जब तक साँसों की डोर है, कर्मो का नहीं कोई छोर – संगीता त्रिपाठी : Moral Stories in Hindi

पिताजी के गुजरने के बाद देव माँ को अपने पास शहर ले आया।हर समय बोलने वाली माँ कुछ तो पति के गम में और कुछ अकेलेपन की वजह से खामोश हो गईं।माँ का चेहरा दिन-प्रतिदिन पीला पड़ता जा रहा था।रीना और देव माँ की हालत देख चिंतित हो उठे।

“पता नहीं क्यों माँ को कोई दवा असर नहीं कर रही,कितनी जगह दिखा दिया, कोई बीमारी भी नहीं निकल रही, फिर भी माँ का चेहरा पीला पड़ता जा रहा।”देव ने अपने दोस्त दीपक से कहा।

“देव तुम उनको किसी मनोचिकित्सक को दिखाओ, हो सकता है उनके मन में कोई बात हो जो उनको परेशान कर रही और वे कह नहीं पा रही हो,”दीपक ने कहा.

 क्या बात करता है, अरे वो पागल थोड़ी ना हैं जो मनोचिकित्सक को दिखाऊं “देव नाराज हो गया।

 दीपक ने फिर भी हार नहीं मानी और अपने दोस्त डॉ. रोहन का पता दे एक बार उनको दिखाने को बोला।

  कुछ दिन बाद देव माँ को लेकर डॉ. रोहन के पास गया.आप रोगी कि दिनचर्या बताइये,तभी मैं कुछ सलाह दे सकूंगा। मां ज्यादातर अपने कमरे में ही रहना पसंद करती हैं,किसी से ज्यादा बात नहीं करती,

 मैं माँ की सुख -सुविधा का पूरा ख्याल रखता हूँ, यहाँ तक कि माँ के कमरे के लिये मैंने अलग टी. वी. भी लगवा दिया, जिससे वो अपना मनपसंद प्रोग्राम देख सकें…., माँ खाना भी अपने कमरे मे खाती हैं…देव ने कहा।डॉ. रोहन समझ गये माँ यानि ऊषा जी अकेलेपन और असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हैं।

“मैं समझ गया मिस्टर देव…”हर बीमारी का इलाज सिर्फ दवा नहीं होती , कुछ बीमारियां अपनों का साथ और अपनों की परवाह से भी ठीक होती हैं, अकेलेपन की यही सबसे बड़ी दवा हैं “डॉ. रोहन ने देव को समझाया।,रोहन ने देव को अलग से समझाया और कुछ गोलियां लिख दी।

घर आ देव माँ को बैठक में बिठा कर अंदर चला गया।बच्चों और रीना से बात कर वापस आया।ऊषा जी ने बोला -देव मुझे मेरे कमरे तक पहुंचा दे।

 “आज सब साथ में खाएंगे ” .. तुम लोग खा लो मैं कमरे में खाउंगी “

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 “तुम अपने बेटे -बहू से नाराज हो माँ,जो तुम सबके साथ बैठना नहीं चाहती “बेटे का उदास स्वर सुन ऊषा जी विचलित हो गईं।श्याम जी के जाने के बाद अब देव ही उनके जीने का सहारा हैं,उसको कैसे दुखी देख सकतीं।

“ना बेटा,मैं नाराज नहीं हूँ,बस मुझे लगता अब मैं किसी काम की नहीं, अब जीने का मन नहीं करता”माँ की बात सुन देव चौंक गया,इतना दर्द माँ के दिल में है और उसने उनकी तकलीफ महसूस ही नहीं की।

 “क्यों माँ, तुम्हे जीने की इच्छा खत्म हो गई पर मुझे,रीना और बच्चों को तुम्हारी जरूरत हैं,पापा को तो खो दिया पर अब तुम्हें नहीं खो सकता।

देव की बात सुन,इतने दिनों बाद ऊषा जी के चेहरे पर मुस्कान आई।पूरे परिवार के साथ खाना खाने में ऊषा जी को बेहद आनंद आया।इतने दिनों से अकेले कमरे में खाते उनकी भोजन से अरुचि हो गई थी।आज थोड़ा सा खा कर भी बहुत तृप्ति महसूस कर रही थीं,पोते अमन और पोती अना की नोंक -झोंक उनको उनके बच्चों का बचपन याद दिला दिया।

रात सोने गईं तो नींद भी अच्छी आई। सुबह रीना और देव अपनी चाय ऊषा जी के साथ पी। देव ने आज फरमाइश भी कर दी। माँ कल दाल की कचौड़ी खिला दो, रीना के हाथों में वो टेस्ट नहीं हैं, जो तुम्हारे हाथ में है।रीना ने भी देव का समर्थन किया।

 ऊषा जी ने अगले दिन रसोई की कमान संभाल ली, बच्चे भी दादी के इर्द -गिर्द घूमते रहते, क्योंकि देव की कड़ी हिदायत थी ऊषा जी को अकेले नहीं छोड़ना हैं।ऊषा जी की मदद के लिये, पूरे टाइम की कामवाली रख ली गई।धीरे -धीरे देव -रीना और बच्चों ने उन्हें अहसास करा दिया कि वे परिवार के लिये खास हैं।

अब ऊषा जी ने दुबारा जिंदगी को नये सिरे से जीना शुरु कर दिया। शाम पार्क जाती, वहाँ भी कुछ सहेलियां बन गई। सबके अथक प्रयास से बिना दवा के ऊषा जी अपनों के साथ और परवाह से ठीक हो गई, अवसाद की ओर जाता उनका दिमाग अब ऊर्जा से भरपूर हो गया।

 सही कहा गया, जहाँ दवा काम ना आये वहाँ अपनों का साथ और परवाह,मरहम का काम करता है, परवाह जीने का संबल होता हैं, भले ही कैसी भी परिस्थितियां हो।आप सब क्या कहते हो दोस्तों, अक्सर घर के बड़ों के लिये मान लिया जाता वे अपनी जिंदगी जी लिये अब उनका कोई महत्व नहीं,

बस खाओ -पियो और कमरे में रहो, यही जिंदगी हैं। पर ऐसा नहीं है, आपका थोड़ा स साथ, थोड़ी सी परवाह उनके लिये संजीवनी का काम करती हैं। जब साँसो की डोर हैं, तब तक कर्मो का कोई छोर नहीं….।

–संगीता त्रिपाठी

VM

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