माया देवी एक सत्तर वर्षीय महिला थीं, जो एक अर्धशहरी जनपद में, अपने बड़े से घर में अकेली रहती थीं. उनके पति का निधन कुछ वर्षों पहले हो चुका था.
उनके दो बेटे – नीरज और अमित – अपने अपने परिवारों के साथ रह कर, महानगरों में, अच्छी नौकरी करते थे. बेटों ने माँ से कहा भी था कि वे उन्हें अपने साथ ले जाना चाहते हैं, लेकिन माया देवी ने अपना घर छोड़ने से इनकार कर दिया था.
इस घर से उनके स्वर्गीय पति की स्मृतियाँ जुड़ी हुई थीं.
उन्हें स्थान से भावनात्मक लगाव था.
माया देवी की जीवनशैली काफी सरल थी
. प्रातः, जल्दी उठकर पूजा-पाठ करना, फिर बगीचे में पौधों की देखभाल करना और शाम को पड़ोस की महिलाओं से बातचीत करना उनकी दिनचर्या थी. लेकिन समय के साथ उनकी ऊर्जा कम होने लगी थी. आयु बढ़ने के साथ ही कुछ शिथिलता अनुभव हो रही थी.
उन्हें अब अकेले घर संभालना कठिन लगता था, और इस अकेलेपन में उन्हें बेटों की कमी तीव्रता से अनुभव होने लगी थी.
माया देवी को बेटों से कोई शिकायत नहीं थी. दोनों ही महीने के अंत में उन्हें व्यय के लिए, कुछ धन नियमित रूप से, भेजते थे, त्योहारों पर फ़ोन भी करते थे, और वर्ष में एक बार मिलने भी आते थे. लेकिन माया देवी को यह अनुभव होने लगा था कि उनकी भावनात्मक आवश्यकताओं को कोई नहीं समझ रहा.
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उन्हें अपने बेटों का साथ चाहिए था, उनकी हँसी-ठिठोली, उनके बच्चों की बाल-सुलभ मीठी मीठी बातें और बहुओं का ममत्व .
पर बेटों को बुलाना आसान नहीं था. हर बार जब माया देवी फोन करतीं, तो दोनों एक ही बात कहते, “माँ, अभी काम बहुत है, अभी छुट्टी नहीं मिल पा रही. अगली बार अवश्य आएँगे ”
माया देवी के दिल में यह बात बैठ गई कि बेटों को कदाचित, उनके अकेलेपन का अनुमान नहीं है. इसी सोच के साथ उन्होंने एक योजना बनाई.
एक दिन, माया देवी ने नीरज को फोन किया. उनकी आवाज़ में चिंता और निर्बलता झलक रही थी. उन्होंने कहा, “बेटा, पिछले कुछ दिनों से मुझे बहुत कमजोरी महसूस हो रही है. लगता है अब शरीर मेरा साथ नहीं दे रहा. डॉक्टर ने भी कहा है कि मुझे देखभाल की सख्त ज़रूरत है।”
नीरज ने कुछ देर चुप रहकर कहा, “माँ, आप चिंता मत कीजिए। मैं डॉक्टर से बात कर लूंगा अगर ज्यादा दिक्कत हो तो आप किसी को बता दीजिए। मैं जल्द आने की कोशिश करूंगा. “
नीरज का उत्तर सुनकर माया देवी को थोड़ा दुख हुआ, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. उन्होंने अमित को भी फ़ोन किया और वही बात कही। अमित ने थोड़ी चिंता जताई, लेकिन उसने भी आने का वादा नहीं किया.
माया देवी ने अपने पड़ोस में रहनेवाली शान्ता जी से सहायता ली.
शान्ता जी एक एन जी ओ में काम करती थीं.. उन्होंने ने माया देवी के, बेटों को फ़ोन किया और माया देवी की निरंतर देखभाल की आवश्यकता पर बल दिया..
उन्होंने कहा कि माया देवी अवसाद ग्रस्त सी हो रही हैं.. उन्हें तुरंत देखभाल की आवश्यकता है.
शान्ता जी का फ़ोन सुनते ही दोनों बेटे चिंतित हो गए. वे अपने-अपने परिवारों के साथ माँ के पास आने के लिए तुरंत तैयार हो गए.
जब नीरज और अमित अपने परिवार के साथ घर पहुँचे, तो माया देवी बिस्तर पर लेटी हुई थीं. उनके चेहरे पर गहरी थकान और हताशा दिख रही थी.
बेटों ने उनके पास बैठकर उनके हालचाल के विषय में जानकारी ली, बहुएं रसोई में भोजन आदि की व्यवस्था में लग गयीं.. और पोते-पोतियां पूरे घर में दौड़ने भागने लगे. घर का वातावरण बिल्कुल बदल सा गया.
शीघ्र ही में माया देवी के स्वास्थ्य में सुधार दिखने लगा.
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वे धीरे-धीरे बगीचे में जाने लगीं, बच्चों के साथ समय व्यतीत करने लगीं और घर में बहुओं के साथ हास – परिहास करतीं.
बेटों ने उनके इस स्वास्थ्य को गंभीरता से लिया और अपने-अपने काम छोड़कर माँ के साथ अधिक समय व्यतीत करने लगे.
एक दिन, जब सभी रात के भोजन के बाद बैठक में बैठे थे, माया देवी ने मुस्कुराते हुए कहा, “बेटा, अब मेरी तबीयत बिलकुल ठीक है। सच कहूँ तो मैं बीमार थी ही नहीं. ”
नीरज और अमित ने चौंककर पूछा, “तो फिर आपने हमें क्यों बुलाया?”
माया देवी ने गंभीरता से जवाब दिया, “बेटा, मैं अकेलेपन से बीमार हो रही थी. इस घर में बस दीवारें रह गई थीं. मुझे तुम्हारी ज़रूरत थी, तुम्हारे साथ की.” कभी-कभी सेवा करवाने के लिए बीमार होने का दिखावा भी करना पड़ता है. “
बेटों की आँखों में आँसू आ गए. अमित ने कहा, “माँ, हमसे बड़ी गलती हो गई. हम यह समझ ही नहीं पाए कि मात्र पैसे भेजने और फोन पर बात करने से आपका अकेलापन दूर नहीं होगा. अब हम यह गलती दोबारा नहीं करेंगे ”
नीरज ने भी कहा, “माँ, अब हम हर महीने बारी-बारी से आपके पास आया करेंगे और छुट्टी के दिनों में आपको अपने साथ ले जाया करेंगे “
इसके बाद, दोनों बेटे हर महीने अपनी माँ के पास आने लगे. घर में बच्चों की चहल-पहल और बहुओं का प्यार माया देवी के जीवन को फिर से खुशहाल बनाने लगा. उन्होंने अनुभव किया कि उनकी छोटी-सी योजना ने उनके जीवन को परिवर्तित कर दिया .
माया देवी ने मन ही मन सोचा, “कभी-कभी अपनों को अपनी ज़रूरत का एहसास दिलाने के लिए थोड़ा नाटक करना जरूरी हो जाता है. ”
कमलेश वाजपेयी
# कभी-कभी सेवा करवाने के लिए बीमार होने का दिखावा भी करना पड़ता है ” पर आधारित कहानी प्रेषित है.