अब तू कॉलबेल बजा कर , घर से बुलाकर सब्जी बेचेगी मुन्नी बाई……कढ़ाई में तेल चढ़ाई हूं जल जाएगा ……अच्छा बता क्या है …..? आराधना ने खीझते हुए पूछा …. मेमसाहब सरसों का साग है… ले लीजिए…. अरे नहीं नहीं मुन्नी बाई , आज नहीं लूंगी ….थोड़ा जल्दी में हूं और वैसे भी कौन बीनेगा चुनेगा … मेरे आंख से अच्छे से दिखाई भी नहीं देता है , चश्मा लगाने के बाद भी….!
मैं बीन चुन दूंगी आप सिर्फ धो कर बना लीजिएगा… मुन्नीबाई ने झट से कहा… ये तो बता मुन्नीबाई… तुझे तो अच्छे से दिखाई देता है…हां मेमसाहब , तो क्या मैं कोई ऐसे वैसे थोड़ी ना चुनूंगी ….एकदम से साफ सुथरा करके साग दूंगी आपको…।
वाह मुन्नीबाई…बूढी हो गई है लेकिन आंखों की रोशनी एकदम साफ है… आराधना ने भी मुन्नी बाई की प्रशंसा करते हुए आगे कहा ….अच्छा रुक जा… मैं गैस बंद करके आती हूं ….लेकिन तू आज फिर सब बेचकर आखिरी में बचा हुआ साग लाई है ना…!
लंबे समय से मुन्नी बाई सब्जी बेचते आ रही है …जवान से बुड्ढी हो गई …उम्र और परिस्थिति को देखते हुए , यदि किसी चीज की जरूरत ना भी हो …फिर भी हम मोहल्ले वाले मुन्नीबाई से खरीद ही लेते हैं …उसकी खातिर…ताकि उसे भार ढोकर ज्यादा घूमना ना पड़े …एक तरह से हमारा मुन्नी बाई के लिए ये सहयोग ही होता था…!
पर मुन्नी बाई तो मुन्नी बाई है……गजब की चालाकियां अपनाती है ….. वो जानती है कुछ घरों में उसकी सब्जियों के परमानेंट ग्राहक होते हैं …. वो दया कर या सहायता के उद्देश्य से उसकी सब्जियां खरीद ही लेते हैं….
इसलिए सबसे पहले सब्जी भाजी लेकर वो उनके घर जाती है जहां उसकी पहुंच नहीं है ….या लोग उम्र , अवस्था का कोई लिहाज नहीं करते… वे तो अच्छी सब्जियां देख मोलभाव कर ही सब्जियां खरीदते हैं…!
अनुराधा सोच रही थी ये हमें बेवकूफ समझती है पर कभी-कभी जानबूझकर बेवकूफ बनने का भी अपना एक मजा है उसे सब्जी खरीद कर पैसे देकर एक संतोष सा होता है..!
” अब उसकी चालाकियां भी तो मजबूरी भरी होती है “…
अनुराधा के अंदर से टोकरी लाते तक मुन्नी बाई आराम से बैठ चुकी थी…. अनुराधा भी वही सामने बैठ गई और मुन्नी बाई के साथ बात करते-करते दोनों सरसों का साग चुनने लगे….
अनुराधा सोच रही थी… अच्छा है मुन्नी बाई का ऑफर…..साग खरीदो और चुनना बीनना फ्री में पाओ….
बातों के दौरान मुन्नी बाई ने अपने साग के गुणवत्ता का एहसास दिला दिया… अरे मेम साहब,एकदम ताजा है… ताजा…. कढ़ाई में डालते ही गल जाएगा …..मिट्टी वगैरह भी नहीं है… देखिए ना एकदम कच्चा ( कोमल ) है…
आपको तो काटने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी ….बस धोकर लहसुन मिर्च डालकर छौंक दीजिएगा नमक डाल दीजिएगा और जब पक जाएगा ना तो फिर से लहसुन मिर्च प्याज और टमाटर डालकर तड़का लगा दीजिएगा…. जीभ से चटकारा लेने के अंदाज में मुन्नी बाई ने कहा …..बस फिर देखिएगा क्या स्वाद आता है ….मुन्नी बाई के चेहरे के हाव-भाव से वाकई बनने के बाद सरसों के साग की स्वादिष्ट होने की पुष्टि हो रही थी….!
