उस कस्बे के खपरैल घर में रहनेवाली नीता विधवा थी।उसके पति की मृत्यु वर्षों पहले बीमारी से हो गई थी। उसकी एक पुत्री रंभा और एक पुत्र अरुण थे। वह अपने घर में सिलाई का काम करके अपना और अपनी संतान की जीविका चलाती थी।. नीता के देवर त्रिलोक का उसके बगल में ही उसके मकान की दीवार से सटा दो मंजिला आलिशान मकान था।
त्रिलोक की तीन पुत्रियाँ थी।
पहले दोनों परिवारों में बातचीत और एक-दूसरे के यहाँ आना-जाना बदस्तूर जारी था। लेकिन जैसे ही त्रिलोक के बड़े भाई की मृत्यु हो गई, उसके बाद एक-दूसरे के घर में आवागमन बन्द हो गया। त्रिलोक ने अपने बड़े भाई के परिवार से हरेक तरह का संपर्क इस अंदेशा से तोड़ लिया कि कहीं ऐसी स्थिति में कुछ मदद न करना पड़ जाए।
नीता के सिर पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा था किन्तु उसके देवर और उसके परिवार को उससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। उसको अपने कारोबार से भरपूर कमाई हो रही थी।
कालांतर में त्रिलोक की तीनों बेटियों की शादी की उम्र हो गई थी। और नीता की बेटी रंभा की भी शादी की आयु हो गई थी। रंभा त्रिलोक की तोनों बेटियों से उम्र में बड़ी थी।
नीता तो अपनी बेटी की शादी करना चाहती थी, लेकिन जिसके साथ गरीबी और दुर्भाग्य का साया हमेशा साथ हो वह भला क्या कर सकती थी। निर्धनता की चक्की में पिसनेवाले लोगों के लिए छोटे से कुनबे की परवरिश करना कितना कठिन होता है, वह भुक्तभोगी ही बता सकते हैं।
सिलाई के काम से नीता अपने परिवार सहित अपने पेट की आग तो बुझा लेती थी, किन्तु शादी जैसे खर्चीले कार्य को वर्तमान समय में संपन्न करना मुश्किल ही नहीं असंभव सा उसे महसूस हो रहा था।
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इधर दो-तीन वर्षों के अन्दर रंभा की दो चचेरी बहनों की शादी उसके चाचा ने अपनी मजबूत आर्थिक स्थिति के बल पर आसानी से संपन्न करवा दी थी।
अपनी चचेरी बहनों की शादी संपन्न होने के क्रम में अपने चाचा के घर में बजने वाली शहनाइयों की आवाजों से रंभा का अंतस्तल व्यथा और क्षोभ से उद्वेलित हो उठता था। वाद्य-यंत्रों से निकलने वाली धुन उसके कलेजे में सुइयों की तरह चुभती थी। वह बेचैन हो उठती थी।
मौके-बेमौके अपने मकान की छत पर चढ़कर उसकी चाची तो पर्दे के पीछे रहकर उसका मखौल उड़ाती थी।पर चचेरी बहनों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से किसी न किसी चीज के बहाने ताना मारना, चिढ़ाना और खिल्ली उड़ाना उसको अवसाद के सागर में डुबो देता था।
ऐसी परिस्थिति में अपमानित होकर रंभा डिप्रेशन में चली जाती और स्वतः बड़बड़ाती, ” मैंने क्या कसूर किया है?… जो मेरी गरीबी का मेरे चाचा के परिवार मखौल उड़ाते हैं… उपहास का दंश उपहार में देते हैं… गरीब क्या आदमी नहीं होता है?… यही इंसानियत है।”
रंभा की मानसिक हालत बिगड़ने लगी थी। वह अशांत रहने लगी। उसने क्षुब्ध होकर अपना श्रृंँगार करना छोड़ दिया। वह जैसे-तैसे रहने लगी। अपने पहनावे पर भी ध्यान नहीं देती।
