“मैंने कहा ना माँ, मुझे स्मार्टफोन चाहिए तो चाहिए बस….” 18 वर्षीय जीतू ने तमतमाते हुए कहा।
“बेटा, अभी तो इतने पैसे नहीं है लेकिन मैं धीरे-धीरे पैसे जमा कर तेरे लिए अवश्य ला दूंगी… बात को समझने का प्रयास कर बेटा..” तुलसी ने रुआंसे स्वर में उसे समझाने का प्रयत्न किया।
“मेरे सभी दोस्तों के पास है और मैं तुमसे जब भी कहता हूं तो लगती हो गरीबी का रोना रोने… तंग आ गया हूं मैं तो…”
जीतू ने चीखते हुए कहा और भड़ाक से दरवाजे पर लात मारते हुए बाहर चला गया। पास में रखा मटका फूट गया और पूरा पानी भी जमीन पर फैल गया।
तुलसी की आंखें छलछला गईं। दिहाड़ी मजदूर था जीतू का बापू लेकिन कुल मिलाकर उनकी दुनिया सुखी थी। गरीबी में भी संतोष के धन को संजोते हुए पूरा परिवार खुशी-खुशी एक साथ रहता था। लेकिन उनकी खुशी पर भी एक दिन काल की कुदृष्टि पड़ गई और एक दिन तुलसी का पति जहां काम करता था वह अधबनी इमारत ढह जाने के कारण वहीं दबकर तुलसी के पति की मृत्यु हो गई। तुलसी के जीवन से जैसे सारे रंग रूठ गए। धीरे-धीरे जो घर में थोड़े बहुत पैसे थे वह भी समाप्त होने लगे।
और कहते हैं ना की कठिनाइयों में अपनी परछाई भी साथ नहीं देती है वही तुलसी के साथ हुआ। उसे मुसीबत में देखकर सबने अपने हाथ पीछे खींच लिए कहीं कोई आशा की किरण तुलसी के लिए जीवन में नहीं बची। अंत में अपने बच्चे के पालन पोषण के लिए उसने निर्णय लिया कि वह स्वयं काम पर निकलेगी धीरे-धीरे उसने काम ढूंढना करना शुरू किया। और उसे एक घर में गृह सहायिका के रूप में काम मिल गया। जैसे तैसे जीवन की गाड़ी फिर से चलने लगी। परंतु उसकी विवशता को भांपते हुए उससे बहुत कम पारिश्रमिक के बदले दोगुना काम लिया जाता था।
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बात-बात पर दुर्व्यवहार और अपमानित किया जाता था।
परंतु वह सब कुछ सहन करते हुए खुशी-खुशी काम करती थी। अपने आंखों के तारे जीतू को वह हर सुख देना चाहती थी। वह परिस्थितियों से इतनी टूट गई थी कि उसे भय लगने लगा था कि कहीं उसका बच्चा भी उससे दूर ना हो जाए। उसने सरकारी विद्यालय में उसका नामांकन भी करा रखा था
और चाहती थी कि वह पढ़ लिखकर शीघ्र अपने पैरों पर खड़ा हो जाए और इन अभावों से उसे मुक्ति मिल जाए। वह बार-बार जीतू को समझाने का प्रयास करती थी परंतु जीतू को इन सब से जैसे कुछ मतलब ही नहीं था। घर में किसी के न रहने के कारण वह गलत संगत में पड़ गया था और दिन भर मटरगश्ती करना और माँ से पैसे लेकर उड़ाना यही उसकी दिनचर्या बन चुकी थी।
तुलसी ने भीगी आंखों पहुंच कर फुर्ती से फर्श पर फैला पानी साफ करना शुरू कर दिया। उसे काम पर जाने में भी देर हो रही थी। जीतू के हठ के कारण अभी तक खाना भी नहीं बन पाया था। उसने जैसे तैसे खाना बनाया, सब कुछ ढक कर रखा और तेजी से काम के लिए चल दी। आज उसे मालूम था कि आज फिर से उसे डांट पड़ने वाली है, इतनी देर जो हो गई थी।
उधर जीतू का पारा इतना चढ़ा हुआ था कि वह कुछ भी सोच पाने में असमर्थ था। उसने सोच लिया कि वह आज तो माँ से बोल देगा कि वह निर्णय कर ले कि उसे अपना बेटा चाहिए या नहीं। उसे कहीं से भी पैसे लाकर देने ही होंगे।
क्रोधांध वह बढ़ चला जहां तुलसी काम करती थी उस घर की ओर…
उधर तुलसी जब काम करने पहुंची तो मालकिन का रोष सातवें आसमान पर था..”- अब आ रही है महारानी…पैरों में मेहंदी लगा कर बैठी थी क्या…”
“नहीं मालकिन, वह आज मेरे बेटे को कुछ आवश्यक कार्य था इसीलिए घर में देर हो गई…” तुलसी की आंखें फिर नम हो गईं।
“बहानों का तो पिटारा है तू.. अरे तेरे बेटा का ठेका क्या हमने ले रखा है…” मालकिन ने फिर विष वमन किया।
“मालकिन रोज तो समय पर आ ही जाती हूं आज थोड़ी देर हो गई लेकिन आप चिंता ना करें मैं बहुत शीघ्र ही सारे काम निपटा लूंगी…” तुलसी ने पुनः गिड़गिड़ाते हुए स्वर में कहा।
“एक तो गलती करती है, उस पर से जुबान लड़ाती है…” मालकिन ने पानी पीते हुए जूठा गिलास बर्तनों की ढेर की ओर उछाला और तुलसी को जूठे बर्तनों की ओर धकियाते हुए दांत पीसकर कहा..
