सुबह घर में किचन का काम बहुत जोरों-शोरों से चल रहा था। किचन से कोसों दूर रहने वाले सठियाए पति (60+), जिन्होंने कल तक (अपनी युवावस्था में ) कभी बाजार से एक साथ लाई गई सब्जियों को अलग-अलग करके फ्रिज में नहीं रखा था आज गिराते-पटकते सब्जी काट रहे थे।
प्याज काटने की बारी आई तो आंखों से लबालब पानी तथा मुंह से सी-सी की सीटियां बजने लगीं। किचन-अभ्यस्त सठियाई पत्नी ने उनके हाथ से प्याज लेकर बिना किसी व्हीसल और आंसू के खुद काटना शुरू कर दिया और घूरती निगाहों से पति को गैस पर चढ़ाए दूध पर दृष्टि बनाए रखने के लिए कह दिया। पति महोदय ने थोड़ी चैन की सांस ली।
अब नाश्ते के बाद परिदृश्य बदला !
गृहकार्य सहायिका दो दिन से छुट्टी पर थी । सठियाई पत्नी(60+) ने वाशिंग मशीन में से कपड़े निकाले। उसके कंधे और घुटनों के दर्द ने सठियाए पति को आवाज लगाई और टोकरी को छत पर रख कर आने को कहा। वे कपड़ों की टोकरी को न केवल छत पर पहुंचा आए ,अपितु सभी कपड़ों को तार पर सूखने के लिए भी डाल आए।
उन्हें खाली टोकरी उठाए छत से नीचे आते देख कर सठियाई पत्नी को अपने विवाह का ‘यौवन’ याद आ गया। एक बार अपनी नौकरी के दौरान उसे अति विवशता वश उन्हें बिटिया के कतिपय अति आवश्यक वस्त्र छत पर सूखने के लिए डालने को कहना पड़ा था। वे भुनभुनाते हुए एक-दो वस्त्र डाल कर तुरंत नीचे आ गए थे और बाकी कपड़े न फैलाने का कारण पूछने पर उनका जवाब था,
‘मुझे तार पर कपड़े डालते समय सामने की मिसरानी घूर-घूर कर देख रही थी।’
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तब पत्नी ने अपने माथे पर हाथ मारते हुए उन्हें बताया था , ‘अरे ! मदद नहीं करनी तो साफ बोलो न ! बहाने क्यों बनाते हो ? उस मिसराइन का ‘मिसरा’ तो रोज ही घर के सारे कपड़े सूखने डालता है। ‘ खैर…
दोपहर को परिदृश्य फिर बदला !
सठियाए पति ने आंखों वाली दवाई की शीशी पत्नी को पकड़ाई, ‘जरा अंतिम तिथि तो पढ़ो इसकी,कुछ ज्यादा ही बारीक लिखी है।’
‘तो मेरी नज़र कौन सी तुम्हारे से अधिक तेज है’ बड़बड़ाते हुए पत्नी ने तारीख पढ़ कर ‘ठीक है’ कहते हुए उन्हें शीशी लौटा दी।
‘अब पास ही खड़ी हो ,तो तुम ही मेरी आंखों में दवाई डाल दो। डालते-डालते कितनी तो मुझसे आंखों के बाहर ही गिर जाती है।’
कुछ ही क्षणों में वे बौखलाए हुए से फिर उसके निकट आए, ‘आंखों में दवाई डालने के चक्कर में अपना चश्मा न जाने कहां रख दिया मैंने ? तुम ही ढूंढ तो जरा !’
और सठियाई पत्नी खिलखिला कर हंस पड़ी,’ लेकिन चश्मा तो तुमने पहन रखा है।’
और ‘ओह ! मैं भी न ! तभी न कहता हूं कि अब तुम ही मेरा चश्मा हो।’ कहते हुए वे खिसियाकर अपने कमरे में चले गए।
शाम का एक अन्य परिदृश्य !
‘कहां हो ? तैयार नहीं हुई अभी ? सैर पर नहीं जाना ?’
‘नहीं ! आज मैं बहुत थक गई हूं। आराम करना चाहती हूं।’
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‘ लेकिन डॉ.ने सैर जरूरी बताई है तुम्हें। चलो छोटा चक्कर लगा आएंगे।’
‘नहीं ! आज आप अकेले लगा आओ अपना चक्कर ,तब तक मैं रात के खाने की व्यवस्था कर लूंगी।’
‘चलो छोड़ो फिर ! मैं अकेला पार्क में कहां भटकता फिरुंगा। कल सुबह चलेंगे।’
और सठियाई पत्नी के मुख पर एक मधुर मुस्कान थी कि ‘बीत गयी सो बात गई।’ ताउम्र केवल ‘अपने आप’ और अपनी नौकरी में ‘मस्त-अति व्यस्त’ यह सठियाया व्यक्ति अब ,विवशता कहो या समझौता, अपना शक्ति क्षरण कहो या फिर मेरे प्रति सहानुभूति,या फिर इसे पारिवारिक सामंजस्य ही क्यों न कह लिया जाए, कम से कम मेरे आस-पास तो है।
हमारा यह ‘सठियाना’ तो सचमुच मुझे लिए रास आ गया।
दरअसल ढलान की ओर अग्रसर आयु के गुजरे हुए ‘कल’ की आपाधापी से अलग ‘आज’ का एक यह सकारात्मक पक्ष भी है।
उमा महाजन