#ख़्वाब
एक ज़माना था जब माँएँ बेटों की ही चाह करती थी। एक कुलदीपक ही वंश को तार सकता है। जन्मदात्री का मानो कोई रोल ही नहीं। कौशल्या व देवकी नहीं होती तो राम व कृष्ण कैसे होते ?
बालसुलभ रुचियों का, ख़्वाबों का भी एक अनोखा संसार है। नए सपने अजब गजब से, बेतुके ख़्वाब कोई सीमा नहीं। कोई खिलौनों व मित्रों के साथ गपशप में मस्त रहते हैं तो किसी को गुड़ियों को सजाने में मजा आता है। परंतु मेरे अनमोल खिलौने थे परियों सी खिलखिलाती नन्हीं मुन्नी बच्चियाँ। बस मुझे ये कहीं भी मिल जाती पड़ोस या रिश्तेदारी में, उन्हें बहलाना व उनका ध्यान रखना मेरी दिनचर्या बन जाती थी।
विवाहोपरांत मेरा सपना था कि मेरी प्रथम सन्तान बेटी ही हो। माँ बनने का अहसास होते ही मैं आश्वस्त थी कि एक नाज़ुक सी जुही कली ही मेरी बगिया में महकने वाली है। दिनरात सुंदर परियों के चित्रों से घिरी रहती और उन्हीं के ख़्वाबों में खोई रहती थी। उहू… मैनें लड्डू गोपाल या कोई और सुंदर से बच्चों की तस्वीरें कमरे में नहीं लगाई थी।
मेरे दिलो दिमाग़ में तो एक परी सी गुलाबी गुड़िया जो सैर कर रही थी। दिनरात उसी के ख़्वाब देखा करती थी। मुझे कहीं से प्यारी सी बच्ची को गोद लिए एक माँ की तस्वीर मिल गई। शायद वो मदर मेरी की फोटो थी जीसस को अंक में लिए। लेकिन मैं जीसस के स्वरुप में मेरी परी की कल्पना करती रहती थी। नाज़ुक सी गुलाबी देह, रेशमी केश,तीखे नैन नक्श व गोल-मटोल मुखड़ा। ऐसी थी वो तस्वीर।
मेरी भी गोद भराई हुई। सासू माँ ने एक स्वस्थ बेटे की माँ से शगुन करवाया। यही आशा लगाए थे सब कि पुत्ररत्न की ही प्राप्ति होगी।
उसी दौरान मेरी मौसेरी बहन को बेटे हुआ। और मुझे मिल गई मेरी परी। घर के बड़े बुजुर्गों की प्रतिक्रिया थी, ” ये कैसा ईश्वर का न्याय ? दोनों बहनें साथ साथ पली बढ़ी, एक को बेटा व दूसरी को बेटी क्यूँ ? ” किन्तु मेरी खुशी तो सातवें आसमान पर थी। मेरे मन की मुराद जो पूरी हो गई थी।
अपनी परी को अभी जी भरकर निहारा भी नहीं था क्योंकि उसे नर्सरी में एक काँच के बॉक्स में रखा था। अन्य नवजातों की तरह वह रोई जो नहीं थी। शायद मुझे हँसाने वाली ने रोना मुनासिब नहीं समझा हो। लोग बेबी की तारीफ़ के पुल बाँध रहे थे। चाँदी सा रंग व सोने जैसे बाल…सब कुछ वैसा ही, जैसा मैंने सोचा था। और उसके पुलिसवाले पापा को हिदायतें मिल रही थी कि बेटी के आगे पीछे गार्ड्स रखने होंगे। पापा ने तो पूरे कस्बे की मिठाई खरीद कर बटवा दी थी। मैंने परी का नाम रखा सोनिया।
मेरी परीकथा अभी अधूरी है। इस कहानी की दो और कड़ियाँ शेष हैं। परी को एक प्यारा सा भैया रूपल मिला। दोनों के ब्याह सम्पन्न हुए। मेरी परी अब स्वयं भी माँ बननेवाली थी। दामाद का तर्क था कि बेटी ही दो कुलों की धुरी होती है।
वही रिश्तों के सफ़ल निर्वहन तथा परस्पर सामंजस्य बनाए रखने की मजबूत कड़ी है। और मेरी परी को भी बेटी कोपल का उपहार मिला। नानी बनने पर मेरी खुशी क्या बताऊँ, कोई सीमा नहीं। और पहुँच गई अपने कार्यस्थल पर मिठाई का टोकरा लिए। मिठाई के एवज में सुनने को मिला, ” अच्छा जी तो नाती आया है, बधाई हो। ” ऐसा ही होना था क्योंकि मिठाई खिलाने का रिवाज़ पुत्रजन्म पर ही है समाज में।
अरे रे! रुकिए अभी एक कड़ी और शेष है जो मेरी बहु ने रची थी। मेरी सभी परिचित सखियाँ दादियाँ भी बन चुकी थी। तमाम नाती पोते वालियों को सौभाग्यशालिनी की उपाधि मिल चुकी थी। मुझे भी लोग तसल्ली जताने से कहाँ चूकने वाले थे, ” चलो बेटे को ना सही, बहू को अवश्य बेटा होगा। “
परन्तु ढेरों खुशियाँ लिए तीसरी परी पँखुरी को ही आना था। फ़िर मैंने सबका मुँह मीठा कराया और वही जुमला सुनने को मिला, ” क्या पोता हुआ है ? ”
अब मेरी तीनों परियाँ बड़ी हो चुकी हैं। आज की परिस्थितियों को मद्देनजर रखते हुए मुझे लगता है कि मासूमियत व परियों सी लावण्यता अभिशाप बनने लगी है।
डरावने ख़्वाबों ने बेटियों वाले अभिभावकों की नींदे उड़ा रखी है। कब क्या घटित हो जाए कह नहीं सकते हैं। कई तो बेटियाँ इसीलिए नहीं चाहते कि उन्हें दरिंदों से कैसे बचाएँगे ? घर में भी ये लाड़ली परियाँ सुरक्षित कहाँ है ? मूल्यों व संस्कारों के घटते स्तर से संस्कृति में ही पैबंद लग गए हैं। सभ्यता तार तार हो रही है।
अब मेरे ख़्वाबों का विषय यही रहता है कि सारे बेटे भी संस्कारित हो जाएँ। और सारी परियाँ निर्भय हो स्वच्छंदता से आगे बढ़े, अपनी उड़ानें भरे। ख़्वाब देखा है तो पूरा भी अवश्य होगा। कलाम भी कह गए हैं न, “सपने देखेंगे तभी तो पूरे होंगे”। तो लगे रहो मुन्ना भाई। मैंने भी यह ख़्वाब देखना छोड़ा नहीं है।
सरला मेहता
इंदौर म प्र
स्वरचित
अप्रकाशित
सोनिया