‘मजा’ है या किन्हीं विशेष परिस्थितियों में वो कैसे ‘सजा ‘ बन जाती है मेरी आज की कहानी में मैंने प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
कहानी के नायक और नायिका दोनों वर्किंग है।
सुधीर मेडिकल कॉलेज में प्राध्यापक हैं जबकि आस्था सरकारी बैंक में सीनियर क्लर्क के पद पर आसीन है।
उन दोनों ने प्रेम विवाह किया था। साथ-साथ जीने मरने और जीवन की जिम्मेदारियों को एक साथ मिल कर निभाने की कसमें खाई थीं।
सुधीर की आय आस्था से लगभग दोगुनी है।
जबकि आस्था अपनी मेहनत के बल पर प्रमोशन पाती हुई ‘पी ओ’ बन चुकी है। इस बार भी ब्रांच मैनेजर के प्रमोशन की लिस्ट में उसका नाम तीसरे नं पर है। अपने कैरियर की शुरुआती दिनों से ही आस्था पैसों के साथ-साथ ओहदे का सपना भी देखती आई है।
लिहाजा घर लौट कर सुधीर को इसकी सूचना देने को बेताब बैठी आस्था यह अच्छी तरह से जानती है ,
” कि हर बार की तरह इस बार वह सुधीर को अपने तबादले के लिए नहीं मना पाएगी”
पहले की बात और थी शादी के तीन साल बाद तक वह निर्द्वन्द्व हो कर स्वतंत्र भाव से नौकरी करती रही है। तब सुधीर की माँ बिल्कुल ठीक थी और उन्होंने खुशी-खुशी पूरी गृहस्थी संभाल रखी थीं।
पर अब ?
सुधीर की माँ बिस्तरे पर हैं अभी पिछले साल ही उन्हें लकवा मार गया है। और खुद उन दोनों का बेटा ‘बंटी’ सिर्फ़ छह साल का ही है। पहले तो आस्था की सास उसकी गृहस्थी के साथ-साथ बंटी का भी ध्यान रख लेती थीं।
लेकिन अब वे खुद ही बिस्तर पर लाचार दूसरे के भरोसे रहती हैं।
आस्था ने मोटी रकम दे कर उनकी देखभाल के लिए नौकरानी रखी है।
सुधीर अपनी माँ को लेकर किसी प्रकार का समझौता नहीं किया करते हैं।
इस बार भी आस्था के प्रमोशन पा कर शहर से बाहर जाने का प्रस्ताव सुन कर बुरी तरह बिफर पड़े हैं ,
” क्या जरुरत है ऐसे प्रमोशन पाकर बाहर जाने की जब कि बंटी की नाजुक उम्र और माँ बिस्तरे पर है सब कौन संभालेगा ” ?
बात तो सही है फिर भी आस्था के अंदर तक कड़वाहट भर गई ।
बहुत मुश्किल से अपने को रोकने के बाद भी वह सुधीर को “स्वार्थी ” कहने से बाज नहीं आई ,
‘ अच्छा वाह जी,
मेरे पैसे तो माएने रखते है पर मेरी प्रमोशन नहीं यही तुम अच्छे पति हो ? “
उसने सुधीर से बहुत तरह से तर्क वितर्क किये यहाँ तक कि वह तो यह भी कहना चाहती थी,
” तुम अपनी माँ को देखो मैं बंटी को मैनेज कर लूँगी मेरी तरक्की के रास्ते को रिश्ते नातों से अलग रखो चाहो तो और नौकरानी भी रख लो “
लेकिन कह नहीं पाई क्योंकि इनदिनों बहुत कुछ देख और महसूस तो वह भी कर रही है ,
” कि बंटी किस कदर जिद्दी और चिड़चिड़ा बनता जा रहा है।
हर समय सहमा-सहमा रहता है बंटी । पहले दादी के साथ हमेशा हँसता रहता था और अब नौकरानी के आने से वह कुछ असुरक्षित सा महसूस करता है ” ,
ऑफिस से आने पर उसके छाती से चिपट जाता है फिर गोद से उतरता ही नहीं है।
सुधीर भी खिजेखिजे से रहने लगे हैं।
उन्होंने प्रेमविवाह किया था। शुरु के दिनों में कितने चहकते रहते थे दोनों।
दोनों ने मिलकर कितने सपने संजोए थे। लेकिन अब एकदूसरे से बातें तो क्या साथ बैठने का भी मौका कम ही मिल पाता है। बहुत सी समस्या तो फोन पर ही कह सुन लेते हैं दोनों।
जिस डबल इनकम को वो नियामत समझ रहे थे अब वही बोझ जैसी लगने लगी है उन्हें।
आमदनी ज्यादा तो खर्चे भी बिना सोच समझ और प्लानिंग के बढ़ते जा रहे हैं। इस परिस्थिति में वे उल्लासपूर्ण रहने की बजाए हताश रहने लगे हैं।
आस्था अक्सर सोचती है,
” मैं खुद ना तो ‘अच्छी माँ ‘ बन पा रही हूँ और ना ही अच्छी ‘ वर्किंग वूमेन ‘ ही “।
इस तरह घर-बाहर दोनों क्षेत्र में अपने को असफल होते देख कर वह भी तनाव में रहने लगी है उसे अपनी तमाम सुविधाएं काटने लगी हैं।
बैंक में बढ़ते काम की जिम्मेदारियाँ और घर दोनों को एक साथ निभाने के चक्कर में वह भी चिड़चिड़ी होती जा रही है।
सुधीर की दिन पर दिन बढ़ती व्यस्तता उसे और भी परेशान कर रही है। एक बंटी ही है जो उसे राहत पँहुचाता है।
वो भी बेचारा स्कूल से आकर नौकरानी के साथ रहने पर मजबूर है।
उस पर से लोगों की बातें अलग से सुननी होती हैं,
” तुम लोग तो दोनों पति-पत्नी कमाते हो तुम्हें क्या परेशानी है यार… दो-दो कार , चौबीस घंटे की नौकरानी अपना फ्लैट वगैरह वगैरह … “
“अब कैसे सबका मुँह बंद करूँ मैं सब बात तो सही ही कहते हैं “
खुद हम दोनों ने ही डबल इनकम के चक्कर में यह आफत मोल ली है जिसमे हमारी नींद तक हराम हो गई है।
इस डबल इनकम ने हमें हर प्रकार की सुख सुविधा तो मुहैया करा दी है पर हमारे सुख चैन को बलीवेदी पर चढ़ा कर।
खासतौर से मुझे जो घरबाहर , पत्नी और माँ इस दोहरी तिहरी जिम्मेदारियों में से किसी एक को भी ठीक से नहीं संभाल पा रही हूँ।
आस्था सोचती है,
” पता नहीं यह डबल इनकम ‘मजा ‘ है या ‘सजा ‘ इसके चक्कर में मैं सुधीर और बेटे से दूर होती जा रही हूँ। ना तो बंटी को सही परवरिश दे पा रही हूँ और ना ही सुधीर एवं माँ जी को उचित समय दे पा रही हूँ ” ,
‘ सैंडविच बन कर रह गई हू्ँ मैं ‘
लेकिन अब और नहीं मैं तो महज सुधीर के बोझ हल्का करना चाहती थी लेकिन यहाँ तो धीरे-धीरे सुधीर से ही दूर होती जा रही हू्ँ जो मुझे किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं “।
इस बैंक की “नौकरी ” से तो घर की नौकरी ही अच्छी भली है ” ।
अब आप निश्चित करें डबल इंजन ‘ मजा’ है या ‘सजा ‘ ?
स्वरचित /सीमा वर्मा
नोएडा