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जूठे गिलास का पानी पूरा उछलकर तुलसी के ऊपर पड़ गया और वह जूठे बर्तनों पर गिरने ही वाली थी कि तभी दो मजबूत बाहों ने उसे संभाल लिया। हतप्रभ होकर उसने पलट कर देखा तो आंखों में आंसू लिए जीतू खड़ा था।
“बस माँ..अब तू और यहां काम न करेगी। मुझे क्षमा कर दे मैं तुझे बहुत दुख दिए हैं… तू इतने कष्ट इतना अपमान सहती रही और मुझसे कभी कुछ नहीं कहा ताकि मैं सुख से रह सकूं और कैसा नालायक बेटा हूं मैं…”
अभी मालकिन फिर चिल्लाई “अरे ओ अपनी नौटंकी घर से बाहर जाकर करो… एक तो इसे काम पर रखा उसे पर से धौंस दिखाती है..कंगले लोग..”
“बस कीजिए आप…मेरी मां आपके यहां काम करती है इसका अर्थ यह नहीं है कि आप उससे इस प्रकार का व्यवहार करें और उन्हें अपमानित करें। कोई उपकार नहीं कर रही है आप अगर आपने काम पर रखा और पैसे दिए तो मेरी मां ने भी हाड़ तोड़कर आपके यहां आपके पैसों से बढ़कर काम किया है।
अबसे मेरी मां यहां काम नहीं करेगी।” …जीतू ने एक-एक शब्द पर जोर देते हुए कहा और तुलसी का हाथ पकड़ कर झटके से वहां से बाहर निकल आया। उसकी आंखों से अविरल अश्रुप्रवाह हो रहा था। उसकी आत्मा उसे झकझोर रही थी कि उसकी माँ उसके लिए इतने कष्ट सहती रही और वह केवल अपने विषय में सोचता रहा। कितना स्वार्थी है वह…
घर पहुंच कर तुलसी गुमसुम से बैठी थी। अब कल से क्या होगा.. अब तो मालकिन मुझे काम पर भी नहीं रखेंगी दोबारा…
जीतू भी उसे घर छोड़कर पुनः न जाने कहां निकल चुका था। वह खटिया पर लेट कर सूनी आंखों से अपनी टूटी छप्पर देखते हुए चिंतामग्न थी। तभी जीतू वापस आया…”माँ.. मेरी प्यारी माँ… खुशखबरी सुन… मुझे काम मिल गया है…. रोज सुबह जल्दी उठकर अखबार बाटूंगा
मैं और उसके बाद पीछे वाली गली में साहब लोगों के यहां गाड़ियाँ धोऊंगा। मेरा एक मित्र भी यही काम करता है उसी के साथ बात करके मैंने भी यह कार्य प्रारंभ कर लिया है और तू चिंता मत कर.. साथ-साथ में मैं पढ़ाई भी करूंगा और वह भी पूरी लगन से… हमारे भी दिन बहुत जल्द फिरेंगे माँ.. अब और तुझे अपमान सहकर कहीं काम करने की आवश्यकता नहीं है..”
“अरे बेटा… एक ही दिन में मुझे लग रहा है जैसे तू कितना बड़ा हो गया और कितना समझदार हो गया… जुग जुग जी मेरे लाल… “
“लेकिन जब मैं हूं तो तू क्यों काम करेगा… तू बस अपनी पढ़ाई कर….”
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“बस मैं और कुछ नहीं सुनना चाहता माँ..” जीतू ने लाड लड़ाते हुए कहा।
“लेकिन बेटा.. फिर मैं भी घर में बैठकर क्या करती रहूंगी यह भी तो सोच.. कहीं काम करूंगी तो दो पैसे तो आएंगे….” तुलसी ने भीगे स्वर में कहा।
“ठीक है…अगर ऐसा है तो मैं तेरे लिए ढेर सारे फूल ला दूंगा… तू घर बैठकर फूलमालाएं बनाने का काम शुरू कर देना… लेकिन वह भी मात्र तब तक…जब तक मैं पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़ा न हो जाऊँ…” जीतू ने तुलसी की गोद में सिर रखते हुए कहा… और उसका सिर सहलाते हुए तुलसी को ऐसा लगा मानो खुशियों को पुनः उसके घर आने की राह मिल गई है। आज उसके अपमान के दंश ने उसके बेटे की जीवन की राह परिवर्तित कर दी।
निभा राजीव निर्वी
सिंदरी धनबाद झारखंड
स्वरचित और मौलिक रचना