अपनों का साथ और आशीर्वाद – श्वेता अग्रवाल : Moral Stories in Hindi

“मैम, मेरी मम्मा आपसे मिलना चाहती हैं।”

“हाँ-हाँ मिलवाओ। मैं भी उनसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक हूँ।”

“अभी तो कोई अर्जेंट काम के कारण उन्हें फंक्शन से जाना पड़ा है लेकिन उन्होंने कहा है कि वह कल कॉलेज में आपसे मिलने आएगी।”

“ठीक है। कल 11से 12 बजे तक मैं फ्री हूँ।”

“ओके मैम। मैं मम्मा को बता दूँगी।” कहकर निधि चली गई।

दूसरे दिन 11 बजे निधि की माँ लता प्रोफेसर रचना से मिलने कॉलेज गई। “थैंक्यू, प्रोफेसर रचना आपसे मिलने के बाद तो मेरी बेटी का मानो काया-पलट ही हो गया है। लोगों से कटी-कटी रहने वाली निधि कभी डिबेट कॉम्पिटिशन जीतेगी। यह तो मैं सपने में भी नहीं सोच सकती थी।”

“ऐसी कोई बात नहीं है। कहते-कहते जैसे ही रचना ने निधि की माँ का चेहरा गौर से देखा तो उछल पड़ी “अरे! लता तू। मैं रचना, रचना शर्मा नहीं पहचाना?”

“रचना तू, लेकिन तेरी शादी तो तेरे B.A. फर्स्ट ईयर में रहते ही हो गई थी।

फिर तू यहाँ कैसे? यह कैसे हुआ?” लता ने चौंकते हुए कहा।

“अरे! लता शांत हो जा। सब बताती हूँ। पहले तू बैठ तो।” उसे आराम से चेयर पर बैठाते हुए रचना ने कहा।

“ले, बैठ गई। अब तो बता।” लता ने अधीर होते हुए कहा।

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“तेरी हड़बड़ाने की आदत अभी तक नहीं गई। अभी भी तुझे हर बात में जल्दी रहती है लेकिन निधि में बहुत ठहराव है।”

“वह सब छोड़ निधि के बारे में बाद में बात करेंगे पहले तू अपनी बात बता।” लता ने उत्सुकता से कहा।

“देख, लता जैसा कि तुझे मालूम ही है कि मेरी शादी B.A. फर्स्ट ईयर में ही हो गई थी। मेरे बाबूजी बेटियों को ज्यादा पढ़ाने के पक्षधर नहीं थे। इसलिए उन्होंने मेरे 18 साल के होते ही मेरा संबंध पक्का कर दिया था। मैं उनके सामने बहुत रोई-गिड़गिड़ाई लेकिन उन्होंने मेरी एक न सुनी और मेरी शादी हो गई। मैं शादी करके ससुराल आ गई।

नए माहौल में रच-बस गई लेकिन आगे पढ़ाई ना कर पाने की कसक कहीं ना कहीं मेरे अंदर दबी थी। इस कारण सभी तरह की सुविधा के बावजूद मैं खुश नहीं थी। यहाँ मेरे पति मिहिर की सोच भी महिलाओं के प्रति बाबूजी की तरह ही थी। उनके लिए मैं मात्र एक सजावटी गुड़िया थी, जिसे वह सजा-संवार कर तो रखता था लेकिन जिसके सपने, आकांक्षाओं, सोच से उसे कोई सरोकार नहीं था। इसी तरह धीरे-धीरे कुछ महीने बीत गए।

मेरी ननद स्नेहा B.A. सेकंड ईयर की स्टूडेंट थी। उसे कॉलेज आते-जाते देख मेरा भी मचलता लेकिन, मैं मजबूर थी क्योंकि मिहिर को मेरा आगे पढ़ना मंजूर ना था। आखिरकार मैं चोरी-छिपे स्नेहा की बुक्स से पढ़कर ही खुश हो जाती थी। कई बार में स्नेहा को चुपचाप नोट्स बनाकर भी देती थी। इसके बदले वह मुझे अपनी किताबों से पढ़ने देती। एक दिन जब मैं चुपचाप रूम में स्नेहा की किताबों से पढ़ रही थी तो सासू माँ ने देख लिया और मुझे पढ़ते देख वे बहुत सरप्राइज हुई।”

“स्नेहा की बुक्स के साथ तुम क्या कर रही हो?”

“ऐसे ही देख रही थी।” कहते-कहते हड़बड़ाहट में स्नेहा के लिए बनाए हिस्ट्री के नोट्स मेरे हाथों से गिर पड़े।

“यह क्या है?”

“माँजी, स्नेहा के नोट्स है।”

“लेकिन ये लिखाई तो स्नेहा की नहीं है। सच बताओ किसके है?”

