रामदीन काका एक छोटे से गाँव में रहते थे। उम्र का असर उन पर साफ़ झलकता था – सफेद
बाल, झुकी हुई कमर और चलते समय लाठी का सहारा। उनके तीन बेटे थे – सुनील, विनोद, और
मनीष, जो अब शहरों में बस चुके थे और अपनी-अपनी नौकरियों और परिवार में व्यस्त थे।
रामदीन काका गाँव में अकेले ही रहते थे, जबकि उनकी पत्नी का देहांत कुछ साल पहले हो चुका
था।
वृद्धावस्था में इंसान को दो चीजों की सबसे अधिक आवश्यकता होती है – अपनों का साथ और
देखभाल। परंतु रामदीन काका के जीवन में यह दोनों चीजें अब मानो कहीं खो गई थीं। उनके
बेटे उन्हें पैसे तो भेजते थे, लेकिन उनके पास आकर समय बिताने का न तो वक्त था और न
ही ख्याल। रामदीन काका दिनभर घर में अकेले बैठे रहते, बाहर जाने पर गाँव के लोगों से
बातचीत कर लेते, पर उनके दिल के अंदर एक खालीपन था जिसे वे किसी को नहीं दिखा पाते
थे।
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एक दिन रामदीन काका ने अपने सबसे बड़े बेटे सुनील को फोन किया। उन्होंने अपनी आवाज़
में थकान और दर्द भरते हुए कहा, "बेटा, मुझे बहुत कमजोरी महसूस हो रही है। लगता है अब
यह बूढ़ा शरीर ज्यादा दिन साथ नहीं देगा।" सुनील ने फ़ोन पर थोड़ी चिंता जताई और कहा कि
वह जल्द ही आकर उनका हाल-चाल लेगा। पर जैसे ही उसने फोन रखा, वह फिर से अपने काम
में व्यस्त हो गया और गाँव जाने की बात को भूल गया।
इस घटना के कुछ दिनों बाद रामदीन काका ने सोचा कि शायद बेटों के ध्यान की ओर खींचने
के लिए उन्हें कुछ बड़ा करना पड़ेगा। उन्होंने योजना बनाई कि वे गाँव के डॉक्टर के पास जाएँगे
और कोई ऐसी बीमारी का बहाना बनाएँगे जिससे उनके बेटे उनकी सेवा के लिए गाँव आने को
मजबूर हो जाएँ।
अगले दिन रामदीन काका गाँव के डॉक्टर, डॉ. शर्मा के पास गए। डॉ. शर्मा एक अनुभवी डॉक्टर
थे, जो वर्षों से रामदीन काका के परिवार के अच्छे मित्र भी थे। रामदीन काका ने उनसे अपनी
योजना साझा की और कहा, "डॉक्टर साहब, आप मेरे बेटों को फोन करके कह सकते हैं कि मैं
बीमार हूँ और उन्हें मेरी देखभाल के लिए यहाँ आना चाहिए?"
