“पारुल! तुम्हें पचास बार मना किया है न कि पड़ोस की औरतों की पंचायत में मत बैठा करो पर तुम्हें समझ नहीं आता। न तो तुम्हें घर की ज़िम्मेदारियों से कोई मतलब है और न ही बच्चों की पढ़ाई से। जिम्मेदारियों का मतलब सिर्फ भोजन बनाना और कपड़े धोना ही नहीं होता।
सफाई-बर्तन के लिए कामवाली है, बच्चों को पढ़ाना भी तुम्हारे लिए बड़ा कष्टकारी है। इतनी छोटी उम्र में ही तुमने उनका ट्यूशन लगा दिया। तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई, डिग्री का क्या फ़ायदा। नौकरी तुम करना नहीं चाहती, हाथ का कोई हुनर तुम्हारे पास है नहीं और तुम सीखना भी नहीं चाहती।
बस दोपहर में तीन-चार घंटे जो तुम इन गली की औरतों के साथ सिर जोड़कर बैठी रहती हो और जिस-तिस की बुराई करती रहती हो, यह उसी का नतीज़ा है कि आज मुझे इतना अपमान सहना पड़ा। अपने घर की बातें भी तुम इन औरतों को बताने से नहीं चूकीं। तुम्हें क्या ज़रूरत थी
मेरी बहन नेहा के पति की बेरोज़गारी का ढोल पीटने की। कंपनी की छँटनी में अगर जीजाजी की नौकरी चली गई तो इसमें उनकी क्या ग़लती है? तुम्हारी
चुगलीबाजी की वज़ह से अभी-अभी मिसेज शर्मा की कितनी बातें सुनकर आ रहा हूँ कि भाई साहब, दीदी कैसे गुज़ारा कर रही होंगी, जीजाजी की नौकरी के बिना आप पर तो दो-दो गृहस्थियों का बहुत भार पड़ रहा होगा और भी न जाने क्या-क्या।” मोहित का क्रोध सातवें आसमान पर था।
“मैंने तो उन्हें अपनी सहेलियों समझ कर बताया था। मुझे क्या पता था कि वे मेरे घर का ही मज़ाक उड़ा देंगी।”पारुल रोआंसी हो उठी।
“बेटी! पड़ोसी और सहेलियाँ केवल नमस्ते और हाल-चाल पूछने के लिए ही होते हैं। असली हमदर्द तो सिर्फ़ परिवार होता है जो दुख-तकलीफ़ में भी साथ रहता है और ख़ुशी में भी। यही अंतर है पड़ोसियों और परिवार में।” पारुल की सास ने समझाया।
“जी,मम्मी! मैं आगे से ध्यान रखूँगी।”पारुल ने कहा और रसोई घर में जाकर चाय बनाने लगी।
स्वरचित
डॉ ऋतु अग्रवाल
मेरठ, उत्तर प्रदेश