माधवी जी अभी अभी अपनी भतीजी यानी कि जेठजी की लड़की की शादी से लौटीं थीं। उनका मन बड़ा ही खिन्न था कारण वहां पर जो व्यवहार उनके एवं उनके परिवार के साथ किया गया वह अत्यंत दुखद एवं नकारात्मक था।परायों की तरह किया गया व्यवहार उन्हें अन्दर तक कचौट गया। उनका घर करीब पन्द्रह किलोमीटर दूर था,सो वे सुबह से शाम तक के कार्यक्रम में शामिल होने सपरिवार आ गईं थीं। रात को फेरे थे सो बार-बार आना जाना छोटे बच्चों के साथ संभव नहीं था सो रात को रूकने के हिसाब से ही आ गईं थीं।पर ये क्या न ही तो रूकने की कोई जगह दी गई न कहीं बच्चों को सुलाने की व्यवस्था। एक छोटे-से कमरे में कई बाहरी परिवारों के साथ बैठीं थीं। बच्चे छोटे थे सो सोने के लिए परेशान होने लगे।उनकी समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। उन्होंने घर की बड़ी बहू भतीजे की पत्नी से कहा अनु बच्चों को कहां सुलाऊं कोई जगह बताओ।
चाची जगह तो जो है वही है यहीं सुला दो।
यहां इस कमरे में तो इतनी भीड़ है कोई भी सोते बच्चे पर पैर रख देगा पता ही नहीं चलेगा कारण सर्दीयों के दिन थे पांच छः रजाइयां फैली हुई थीं ।
तुम्हारे कमरे में जगह हो तो वहां सुला दूं।
नहीं चाची वहां तो मेरी बेटी सो रही है उसकी नींद डिस्टर्ब होगी कह वह चली गई।
तब माधवी जी ने सोचा जब किसी को जरूरत ही नहीं है तो हम यहां रूक कर क्या कर रहे हैं।घर चलें बच्चे तो आराम
से सोयेंगे।हो गया सब कन्यादान। रात भर बैठे-बैठे कैसे निकलेगी। उन्होंने अपने पति मनोज जी से घर चलने को कहा।
किन्तु वे बोले अभी फेरे पड़ने बाकी हैं हम परिवार के सदस्य हैं ऐसे कैसे शादी में से बापस चल सकते हैं।तुम्ही सोचो क्या ये ठीक लगेगा।
माधवी जी ठीक तो नहीं लगता और मैं जाना भी नहीं चाहती थी किन्तु बच्चे सोने को परेशान हो रहे हैं मैं उन्हें कहां सुलाऊं।
मैं तो जैसे तैसे बैठकर भी समय निकाल लेती किन्तु बच्चों का क्या करूं।
ठीक है देखता हूं कहकर मनोज जी चले गए। जब मनोज जी ने अपने बड़े भाई से कहा कि अब हम चलते हैं सुबह को आ जायेंगे, तभी भाभी भी वहां आ गईं और बोलीं रुक जाते लल्ला।
भाभी रूकने के हिसाब से तो आये ही थे किन्तु बच्चों को सुलाने की भी जगह नहीं है वे सोने के लिए रो रहे हैं।
सो तो है कहकर चलतीं बनी।
अब मनोज जी की समझ में आ गया वे जबरजस्ती रिश्ता निभाने की कोशिश कर रहे हैं यहां उनकी किसी को जरूरत नहीं है। तुरंत माधवी जी से बोले चलो घर चलते हैं। रात को एक बजे वे बच्चों को ले घर से निकल पड़े किसी ने उनसे रूकने को नहीं कहा।
घर जाकर बच्चों को दूध पिला आराम से सुला दिया,पर उन दोनों की आंखों से नींद कोसों दूर थी। आज का व्यवहार उन्हें कचौट गया। दोनों एक-दूसरे से बोल नहीं रहे थे किन्तु दोनों ही दुखी थे। इतना परायापन। कहां इस घर में हमारे बिना पत्ता नहीं हिलता था।शादी व्याह होता कोई ओर काम पहले हमें खबर दी जाती थी कि आओ यह काम आ गया है।तब हम दूसरे शहर में रहते थे तुरंत दौड़े चले आते। कभी अपनी परेशानी नहीं देखी । छुट्टी लेनी पड़ती थी छोटे बच्चों को उठा कर चल देते थे। शादी की तैयारी, खरीद दारी, कपड़े गहने सब तो मेरी राय से होता था।भाई साहब कहते थे तुम्हारी सोच पुरानी है बहू से पंसद करवाओ वो पढ़ी-लिखी है नई उम्र की है उसकी पंसद सही रहेगी।
