे कि पिताजी काका के तो दोनों बेटों की नौकरी लग जाएगी, हमें तो हमारा गुजारा इस खेती किसानी से ही करना पड़ेगा। आप दादाजी से कहकर जमीन अपने नाम करवा लीजिए। चाहता तो बलवन्त भी यही था, मगर अपने पिता से कहने की हिम्मत नहीं थी। जीवन ऐसे ही चलता रहा । बलवन्त के दोनों बेटों की और शिवदत्त के बड़े बेटे की शादी हो गई। मोहन की बैंक में नौकरी लग गई। जब तक माता -पिता रहैं तब तक सब सामान्य गति से चलता रहा। समय के साथ माता-पिता का देहांत हो गया। शिवदत्त निश्चिन्त था कि उसके ऊपर उसके भैया भाभी का छत्र है।
एक बार लीला ससुराल से मायके आई तो उसने अपने पिता से कहा पिताजी आप तरकीब से खेती बाड़ी जमीन अपने नाम करवा लो, काका आपकी बात नहीं टालेंगे। मेरे चारों भाइयों का परिवार बढ़ेगा तो गुजर बसर कैसे होगी? चारों भाइयों ने भी उसका साथ दिया, और एक दिन बलवन्त का ईमान भी डोल गया। उसने धोके से जमीन जायदाद के कागज पर शिवदत्त के हस्ताक्षर करवा लिए। उसने सहज भाव से कर दिए उसे अपने भाई पर विश्वास था। मगर इतनी बड़ी बात छुपाए नहीं छुपती, एक दिन शिवदत्त को
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अपने एक मित्र से पता चला कि तुम्हारे भाई ने सारी जमीन अपने नाम करवा ली है तो शिवदत्त को विश्वास नहीं हुआ तब उसके मित्र ने उसे रजिस्ट्रार ऑफिस ले जाकर सारे कागजात बताए। शिवदत्त को बहुत दु:ख हुआ। अब उसका मन गॉंव में नहीं लग रहा था । उसने अपना मकान बेचा और शहर में अपने बेटों के पास चला गया और वहाँ मकान ले लिया। किस्मत से दोनों बेटे एक ही शहर में नौकरी कर रहै थे। बेटो को भी बुरा लगा मगर शिवदत्त ने उनसे कह दिया कि बेटा ताऊजी से कुछ कहने की जरूरत नहीं है, “ये धन-संपत्ति ना..अच्छे -अच्छो का दिमाग खराब कर देती है।
” तुम कमा रहै हो ईमानदारी से कमाओ और अपनी गृहस्थी को सम्भालो। शिवदत्त के दोनों बेटे आज्ञाकारी थे। मोहन के लिए एक धनाड्य परिवार का रिश्ता आया था। रजनी पढ़ी- लिखी खूबसूरत लड़की थी। उसके पिता का कहना था कि घर छोटा है अत: वह अपनी बेटी-दामाद को अलग घर बनाकर देना चाहता है। शिवदत्त ने फैसला मोहन के ऊपर ही छोड़ दिया। मोहन ने कहा- ‘पापा दौलत से खुशियाँ नहीं खरीदी जाती, अगर रजनी इस घर में आप सबके साथ सामंजस्य बनाकर रहना चाहती है, तो मुझे आपत्ति नहीं है, एक घर का बटवारा और उसका दर्द में झेल चुका हूँ
अब और नहीं। मैं आप सबके साथ ही रहना चाहता हूँ। आपने ही कहा था ना कि” ये धन-संटत्ति ना..अच्छे -अच्छो का दिमाग खराब कर देती है” मुझे इसके चक्कर में पढ़कर अपने परिवार से अलग नहीं होना है। मैं हमेशा अपने भैया भाभी के साथ रहूँगा।’ शिवदत्त की बूढ़ी ऑंखो मे चमक आ गई थी। सोहन ने आगे बढकर मोहन को गले से लगा लिया और बोला -‘भाई तुझसे दूर रहने के बारे में तो मैं सोच भी नहीं सकता। हमारे पास जो होगा मिल बाट कर खाऐगे और हमेशा साथ रहेंगे।’ शिवदत्त के घर में स्नेह, प्यार, विश्वास , संतोष का अनमाेल खजाना था, इसके आगे उनके लिए सारी दौलत फीकी थी।
प्रेषक
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
#ये धन-संपत्ति ना..अच्छे -अच्छो का दिमाग खराब कर देती है