“माँजी, मेरे। मैंने स्नेहा के लिए बनाए हैं।”

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“तुमने लेकिन तुम्हारे बाबूजी ने तो कहा था कि तुम्हें पढ़ाई-लिखाई में कोई इंटरेस्ट नहीं है। बेटा सच्चाई क्या है? मुझे बताओ। तुम्हें पढ़ना पसंद है ना। मैं पिछले कई दिनों से तुम्हें स्नेहा की किताबों से चोरी-छिपे पढ़ते देख रही हूँ।” मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए उन्होंने कहा।

“माँजी, मुझे पढ़ना-लिखना बहुत पसंद है। मैं पढ़-लिखकर कुछ बनना चाहती हूँ। मैंने मिहिर से कहा भी था कि मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ। लेकिन, उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि घर गृहस्थी संभालो। तुम्हारे इन पढ़ाई-लिखाई के चोचलों के लिए मेरे पास समय नहीं है।”

यह सुनते ही आगे बढ़कर मुझे सीने से लगा लिया “बेटा, अपने सपने पूरे करना कोई पाप नहीं है। तुम पढ़ना चाहती हो यह तो बहुत अच्छी बात है। तुम चलो मेरे साथ। अभी सेकंड ईयर के एडमिशन चालू है। हम फॉर्म लेकर आते हैं।”

“लेकिन माँजी, मिहिर। वे कभी नहीं मानेंगे। इस बारे में बात भी करना पसंद नहीं।” रचना ने उदास होते हुए कहा।

“उससे मैं बात करुँगी।”

शाम में इस बात का पता चलने पर मिहिर बहुत नाराज हुए लेकिन सासू माँ ढाल बनकर मेरे सामने खड़ी रही। “जब स्नेहा पढ़ सकती है तो रचना क्यों नहीं? ये किस किताब में लिखा है कि शादी के बाद एक स्त्री पढ़-लिख नहीं सकती। अपने सपने पूरे नहीं कर सकती।”

“लेकिन, माँ मैं नहीं चाहता कि यह पढ़े।”

“तू नहीं चाहता लेकिन रचना चाहती है। इसलिए यह पढ़ेगी। समझा।”

“माँ, तू कुछ नहीं समझती। कॉलेज-वॉलेज सब घर के बाहर घूमने के बहाने हैं। यह कोई पढ़-लिखकर निहाल नहीं करने वाली।”

“अच्छा, मैं नहीं समझती लेकिन तू तो समझता है ना इसे तो आजमा लेते हैं किसकी समझ सही है। मैं रचना का सेकंड ईयर में एडमिशन करा रही हूँ। यदि यह सेकंड ईयर की परीक्षा अच्छे अंको से पास कर लेती है, तो यह आगे पढ़ेगी नहीं तो चौका-चूल्हा संभालेगी। बोल है मंजूर।” मिहिर के पास उनकी चुनौती को स्वीकारने के अलावा कोई चारा न था।

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माँजी ने मेरा एडमिशन सेकंड ईयर में करा दिया और कहा “बेटा मैंने तुझे रास्ता दिखा दिया है लेकिन यह मंजिल तुझे खुद ही अपनी मेहनत से तय करनी है। यह मौका मत चूकना। अगर तुम अभी चूक गई तो फिर मैं भी तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर पाऊँगी।”

उनकी बात को आत्मसात करके मैं जी-जान से पढ़ाई में जुट गई । माँजी ने हर कदम पर मेरा साथ दिया। मुझे घर के कामों से ज्यादा से ज्यादा दूर रख पढ़ने का समय दिया। मेरे खाने-पीने और पढ़ाई का स्नेहा के बराबर ही ध्यान रखा। वो कहते हैं ना ‘अपनों का साथ’ हो तो कोई मंजिल दूर नहीं होती। वही मेरे साथ भी हुआ।

माँजी के साथ और आशीर्वाद से जब रिजल्ट आया तो मिहिर के साथ-साथ मैं भी चौंक गई। मुझे कॉलेज में तीसरा स्थान मिला था। उसके बाद तो मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और आज प्रोफेसर रचना के रूप में तुम्हारे सामने खड़ी हूँ।” 

फिर वह अपनी चेयर से उठते हुए बोली “लता, अब मेरी क्लास का टाइम हो रहा है। मैं चलती हूॅं। कभी घर आ तो बैठ कर गप्पे मारेंगे।”

“हाॅं-हाॅं किसी दिन समय निकाल कर जरूर आऊंगी।आखिर तुम्हारी सासू माॅं को थैंक यू भी तो बोलना है।”

“पर तुझे माँजी को थैंक यू क्यों बोलना है?”

“बोलना है यार। उनके कारण ही तो मेरी निधि को प्रोफेसर रचना जैसी काबिल प्रोफेसर मिली।” लता ने हँसते हुए कहा।

उसकी बात सुनकर रचना भी मुस्कुराते हुए अपनी क्लास की ओर चल दी।

धन्यवाद

श्वेता अग्रवाल

साप्ताहिक विषयप्रतियोगिता#अपनों का साथ

शीर्षक-‘अपनों का साथ और आशीर्वाद’

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