किन्तु धीरे-धीरे दूरियां बढ़ने लगीं। बड़ी बहू के आते ही जो त्योहार पर खाना पीना एक साथ होता था धीरे -धीरे कम होने लगा।दूसरी बहू के आने तक लगभग समाप्त हो गया। तीसरे बेटे की शादी तक घर में ही दो -दो बहुयें बेटीयां भी बड़ी हो गईं थीं सो उन्हें किसी बात के लिए नहीं पूछा गया।जब कभी मिलने जातीं तो परायों की तरह चाय नाश्ता करा विदा कर दिया जाता।जिस रसोई को उन्हें आते ही सम्हालना पड़ता था अब उसमें उनका प्रवेश भी निषिद्ध था। इस परिवर्तन से उनकी आत्मा को चोट लगती क्योंकि वे इतने सालों से मन से इस परिवार से जुड़ी हुई थीं। जिठानी ने ही उनके बच्चों के जन्म के समय उन्हें सम्हाला था। दोनों परिवार एक दूसरे के सुख दुख के साथी थे। अब तो साथ बैठ कर करवा चौथ,तीज,बट अमावस्या जैसी पूजा करना भी बहुओं, बेटीयों को पंसद नहीं था। मां को हर समय सिखातींअपन तो कर लेते हैं चाची को क्यों बुलाती हो वे जल्दी नहीं आ पातीं। पहले जिठानी बेटी को मेरी मदद के लिए भेज देतीं थीं वह भी बन्द कर दिया।
अपनी अवहेलना एवं बहुओं द्वारा ताना मारने पर चाची हम तो सुबह ही पूजा कर लेते हैं आपके कारण देर हो जाती है मेरे से इतनी देर भूखा नहीं रहा जाता सुनकर माधवी जी ने आगे से पूजा में जाने से मना कर दिया,अब अकेले ही कर लेतीं। धीरे-धीरे वे स्वयं मानसिक रूप अपने को अलग करने का प्रयास कर रहीं थीं, किन्तु सालों के सम्बन्ध वे एक झटके में नहीं तोड पा रहीं थीं।
जब भी मिलने जातीं हर बार कोई न कोई बात ऐसी जरूर होती कि वे अपने को अपमानित महसूस कर लौट आतीं फिर कभी ना जाने की सोच कर। किन्तु बुलाने पर दृढ़ता से मना नहीं कर पातीं, क्योंकि उम्र में वे बहुत छोटी थीं।जिठानी की उम्र उनकी मां से कुछ ही कम थी सो वे उन्हें पूरा आदर सम्मान देतीं थीं। उनके बच्चे उन्हीं की उम्र के थे सो पहले उनसे बहुत बनती थी वे,उनका पूरा ध्यान रखते थे एवं बेटी से भी सब बहुत प्यार करते थे। किन्तु उनकी शादी के बाद समीकरण बदलने लगे।
जब जीवन में नये रिश्तों का समावेश होता है पुराने रिश्ते टूटने लगते हैं और यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है नहीं तो रिश्ते इतने बढ़ जायेंगे कि उन्हें सम्हालना मुश्किल हो जाएगा। अपने आप ही नये रिश्तों से जुड़ाव महसूस होता है और पुराने रिश्तों से दूरियां बढ़ने लगती हैं। किन्तु दूरियां बढ़ाते समय भी इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि रिश्ता कैसा है,किसके साथ है, कितना प्रगाढ़ था, उससे कितनी
दूरियां बढ़ानी हैं,यह नहीं कि एक दम आप अपना व्यवहार इतना कटु और अपमान जनक कर लो कि सामने वाला जो कभी आपका बहुत जिगरी हुआ करता था उसे आप अपमानित करने लगो। ठीक है आवश्यकता नहीं है तो सम्बन्ध मत रखो, पर दोनों तरफ तो मत बोलो जैसा कि मेरी जिठानी ने शादी के बाद कहा तुम लोग तो शादी में रूके ही नहीं। मैंने तो तुम्हें दस दिन पहले से अटैची लेकर आने को कहा था तुम तो रोज चले जाते ओर तो ओर फेरों के समय भी नहीं रूके।
अब इस दोहरे मापदंड का क्या उत्तर है। छोटे होने से ज्यादा खुलकर जबाब नहीं दे पाए और वे अपनी बात बार-बार दुहरातीं रहीं और अपने को सच साबित कर उन्हें ही दोषी ठहरातीं रहीं और इसमें पूरा परिवार उनका साथ दे रहा था
अब उनके पास सिवा चुप रहने के क्या उपाय था जब वे कोई बात सुनने को ही तैयार नहीं थे।यह तो वही बात हुई कि चित भी मेरी पट भी मेरी।
शिव कुमारी शुक्ला
12-10-24
स्व रचित मौलिक एवं अप्रकाशित
वाक्य****रिश्तों में बढ़ती दूरियां