मुखाग्नि! – सारिका चौरसिया

उनकी चिता धु धु जल रही थी, अस्पताल से साथ आये कर्मचारी बड़ी बेरुखी से चिता पर लाश रखने और दाह कार्य करने की प्रक्रिया को अंजाम दे रहे थे। हाँ!अब वे मात्र लाश ही तो रह गए थे। कोरोना का पहला दौर था,और महामारी अपने चरम पर थी।

मृतकों को घर की ड्योढ़ी पर मत्था टिकाना भी नसीब ना था। अस्पताल से सीधा श्मशान ही भेजा जाता और सिर्फ अग्नि के हवाले कर नियमों की पूर्ति मान ली जाती। दिवंगत ‘लाश’ अपने समय की प्रतिष्ठित विभूति थी, अतः प्रशासन से कह सुन कर  फिर चार लोगों की अनुमति किसी तरह ले ली गयी थी जो दूर से ही मात्र उपस्तिथि की गवाही दे रहे थे।

पुरानी परम्पराओं और मान्यताओं से जूझता छोटा शहर! अक्सर पुराने सम्पन्न स्थानीय लोगों का एक तरह से दबदबा हुआ करता है छोटे शहर के सरकारी महकमों में!!,, त्योहारों और शादी ब्याह के नाम पर उपहारों और लिफाफों से सरकारी अफसरों-कर्मचारियों के स्वागत को स्नेह व्यवहार की संज्ञा देना और वक्त पड़ने पर बदले में कोई फंसा कार्य करवा लेना सब आम बातें होती हैं।

वे भी एक समय के बड़े दबंग व्यवहारी थे,, ये अलग बात है कि अगली पीढ़ी दबी जबान में उन्हें अक्खड़ और बुढ़ऊ कहने से बाज नहीं आती थी।

तीन पुत्रियां और दो पुत्र। पुत्रवधुओं के वर्चस्व के गृह क्लेश में छोटा पुत्र और उसका परिवार सदा के लिये परित्याज्य हो गया,,अब उसने स्वयं गृह और सम्बन्धों से परित्याग किया!अथवा परित्याज्य कर दिया गया!!

यह रगों में बह रहे एक समान गर्म रक्त प्रवाह का परिणाम था जो शेखी में बखाना जाता!

मैंने निकाल दिया….

अरे वो क्या निकालेंगे….मै स्वयं ही उन्हें ठोकर मार आया!!

वहीँ ज्येष्ठ पुत्र अत्यधिक लाड़ और जमी जमायी दुकानदारी तक ही सीमित रह गया, दिन भर दुकानदारी और शाम होते ही शराब की महफ़िल ने अंदर से शरीर खोखला करना शुरू कर दिया, एक मात्र पोता उनसे भी एक हाथ आगे, फैक्टरियां लगाने के लम्बे-चौड़े ख्वाब देखता घर की ही जायदाद! उन दुकानों पर कुल्हाड़ी चलाने का इरादा पक्का करने लगा,, शिक्षा कितनी साकार हुई ये तो पता नहीं मगर महानगर की हवा अपने पूरे शबाब पर नज़र आती थी उसमें।


अब उन तथाकथित ‘बुढ़ऊ’ और पोते की जबानी जंग सरेआम होने लगी थी,और इस तीसरी पीढ़ी से टकराव का असर दूसरी पीढ़ी के सम्बन्धों पर भी पड़ रहा था, शराबी बेटा और अति महत्वाकांक्षी अनुभवहीन अनगढ़ पोता! यह त्रिकोणीय पारिवारिक सदस्यता लगभग टूटने के मुकाम पर जा चुकी,

बड़ी बहू अपने इकलौते बेटे की महत्वकांक्षाओं को बिना परखे ही बढ़ावा देने में लगी रही तथा पति तथा सास ससुर से द्वंद बढ़ने लगे,और अचानक खबर आयी माता जी का स्वर्गवास हो गया, ठंड लग गयी।

चिता की वह राख अभी ठीक से बुझी भी नहीं थी कि फिर अगली खबर और अप्रत्याशित थी! ज्येष्ठ पुत्र अकस्मात काल कवल्वित हो गया !! यद्दपि दबे स्वरों में फुसफुसाहट एक घर से दूसरे घर और एक रिश्तेदारी से दूसरे रिश्तेदारी घूमती रही….दूसरी पीढ़ी तीसरी पीढ़ी से हार गई और स्वघात कर बैठी।

अब पारिवारिक सम्पदा के विघटन में एकमात्र रोड़ा पहली पीढ़ी थी जिसकी अक्खड़ता ने जहाँ पारिवारिक रुतबा बरकरार रखा था वहीं कानूनी रूप से भी तमाम सरकारी महकमों का वरदहस्त प्राप्त था,, किन्तु पत्नी वियोग, पुत्र वियोग अकेलापन शरीर पर जब हावी होने लगते हैं तो आत्मबल स्वतः टूटने लगता है।

और तीसरी किन्तु प्रत्याशित ख़बर सामने थी। मृत्यु अपना कारण या माध्यम साबित कर सके! यह प्रमाण देने वाली ‘मृतक लाश’ और कोरोना दोनों से ही ‘जिंदा लाशों’ के बीच दो गज की दूरी थी।

सासु माँ को बड़े मनोयोग से ये तमाम जानकारियां विस्तृत रूप से बताते-बताते ही अकस्मात ही रिश्ते की वह ख़ास परिचिता मुझे सलाह दे ही बैठीं….

बहु तुम भी अब एक बेटा कर ही लो!


लड़कियों से वंश थोड़े ना चलता है…

चिता को मुखाग्नि पुत्र ही देता है!

घर का वारिस पुत्र ही तो होता है!!

कम-स-कम एक लड़का तो होना ही चाहिए।

और मैं जो चाय-नाश्ते लाती, मेहमानवाजी करती उनकी इस कहानी को घण्टें भर से अरुचि के साथ मन ही मन पंचायती कहते हुए मात्र अवमानना ना हो इस डर से सुन रही थी,,

ख़ुद को रोकते-रोकते भी ना रोक सकी और खिलखिला कर हँस पड़ी!

तथा सासु माँ की परवाह ना कर बोल पड़ी! जी आंटी जी,अभी जिनकी बात आप बता रही थी, उनको भी तो दो बेटे और तीन पोते हैं ना। फिर भी बिचारे को मुखाग्नि नसीब नहीं हुई।

माता जी मेरी ओर देख मुस्कुरा दी।।

सारिका चौरसिया

मिर्ज़ापुर उत्तर प्रदेश।।

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