भाग्यशाली से भाग्यहीन – विभा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

         जबलपुर में रहते हुए मुझे चार महीने हो रहे थे, इस बीच आसपास रहने वालों से मेरी अच्छी-खासी पहचान भी हो गई थी।उन सबके घर भी आना-जाना हुआ।उसी मोहल्ले में एक बड़ी कोठी भी थी जिसकी बनावट तो पुरानी थी लेकिन साज-सजावट ऐसी कि बरबस ही लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर ले।

मैंने कई बार उस कोठी में जाने का मन बनाया लेकिन जाना नहीं हो पाया।एक दिन मैंने अपनी हमउम्र पड़ोसिन देविका से उस कोठी में जाने की इच्छा जताई तो वो अनमने भाव से बोली,” जाकर क्या करेंगी…बड़े लोगों के ढ़ंग निराले होते हैं।” मैंने फिर कभी देविका के सामने कोठी की चर्चा नहीं की।

         एक दिन परेशान-सी देविका मेरे पास आई और बोली,” सुनने में आया है कि कोठी वाले बहुत सीरियस हैं…मेरी सास तो जेठजी के पास गई हैं…तो अब मुझे ही उन्हें देखने जाना पड़ेगा…आप साथ चलेंगी…।” मैंने सोचा, कोठी देखने की इच्छा पूरी हो जाएगी और पड़ोसी-धर्म भी निभ जायेगा।यही सोचकर मैंने देविका को हाँ कह दिया और उसके साथ चली गई।

      कोठी का इंटीरियर देखकर तो मेरी आँखें फटी की फटी रह गई।लेकिन तुरंत मैंने खुद को संभाला क्योंकि हम किसी बीमार से मिलने जा रहे थे, ऐसे में चेहरे पर गंभीरता का आवरण ओढ़ना आवश्यक था।बड़ा गलियारा पार करके हम हाॅलनुमा कमरे में पहुँचे जहाँ मैंने एक कशीदाकारी किये बड़े पलंग पर एक जीर्ण काया को निश्चेष्ट अवस्था में देखा।देविका ने धीरे-से मेरे कान में कहा,” ये ही कोठी के मालिक हैं..कई महीनों से बीमार हैं…अब तो डाॅक्टर ने जवाब दे दिया है।”

  ” ओह..और इनके बच्चे…।” आसपास खड़ी भीड़ में उनकी पत्नी- बच्चों को तलाशते मैंने पूछ लिया।

   ” पता नहीं…नहीं आये होंगे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।” अपने कंधे उचकाते हुए देविका बोली तो हठात् मेरे मुँह से निकल गया,” हाय री किस्मत…इतनी दौलत होते हुए भी संतान पास नहीं हो तो कितना दुख होता है..बेचारे कितने भाग्यहीन हैं जो अंतिम समय में भी…।”

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   ” ये तो उनके कर्मों का…चलिये, बाहर लाॅन में चलते हैं..।” 

  ” हाँ- हाँ…यहाँ तो आने-जाने वालों का ताँता लगा हुआ है..ऐसे में…।” देविका की अधूरी बात ने मुझे कोठी के मालिक की ज़िंदगी के बारे में जानने की जिज्ञासा को बढ़ा दिया था।

    लाॅन में आकर हम दोनों बैठ गये।देविका इधर-उधर की बातें करने लगी तो मैंने टोक दिया,” आपने ऐसा क्यों कहा कि कर्मों का…प्लीज़ पूरी बात बताइये ना..।” कहते हुए मैंने उनका हाथ पकड़ लिया।

    ” ठीक है बताती हूँ।मेरी सास ने बताया कि….कोठी के मालिक गंगाधर के पिता गाँव के जाने-माने ज़मींदार थे।इकलौती संतान होने के कारण घर के लोग उन्हें हथेली पर रखते थे।पढ़ाई में उनका तनिक भी मन नहीं लगता था।पौ फटते ही वो मुहल्ले के बच्चों के साथ खेलने और दूसरों के बगीचे के फल तोड़ने निकल जाते थे।