उसकी माँ उसकी स्थिति समझ रही थी। वह उसे हमेशा धैर्य बंधाती रहती थी। वह उसे कहा करती थी कि वह निराश और दुखी न हो, अगर उसकी जोड़ी ईश्वर ने बनाई होगी तो देर सबेर उसकी भी शादी हो ही जाएगी। तब वह झुंझलाते हुए जवाब देती, ” एक निर्धन की लड़की को कौन लड़का हाथ थामेगा?… मांँ तुम बेकार चिन्तित हो, मैं जिन्दगी भर इसी घर में रहकर मैं तुम्हारी सेवा करूंँगी… तुम्हारे कामों में हाथ बंटाऊंँगी… और एक दिन इसी घर से मेरी अर्थी भी उठ जाएगी।”
उसका छोटा भाई एक दुकान में नौकरी करता था। उसको वेतन बहुत कम मिलता था, जो उसके निजी खर्च में ही समाप्त हो जाता था।
हलांकि रंभा खूबसूरत भी थी। सिलाई-कटाई और कढ़ाई भी जानती थी। कुछ पढ़ी-लिखी भी थी।घरेलू कार्यों में भी निपुण थी। किन्तु उसके लिए ये सारी विशेषताएं व्यर्थ साबित हो रही थी। आजकल शादी के लिए सुन्दर लड़की के साथ-साथ सुन्दर धनराशि भी आवश्यक है तभी बात बनती है।
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फिर भी कभी-कभार नीता अपने रिश्तेदारों, परिचितों और अपने कस्बे के मध्यस्थ टाइप के लोगों से इस बाबत बातचीत करती, राय-परामर्श लेती उनसे कोई रास्ता निकल आने की आस में। लेकिन सभी सांत्वना का शीतल शर्बत पिलाकर अपना पल्ला झाड़ लेते। वैसे सभी जानते थे कि इस काम में आगे कदम बढ़ाने का मतलब आर्थिक हानि उठाना है।
कस्बे के एक-दो धुरंधर और घाघ लोग शादी में आर्थिक रूप से मदद करने के लिए तैयार थे पर उनकी शर्त के मुताबिक नीता को घर उनके यहाँ गिरवी रखना पड़ता जिसके लिए वह बिलकुल तैयार नहीं थी।
त्रिलोक की तीसरी बेटी की शादी की बातें चल रही थी। लड़केवाले भी लड़की को देखने के लिए आने वाले थे।
उस दिन नीता दोपहर में लेटी हुई थी तो किसी ने दरवाजा खटखटाया।
नीता तेजी से उठी, फिर उसने जाकर दरवाजा खोल दिया।
सामने अधेड़ उम्र के दो अपरिचित व्यक्ति खड़े थे।
“आप कौन हैं?” उसने विनम्रता से पूछा।
” हमलोग त्रिलोक बाबू का घर तलाश रहे हैं … एक-दो बार मोबाइल से फोन लगाया पर किसी ने नहीं उठाया।”
” आपलोग कोई विशेष काम के निमित आए हैं?…”
” हांँ! हांँ!… आपसे क्या छिपाना!… शादी के प्रसंग में उनसे बातचीत करने आए हैं।”
अगुओं को देखते ही नीता के अंतर्मन में रंभा की शादी की आकांक्षा कुलबुलाने लगी। उसने अत्यंत मधुर वाणी में उनको अपने घर के अन्दर आने के लिए निवेदन किया।
नीता ने कहा कि सौभाग्य से आपके शुभ कदम मेरे घर की चौखट पर पड़े हैं तो थोड़ी देर बैठिए, अपनी जात-बिरादरी के घर का पानी ग्रहण कर, इस गरीब की कुटिया की माटी को अपने चरणस्पर्श से पवित्र कर दीजिए।… शादी-विवाह तो ईश्वर के हाथ मे होता है। “
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नीता का अनुरोध इतना हृदयस्पर्शी, आत्मीयता और वाक-पटुता से परिपूर्ण था कि वे दोनों उसके आग्रह को टाल नहीं सके।
उनको आदर के साथ नीता अपने घर के अन्दर ले गई। उन्हें कमरे में बैठाया और उनके साथ मृदु स्वर में बतियाने लगी।
नीता का इशारा पाकर रंभा जल्दवाजी में घर में उपलब्ध सौंदर्य प्रशासन से श्रृंँगार करके थोड़ी देर के बाद ही उनके सामने चाय-पानी लेकर हाजिर हो गई।
सर्वप्रथम उसने उनका चरणस्पर्श किया, फिर उनकी आवभगत में लग गई।
चाय-पानी की औपचारिकता और आदर-सत्कार के बाद अगुओं ने उसकी पढ़ाई-लिखाई, घरेलू कार्यों, हौबी, रुचि… आदि से संबंधित बातों की जानकारियांँ हासिल की। कुछ प्रश्न पूछकर उनकी सत्यता की जांँच-पड़ताल भी की।