अरे मुन्नी बाई …..तू तो सरसों के साग के साथ उसकी रेसिपी भी बता डाली ….चलो अच्छा है साग के साथ रेसिपी फ्री….
अनुराधा मुस्कुराई ….फिर बोली… जानती है मुन्नी बाई …तू ना मार्केटिंग बहुत अच्छे से करती है अपने सामान का…..क्या मेमसाहब मैं समझी नहीं… कुछ नहीं मुन्नीबाई ….मेरा मतलब अपने सामान की प्रशंसा करना कोई तुझसे सीखे ….!
यदि तू प्राइवेट सेक्टर के जॉब में होती ना तो कसम से बहुत आगे बढ़ जाती या व्यवसाय में होती तो एकदम सफल महिला उद्यमी कहलाती…!
और बता मुन्नीबाई… मेरी देवरानी का क्या हाल-चाल है…? तू उनके घर गई थी साग बेचने …. वो खरीदी सरसों का साग..? उधर देवरानी भी मुन्नी बाई से जेठानी का हाल-चाल पूछ ही लेती थी… बस इतनी सी औपचारिकता मात्र बची थी…! कभी-कभी किसी उत्सव में मिलना जुलना हो जाता था…!
हां…मुन्नी बाई दोनों बहुओं को एक बात हमेशा सिखाती रही थी …अखिल भैया और निखिल भैया मां के एक ही कोख से पैदा हुए हैं …आप दोनों देवरानी जेठानी उनके कोख की लाज रखिएगा..! क्योंकि परिवार की एकता में महिलाओं का बहुत बड़ा हाथ होता है…!
मुन्नी बाई की ये बातें कभी-कभी बकवास लगती थी…!
बातों ही बातों में कब साग चुन बिन लिया गया पता ही नहीं चला, तौलने के बाद किलो भर से थोड़ा ज्यादा था सरसों का साग…. मुन्नी बाई निकालने लगी…..अनुराधा ने कहा… इतना सा निकाल कर क्या करेगी मुन्नी बाई ….।
तेरे से हमेशा खरीदती हूं …डाल दे…
मेम साहब ….आज ये साग मेरा नहीं है ….मेरी देवरानी का है…. मेरे सास ससुर जब तक थे …हम लोग सब एक साथ रहते थे …मैं घर की ” बड़ी बहू ” थी ….तो मैंने देवरानी को हमेशा छोटी बहन ही माना है…।
हम लोग अब अलग-अलग जरूर हो गए हैं मेमसाहब पर मैं अपना ” बड़ी बहू ” होने का फर्ज नहीं भूली हूं…. वो अभी पेट से है मेमसाहब …… सरसों का साग बढ़ने लगा है …अभी तोड़ेंगे तब ना उसकी शाखाएं फूटेगी…!
इस दौरान वो सिर पर भार लेकर साग बेचने नहीं आ पा रही है ….इसीलिए आजकल मैं उसी के खेत की भाजी साग बेचती हूं…।
तू देवरानी के लिए इतना कर रही है मुन्नीबाई…? इतना क्या कर रही हूं…? पहले तो एक ही साथ थे ..अब ना अलग-अलग हो गए हैं मेम साहब… और …
” हम महिलाएं ही यदि महिलाओं का दर्द नहीं समझेंगे तो कैसे चलेगा ” ….
मुन्नीबाई की ये बात अनुराधा के दिल में तीर की तरह चुभ गई….ठीक है मुन्नी बाई ले पैसे …अब मैं जा रही हूं तेरे बताएं विधि से साग बनाने…।
मुन्नी बाई के इस वाक्य के बाद अनुराधा थोड़ी विचलित थी… उसने मुन्नी बाई के बताए अनुसार ही साग बनाया था…!
डाइनिंग टेबल पर सभी तारीफ कर कर के चावल के साथ साग का मजा ले रहे थे….इस दौरान अनुराधा ने सारी आपबीती पति अखिल को बताई…. अखिल को अनुराधा की मन : स्थिति समझने में देर ना लगी ….उसने तुरंत पूछा …पर तुम क्यों ग्लानि महसूस कर रही हो अनुराधा…?