गाँव वाले लिहाज़ के मारे उनकी शिकायत नहीं करते लेकिन उनके पिता के कानों तक खबर तो आ ही जाती थी।तब ज़मींदार साहब पत्नी से बोले,” तुम्हारा बेटा तो हठधर्मी होता जा रहा है..अपने कलेजे पर पत्थर रख लो..मैं उसे पढ़ने के लिये शहर भेज रहा हूँ।” बात गंगाधर को मालूम हुई तो उसने अपनी दादी के सामने रोना शुरु कर दिया..दादी ने भी कह दिया,” जीते-जी तो हम अपने पोते को आँखों से दूर नाहीं होने देंगे।” अपनी अम्मा की बात ज़मींदार साहब टाल न सके…गंगाधर गाँव में ही रहकर दिखावे के लिये स्कूल जाते रहे…मूँछों की लकीरें बनने के साथ-साथ उनकी उद्डंता भी बढ़ती गई।

      अम्मा जी के देहांत के बाद ज़मींदार साहब बेटे को  लेकर शहर चले गये और काॅलेज़ में दाखिला करा दिया।उसके रहने की व्यवस्था करके वो वापस आ गये लेकिन महीने भर बाद ही उसकी शिकायतें आने लगी तब उन्होंने ज़मींदारी का काम एक विश्वासपात्र के हाथ सौंप कर पत्नी को लेकर बेटे के पास आ गये और कोठी बनवाकर शहर में ही बस गये।

      गंगाधर अब इक्कीस वर्ष का नौजवान हो चुका था।उनका गठीला बदन और आकर्षक व्यक्तितव बरबस ही नवयुवतियों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेता था लेकिन धन की अधिकता ने उसे अहंकारी, दंभी और व्याभिचारी भी बना दिया था।

         एक दिन गंगाधर को नशे में धुत देख उनकी माँ ने उन्हें टोक दिया।जवाब में उन्होंने माँ को ऐसे घूरकर देखा जैसे अभी कच्चा खा जाएँगे।हे भगवान! ये कैसी औलाद दे दी है हमें..।बेटे के जन्म पर जो लोग ज़मींदार साहब को भाग्यशाली कहते थें, वही अब उन्हें भाग्यहीन कहने लगे।तब उनकी पत्नी बोली,” क्यूँ न हम अपने बेटे का ब्याह कर दे…क्या पता, बहू के भाग्य से हमारा बेटा ज़िम्मेदार बन जाये।”

      पत्नी की बात मानकर ज़मींदार साहब सुयोग्य कन्या तलाशने लगे लेकिन गंगाधर के बिगड़ैल स्वभाव के कारण कोई अपनी बेटी उन्हें देना नहीं चाहते।तब उन्होंने दूसरे शहर के एक संभ्रांत परिवार की सुकन्या गौरी के साथ गंगाधर का विवाह करा दिया।

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     गौरी साक्षात् लक्ष्मी थी।उसका मुखड़ा देखकर गंगाधर ने अपने बहके हुए कदम को रोक लिये और पिता के साथ गाँव जाकर ज़मींदारी का काम भी देखने लगे।इसी बीच वो दो बेटों आकाश और अनंत के पिता बन गये।उन्हें देखकर मित्र- हितैषी कहते,” गंगाधर..तुम तो बहुत भाग्यशाली हो…पिता से संपत्ति मिली…गौरी भाभी ने दो प्यारे बेटे दिये…।” सुनकर वो मुस्कुरा देते।ज़मींदार साहब और उनकी पत्नी का समय पोतों के साथ खेलते हुए बीतने लगा।

      फिर समय ने करवट बदली…महीने भर के अंदर ही गंगाधर के माता-पिता चल बसे और फिर वो पहले वाले गंगाधर बन गये।रात को देर से आना…शराब पीना और कभी-कभी किसी महिला का सहारा लेना…।पति का ऐसा रूप देखकर गौरी चकित रह गई।उसने रोकना चाहा तो गंगाधर ने उस पर हाथ उठा दिया।तब घर के नौकरों ने उसे गंगाधर का इतिहास बताया तो उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई थी।उसने निश्चय कर लिया कि अब वो अपने बेटों को पढ़ा-लिखाकर एक अच्छा इंसान बनायेगी।उधर गंगाधर अपने बेटों को अपने जैसा ही बनाना चाहते थे।गौरी के मना करने के बावज़ूद भी वो घर में ही शराब की बोतल खोलते और आकाश-अनंत को अपने पास बुला लेते।