अंत में उनमें से एक ने नीता का मोबाइल नम्बर भी ले लिया। फिर उससे इजाजत लेकर अपने मोबाइल से रंभा की दो-तीन तस्वीरें भी खींच ली।
उसके बाद नीता ने त्रिलोक का घर बगल में होने की बात बता दी।
दोनों अगुओं की जोड़ी त्रिलोक के घर में प्रवेश कर गई।
नीता की गतिविधियों पर त्रिलोक और उसकी पत्नी की नजर थी। दोनों अगुओं को उसके घर में जाते हुए देख लिया था।
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जब लड़केवाले त्रिलोक की लड़की को देखकर चले गए तो थोड़ी देर के बाद ही रंभा के चाचा-चाची ने उसके दरवाजे पर आकर लड़ाई-झगड़ा शुरू कर दिया, यह आरोप लगाते हुए कि वह लड़केवाले को बहला-फुसलाकर उसके बने बनाए हुए काम को तोड़ना चाहती है, कि क्यों वह उसके अगुओं को अपना घर ले गई।
तब नीता ने सफाई दी, ” उनको मैंने बुलाया नहीं बल्कि वे स्वयं पता पूछने के लिए दरवाजे पर आए थे।… तो क्या उनको लाठी लेकर खदेड़ देते… यही इंसानियत है… उनलोगों ने तो फोन किया था क्यों नहीं फोन उठाया।… तब न पता पूछना पड़ा उन्हें।”
उसके जवाब से पति-पत्नी शांत नहीं हुए।
त्रिलोक ने उबलते हुए कहा,” तुम मेरी बेटी की शादी में बिघ्न-बाधा पैदा करना चाहती हो… अपनी बेटी की शादी करने का तो दम है नहीं और दूसरे की बेटी की शादी में टांग अड़ाओगी तो अच्छा नहीं होगा… टांग तोड़ दूंँगा। “
नीता ने लाख सफाई दी, समझाने का प्रयास किया कि उसकी बेटी के संबंध में उसने कुछ भी नहीं कहा कि उसने सिर्फ घर का पता बतलाया है कि दरवाजे पर पहुंँचे अपरिचित जात-बिरादरी के लोगों के साथ शिष्टाचारवश जो व्यवहार करना चाहिए वही उसने किया है।
किन्तु नीता के किसी भी दलील को दोनों पति-पत्नी मानने से इन्कार कर रहे थे।
मोहल्ले और कस्बे के लोगों की भीड़ जमा हो गई थी।
अंत में त्रिलोक ने कड़कती आवाज में धमकी देते हुए कहा, ” आइंदा ऐसा किया तो सबक सिखा देंगे मांँ-बेटी को।”
इस बात पर मोहल्ले के कई लोगों ने नाराजगी जताई। एक-दो बुजुर्गो ने उसे भला-बुरा भी कहा। दोनों पति-पत्नी अपने घर के अन्दर चले गए अपनी आंँखें लाल पीला करते हुए ।
रंभा फूट-फूटकर रोने लगी।उसे लग रहा था कि ये सारे फसाद की जड़ वही है। उसका जीना बेकार है। इस घटना ने उसका कलेजा चाक कर दिया।
उसने भर्राये हुए स्वर में कहा, ” मांँ!… मुझे जहर दे दो… मैं कुलक्षणी हूँ… और तुमलोगों के दुख का कारण मैं ही हूँ।… मेरे मरने के बाद ही तुम चैन से जी सकती हो और मेरा भाई भी सुखी जीवन व्यतीत कर सकता है” कहती हुई वह असहनीय वेदना से ग्रस्त होकर अर्द्धविक्षिप्त की तरह व्यवहार करने लगी।
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नीता ने रंभा को अपने गले लगाकर सहानुभूतिपूर्वक कहा,” बेटी!… पागल मत बनो!… लोग-वाग क्या कहेंगे… धैर्य रखो!… निर्धन के भी दिन फिरते हैं… उनका भी अच्छा समय आता है।”
सप्ताह भर बाद ही उसके अच्छे समय ने दस्तक दी। जिन अगुओं ने लड़की देखा था, उन्होंने लड़की पसंद कर ली थी। और वे बिना दहेज की शादी करने के लिए तैयार थे। इस आशय की खबर लड़केवालों की तरफ से नीता के मोबाइल पर आई।
इस खबर से उसके घर का वातावरण उमंग-उत्साह और खुशियों से सराबोर हो गया था।
स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
मुकुन्द लाल
हजारीबाग(झारखंड)
12-01-2025
# कहानी प्रतियोगिता
विषय:- # अपमान बना वरदान।