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डॉ. शर्मा पहले तो चौंक गए, पर रामदीन काका की हालत और उनके अकेलेपन को समझते हुए
उन्होंने मदद करने का निर्णय लिया। उन्होंने सुनील को फोन किया और गंभीरता से कहा,
"सुनील, तुम्हारे पिताजी की हालत ठीक नहीं लग रही है। उन्हें देखभाल की सख्त जरूरत है। मैं
तो एक डॉक्टर के नाते उनका इलाज कर सकता हूँ, पर उन्हें तुम्हारे साथ की भी आवश्यकता
है।
इस बार सुनील ने मामले की गंभीरता को समझा और तुरंत गाँव आने का निश्चय किया। उसने
अपने भाइयों, विनोद और मनीष को भी यह खबर दी। तीनों भाई अपने-अपने परिवार के साथ
गाँव पहुंचे। वर्षों बाद रामदीन काका के घर में रौनक लौटी थी। घर में बच्चों की किलकारियाँ
गूंजने लगीं, बहुएं घर के कामों में लग गईं, और बेटों ने अपने पिता की सेवा करने का संकल्प
लिया।
रामदीन काका अपने बेटों और पोते-पोतियों के साथ समय बिताते हुए बहुत खुश थे। उनके दिल
का खालीपन धीरे-धीरे भरने लगा था। बेटों ने उनके साथ बैठकर कई पुरानी बातें कीं, बचपन की
कहानियाँ सुनीं और अपने पिता के अनुभवों को भी जाना। इस बीच, रामदीन काका को अपनी
योजना की सफलता पर हल्की-सी हंसी भी आती थी, पर वे जानते थे कि यह छोटा-सा नाटक
करना उनके लिए कितना जरूरी हो गया था।
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विनोद, जो हमेशा व्यस्त रहता था, ने अपने पिता से पूछा, "बाबूजी, आपने कभी यह नहीं बताया
कि आपको अकेले रहना कितना मुश्किल लगता है।
रामदीन काका ने थोड़ी देर चुप रहकर जवाब दिया, "बेटा, वृद्धावस्था में बीमारियाँ तो आती-जाती
रहती हैं, पर असली बीमारी यह अकेलापन होता है। मैंने तुम लोगों को फोन किया, बार-बार
बुलाया, लेकिन तुम सब व्यस्त हो। इसलिए कभी-कभी सेवा करवाने के लिए बीमार होने का
दिखावा भी करना पड़ता है।
बेटों के चेहरे पर झिझक और ग्लानि झलकने लगी। उन्हें एहसास हुआ कि वे अपने पिता को
अनजाने में कितना अकेला छोड़ आए थे। मनीष ने कहा, "पिताजी, हमसे बहुत बड़ी गलती हो
गई। हम सबको आपकी याद तो आती थी, पर हम इसे नज़रअंदाज़ करते रहे।"
बेटों ने मिलकर तय किया कि अब हर महीने में से कुछ दिन वे बारी-बारी से गाँव आकर अपने
पिता के पास रहेंगे। उन्होंने गाँव के कुछ लोग भी नियुक्त कर दिए, जो हर दिन रामदीन काका
का हाल-चाल लेते रहें और उनकी देखभाल करें। इसके साथ ही, उन्होंने आधुनिक तकनीक का
सहारा लिया और उनके घर में एक वीडियो कॉल सिस्टम लगवाया ताकि वे रोज़ उनके साथ
वीडियो कॉल पर बात कर सकें।
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रामदीन काका ने अपने बेटों की इस समझदारी पर संतोष की साँस ली। अब उन्हें यह जानकर
खुशी होती थी कि उनकी सेवा और साथ की जरूरत उनकी संतानों ने समझी है। उनके बेटे भले
ही शहर में रहते हों, लेकिन अब वे रोज़ उनके जीवन का हिस्सा थे।
इस तरह से कुछ दिनों का यह "बीमार होने का दिखावा" उनके जीवन की एक नई शुरुआत बन
गया। रामदीन काका के दिल में संतोष था कि उनके बच्चों ने उनकी भावनाओं और जरूरतों को
समझा और अब वे अकेलेपन से मुक्त होकर अपने बच्चों और पोते-पोतियों के प्यार और साथ
का आनंद ले सकते थे।
अकेलेपन से जूझ रहे बुजुर्गों को कभी-कभी अपने बच्चों का ध्यान खींचने के लिए खुद को
कमजोर दिखाना पड़ता है। यह कहानी हमें सिखाती है कि परिवार के बुजुर्गों की देखभाल केवल
आर्थिक मदद से नहीं होती, बल्कि उनके साथ समय बिताकर, उनकी भावनाओं को समझकर ही
सच्ची सेवा की जा सकती है।
#”कभी कभी सेवा करवाने के लिए बीमार होने का दिखावा भी करना पडता है।
संजय निगम