       आकाश समझदार था, उसने अपनी माँ की बात मानी और मन लगाकर पढ़ाई करने लगा।अनंत मन का कमज़ोर था, इसलिये वो पिता के ही बनाये रास्ते पर चलने लगा।

     आकाश को एक मल्टीनेशनल कंपनी में ज़ाॅब मिल गया और वो मुंबई चला गया।साल भर बाद उसने अपने सहकर्मी विनीता के साथ विवाह कर लिया।अनंत पिता की तरह ही शराबी बन गया था..देर रात घर लौटता…माँ कुछ कहती तो उससे झगड़ा करता।गौरी का अपने पति के साथ तो नाम मात्र का रिश्ता रह गया था

लेकिन बेटे का मोह वो कैसे छोड़ सकती थी..वो चाहकर भी अनंत के बहके कदम को नहीं रोक पा रही थी।फ़ोन पर आकाश से बात करती..अनंत की बात करते हुए उसकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगते।आकाश उसे दिलासा देता कि आप चिंता मत कीजिए..सब ठीक हो जाएगा।

     कहते हैं, धन इंसान की हर ऐब(खामी) को ढ़ाँप देता है।अनंत की खामियों को भी उसके पिता के धन ने छिपा दिया।उसने अपने मित्र की बहन शिवानी के साथ विवाह रचा लिया।विवाह के कुछ महीनों के बाद एक दिन अचानक अनंत के पेट में दर्द उठा।जाँच के बाद डाॅक्टर ने बताया कि कम उम्र में अत्यधिक मदिरापान करने से उसे लीवर कैंसर हो गया है और अब वो चंद दिनों का मेहमान है।

       गौरी ने अपने बेटे को बचाने के लिए ज़मीन-आसमान एक कर दिया लेकिन फिर भी भगवान को दया नहीं आई।अनंत चला गया…शिवानी अपने मायके चली गई।बेटे के गम में गौरी पगला-सी गई थी, तब आकाश आकर उसे अपने साथ ले गया।

        बेटे के दुख से उबरकर गंगाधर फिर से अपनी दुनिया में रम गये।अपने अंतिम समय में गौरी एक बार पति को देखना चाहती थी लेकिन दंभी गंगाधर नहीं गये।कहते हैं, दौलत भी तभी आपका साथ देती है, जब तक आपका शरीर चलता है।गंगाधर भी एक दिन बिस्तर पकड़ लिये तब उनके आगे-पीछे चलने वालों ने उनका साथ छोड़ दिया।दौलत के बल पर उनके पास नौकरों की फ़ौज़ तो थी लेकिन अपना कोई नहीं था।अब जो इंसान खुद अपने कर्मों से भाग्यशाली से भाग्यहीन बना हो, उस पर कैसी दया…।” कहते हुए देवकी ने एक लंबी साँस ली।

     न जाने क्यों…अब वो कोठी मुझे बदरंग नज़र आ रही थी।मुझे वहाँ एक पल भी ठहरना गँवारा न हुआ।मैंने देवकी से कहा,” चलिये..घर चलते हैं..मेरे बच्चे स्कूल से आते…।”

      ” हाँ-हाँ…चलिये…।”

    हम दोनों अपने-अपने घर चले आये।घर आकर मैं पति- बच्चों को खाना खिलाने और बातें करने में व्यस्त हो गई।अगले दिन दोपहर में देवकी का फ़ोन आया,” मिसेज़ गुप्ता…कल रात कोठी वाले ने अंतिम साँस ले ली।आधे घंटे में मैं उनके घर जाऊँगी…आप चले..।”

    ” नहीं देविका..ऐसे भाग्यहीन का अंतिम दर्शन करने में मेरी कोई रुचि नहीं है।” कहकर मैंने फ़ोन रख दिया।

                                विभा गुप्ता

# भाग्यहीन              स्वरचित, बैंगलुरु 

                 कुछ लोग अपने अच्छे कर्म से अपना भाग्य बना लेते हैं और कुछ अपने अहंकार के अंधेरे में भटककर खुद को भाग्यहीन बना लेते हैं जो दया के नहीं बल्कि घृणा के पात्र होते हैं।गंगाधर भी उन्हीं में से एक थे।          

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