सुनो, सुन रहे हो न तुम ….? – उमा महाजन : Moral Stories in Hindi

    सुनो ! सुन रहे हो न तुम ?  तुमसे ही कह रही हूं। मेरे अंदर का अनकहा दर्द अब सैलाब बनकर शब्दों के रूप में अनवरत बहने लगा है ।  मैंने​ तुम्हें बहुत रोका , लेकिन तुम नहीं रुके ! मानो दौड़ते रहना ही तुम्हारी नियति थी। वैसे एक सच कहूं ?  यदि तुम चाहते तो रुक सकते थे, पर तुमने चाहा ही नहीं और तुम तनिक भी नहीं रुके।

मैं आज भी यही कह रही हूं कि तब तुम्हारे लिए रुकना इतना मुश्किल नहीं था ,जितना तुमने मान लिया था। यह सच है कि चलने में एक गति है, लेकिन रुक कर चलना उस गति की तीव्रता बन जाता है, परंतु इस बात को समझने के लिए भी तो तुम्हें वक्त निकालना पड़ना था न ? लेकिन रुकने के लिए तो तुम्हारे पास वक्त कभी रहा ही नहीं।

     इसीलिए जीवन की आपाधापी में तुमने न कभी बारिश की बूंदों के शीतल एवं कोमल स्पर्श का सुखद एहसास किया, न ग्रीष्म ऋतु में तरुओं तले रुककर तपिश से मुक्ति की शीतलता को जिया। 

    शीत ऋतु में गर्म रजाई में अपनों के संग बैठकर मूंगफली और गचक के साथ की गई मीठी गपशप और चुहलबाज़ी तथा ठिठोली की गर्माहट भी तुम कहां ले पाए ? महत्वाकांक्षा की लंबी दौड़ में पतझड़ में गिरती पंखुड़ियों में छिपे संदेश भी तुम्हें रोक नहीं पाए और वसंत ऋतु की हरियाली और पंछियों का मधुर कलरव‌ भी तो तुम्हें पुकारता ही रह गया।

भेद-भाव  – डाॅ संजु झा

और हां ! शरद ऋतु की मीठी-मीठी शीतलता का सुहावना लुत्फ उठाने के लिए भी तो तुम्हारा रुकना जरूरी था न ! अब प्रकृति तो तुम्हारे लिए नहीं रुक सकती थी न‌ ? परिणामस्वरूप तुम स्वयं तो नहीं रुके, किंतु तुम्हारा जीवन अवश्य थम सा गया, क्योंकि जीवन को जीने के लिए रुकना तो पड़ना ही था न ?

     दरअसल जीवन की इस दौड़ में तुम एकाएक सारे ब्रह्मांड को अपनी मुट्ठी में कर लेना चाहते थे, किंतु सत्य तो यही है न कि मुट्ठी की भी अपनी एक सीमा होती है और हां, सीमा तो गतिमान समय की भी होती​ है। समय सदा एक जैसा नहीं रहता और न ही यह किसी द्वारा ‘इच्छित ब्रह्मांड का’ मोहताज है।

   वस्तुत: हम सभी समय के वशीभूत नर्तक हैं । समय हमें अपनी अंगुलियों पर कठपुतलियों की तरह नचाता है और नृत्य करते रहना हमारी विवशता​ है। समय को अपनी मुट्ठी में बंद करके तो रोका नहीं जा सकता था न ? फिर, वह तुम्हारी मुट्ठी में कैसे रुकता ? समय तो स्वचालित है।

    सो, न तुम रुके, न समय रुका।

        असल‌ में ब्रह्मांड को मुट्ठी में करने की महत्वाकांक्षा और समय पर अंकुश लगाना दो परस्पर विपरीत प्रयास हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने वश में करने की दौड़ में समय को रोके तो नहीं रखा जा सकता था न ? मैंने कहा न कि समय की अपनी सीमा है। सो, ‘परस्पर मनों की शून्यता की एक कसक लिए ‘सर्वदा गतिमान समय’ हमारे हाथों से फिसलता चला गया। हम रीते ही रह गए।

       व्यक्ति सिर्फ ‘व्यक्ति’ ही तो नही होता न‌ ? समाज में रहते हुए एक व्यक्ति अपने आप में पूरा समाज समेटे रहता है। इसलिए वह समाज का भी देनदार होता है । हर‌ व्यक्ति से समाज की कुछ अपेक्षाएं होती हैं, किंतु इन अपेक्षाओं की पूर्ति हेतु समाज से जुड़े रहने के लिए व्यक्ति के पास रुकने का वक्त भी होना चाहिए न ? 

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  किंतु ऐसा नहीं हो पाया !

     इस प्रकार समय चक्र घूमता रहा, किंतु मेरे मन के एक कोने में इस ‘अनकहे दर्द’ ने सदा के लिए घर कर लिया कि यदि तुम रुक जाते तो हम अपने लिए एक नए मधुरमय लघु ब्रह्मांड की संरचना कर पाते। वह ब्रह्मांड ,जिसमें हम दोनों की अभिरुचियां, इच्छाएं, आकांक्षाएं​ एक सुंदर आकार ले कर अपने जीवन को सार्थक बनातीं , जहां अंकुरित हम दोनों की अभिलाषाएं​ पल्लवित एवं पुष्पित होतीं। तब यह लघु नव ब्रह्मांड ईश्वर के इस विशाल ब्रह्मांड की विजय का सुंदर और समुन्नत रूप होता।

   किंतु तुम्हें नहीं रुकना था, सो तुम नहीं रुके और ह्रदय की यह अनकही कसक और तीखी होती चली गई। 

          मन आज भी कसकता है कि हमारा अपना ब्रह्मांड नहीं बन पाया। फलस्वरूप विशाल ब्रह्मांड का एक लघु अंश अपूर्ण रह गया। इससेे अपूर्णता के रिसाव का मार्ग प्रशस्त हो गया। यह अपूर्णता ब्रह्मांड- निवासियों की पीड़ा का कारण बन गई।

       सुनो! मेरा मन आज भी यही कहता है कि ईश्वर के इस विशद ब्रह्माण्ड में हम सब के अपने-अपने लघु ब्रह्मांड हैं, परंतु प्रत्येक लघु ब्रह्मांड अपने सुंदर स्वरूप से उस विशाल ब्रह्मांड को संपूर्णता प्रदान करता है, लेकिन हम संपूर्ण होने की जीवन की इस सार्थकता से विहीन ही रह गए। 

    काश ! तुम रुक जाते !

 उमा महाजन 

 कपूरथला 

  पंजाब।

#अनकहा दर्द

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