आज बिना रुके और बिना संकोच के अनुराधा ने कहा …मुन्नीबाई भी गजब की महिला है….महिला ही महिला का सहयोग करने की बात… कितने आत्मविश्वास से बोली ….सिर्फ बोली ही नहीं करके दिखा भी रही है अखिल….!
हम सफर के साथ न होने का दर्द कोई नहीं बाँट सकता है – के कामेश्वरी
वो घर की बड़ी बहू थी …सास ससुर नहीं है फिर भी बड़ी बहू होने का फर्ज निभा रही है…!
वो अनपढ़ है अखिल ….उसके पास कागज की डिग्रियां नहीं है…. पर मैं तो पढ़ी-लिखी थी…. फिर भी मैंने…. कहते-कहते अनुराधा ने जिंदगी के पुराने पन्ने पलटने शुरू किए…!
मैं भी तो घर की बड़ी बहू थी ना… जब तक अकेली थी घर का सारा काम करती थी ….किसी से कोई समस्या नहीं थी ..कोई शिकायत नहीं थी मुझे… जैसे ही निखिल भैया ( देवर ) की शादी हुई अंजू (देवरानी ) के आने के बाद कुछ दिनों तक तो
सब कुछ सामान्य चलता रहा…. पर धीरे-धीरे मुझे लगने लगा …मेरी नौकरी नहीं है अंजू नौकरी पेशा वाली है …इसीलिए घर का सारा भार मुझ पर ही है … ये सच है कि घर का ज्यादा काम तो मैं ही करती थी …. वो शाम का खाना जरूर बनाती थी… उसमें भी मेरा सहयोग होता था…।
जानते हैं अखिल …कभी-कभी मैं जानबूझकर कमरे से बाहर नहीं निकलती थी….क्योंकि मैं सुबह अकेले ही खाना बनाती थी …तो मुझे लगता शाम को अंजू की बारी है तो वो ही खाना बनाएं ….मैं क्यों सहायता करूं ….जब मैं नहीं निकलती तो सासु मां उसकी सहायता कर देती थी…!
इसमें भी मुझे गुस्सा आता था… मुझे लगता सासू मां देवरानी के साइड का काम क्यों करती हैं ….हम देवरानी जेठानी के बीच में वो भी देवरानी जेठानी वाला रोल निभा रही है….
हालांकि देवरानी जी के कमाई से किसी को भी कोई फायदा नहीं होता था …. वो अपनी कमाई खुद ही रखती थी ….हां कभी-कभी ऑफिस से आते वक्त कुछ सामान मेरे लिए ,सासू मां के लिए… कपड़े वगैरह जरूर ले आती थी… पर एक बात है अखिल… अंजू कोशिश तो करती थी घर के कामों में हाथ बटाने की…।
मैं शायद बड़ी बहू होने के फर्ज को कायदे से निभा नहीं पाई अखिल…. इस बार अनुराधा थोड़ी भावुक हो गई थी…!
अखिल ने अनुराधा का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा …..अरे अभी भी इस घर की बड़ी बहू तुम ही हो अनुराधा…. मम्मी पापा के जाने के बाद हम लोगों ने जिंदगी शुरू ही की है ….आगे अपना फर्ज निभाना….!
हां अखिल ….कहकर अनुराधा ने मन ही मन में कुछ संकल्प लिए…
शुरूआत फोन से शुरू हुई….कैसी हो अंजू ….?
ठीक हूं दीदी …आप कैसी हैं …?
मैं भी ठीक हूं ….मुझे माफ कर दो…!
माफ…? ये ना माफी वाफी मांगने का चक्कर छोड़िए ….तरु (देवरानी की बेटी ) के लिए योग्य वर आपको ही ढूंढना है….!
याद रखिए बड़ी बहू होने के साथ-साथ आप बड़ी मम्मी भी है … आज बड़ी बहू की आंखों में छोटी बहू के लिए प्यार देखकर अखिल बेहद प्रसन्न हुए…!
एक बार फिर मुन्नीबाई के सीख की वजह से दोनों परिवार के मनमुटाव दूर हो गए और एकता की खुशबू फैलने लगी…!
(स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित और अप्रकाशित रचना )
साप्ताहिक विषय: # बड़ी बहू
संध्या त्रिपाठी