सिंदूर चमकता रहे मांग में – शुभ्रा बैनर्जी : Moral Stories in Hindi

शिखा बचपन से ही अपनी दादी को सजती संवरती देखती आई थी।शाम ठीक चार बजे कंघी से बाल बनाकर बढ़ा सा जूड़ा बनाती थीं वोन।बड़े माथे पर उंगली से ही सिंदूर की डिबिया से सिंदूर लेकर गोल बड़ी सी बिंदी लगाती थीं,और उसी सिंदूर से मांग भर कर अपने शाखा-पोला(बंगाली सुहागिनों की विशेष चूड़ी)में भी सिंदूर छुआ कर प्रणाम करती थीं।

शिखा ने एक दिन पूछा”दादी,इतनी बड़ी बिंदी क्यों लगाती हो तुम?यहां पर तो कोई और नहीं लगाता इतनी बड़ी बिंदी।और ये मांग में मोटी परत का सिंदूर,उफ्फ तुम्हें खुजली नहीं होती ?”दादी तब हंसकर कहतीं”अरे पगली,यही तो सुहाग की निशानी है।

हम औरतें पति की दीर्घायु की कामना करके रोज सिंदूर की बिंदी माथे पर और मांग भरते हैं।सुहाग अमर रहता है।शाखा -पोला भी तो सुहाग के कंगन हैं,इन्हें भी सिंदूर छुआ कर पति की लंबी आयु की कामना करतें हैं।गुड्डों तू जब ब्याह करके ससुराल जाएगी ना,मैं सिखा दूंगी बिंदी लगाना।”

शिखा चिढ़कर कहती”मुझे नहीं लगाना इतनी बड़ी बिंदी,और मांग में इतना सारा सिंदूर।तुम ही लगाओ।

देखते-देखते शिखा भी बड़ी हो रही थी,साथ में बूढ़े हो रहे थे दादा-दादी।

बुढ़ापा बढ़ने के साथ ही एक  विशिष्ट गुण पनपा दोनों में कि,दोनों अब एक दूसरे के बिना घर से बाहर नहीं निकलते थे।दादू को बैंक जाना हो,बाल कटवाने जाना हो, सब्जी लेने जाना हो,साथ में दादी का होना अनिवार्य हो गया था।शुभि की एक सहेली ने ही कह दिया”वाह शुभि ,तेरे दादा-दादी तो बुढ़ापे में भी लव बर्डस की तरह साथ रहतें हैं।अस्पताल के डाॅक्टर भी छेड़ ही देते दादू को”,क्या मुखर्जी बाबू, इंजेक्शन आपको लगाना है या मां जी को।

शुभि अगली बार दादाजी के साथ बैंक जाने की जिद करके बोली”दादू ,अब से मैं जाया करूंगी आपके साथ ,कहीं भी जहां आप जाना चाहे।आप मना नहीं करेंगे प्लीज़।”दादाजी ने शिखा को गोद में बैठाकर कहा”चलना है तुझे तो चला कर।दादी को भी सहारा हो जाएगा।मैं तो उसके सहारे जाता हूं,उसे तेरा संग मिल जाएगा।”

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शिखा ने चिढ़कर कहा”मतलब मैं जाऊं तो भी दादी जाएगी आपके साथ?”

“हां ,बेटा।अब हमारी इस उम्र में दोनों को एक दूसरे के पास ही‌ रहना चाहिए।क्या पता कब क्या हो जाए,तब अगर हम अपने जीवन‌ साथी को देख नहीं पाए ,तो आत्मा को भटकना पड़ेगा।”दादू की बात सुनकर शिखा भी अब हंस दी।ये साथ नहीं समर्पण था एक दूसरे के लिए।

अचानक दादा जी की तबीयत बहुत ही बिगड़ गई। दादा -दादी दोनों को छोटी बेटी(बुआ)के साथ रहने आना पड़ा,क्योंकि वो एक पैर से अपाहिज थीं।रेलवे में नौकरी मिल गई थी।अकेली रहने की परेशानी के चलते दादा -दादी को आना पड़ा अपना घर छोड़कर।शिखा की तो आत्मा ही चली गई मानो दादी के साथ।दशहरे की छुट्टियां लगते ही पहुंच गई थी अपने दादा -दादी के पास।

उसे देखकर दोनों खुश‌ होकर रोने लगे।अब शिखा नौंवी में पढ़ रही थी।खाना बना लेती थी अच्छा।शिखा के हांथ का खाना खाकर भर भरकर आशीर्वाद देते रहे दोनों। छुट्टियां खत्म होते ही शिखा ने दादी से कहा”दादी चलो ना ,कुछ दिनों के लिए अपने घर।बहुत अच्छा लगेगा।हम खूब कहानियां‌ सुनेंगे।मैं अमरूद चुराकर लाई दिया करूंगी,तुम नमक मिर्च लगाकर खाना।कुछ दिन‌ बाद ही आ जाना।”

शिखा की मनुहार सुनकर दादी रोने लगी।अपना इतना बड़ा घर छोड़कर,अपने बेटे-बहू, नाती-पोतों को छोड़कर रहना उन्हें भी नहीं भा रहा था।बेटी अकेले ड्यूटी और बाबा को नहीं संभाल पाएगी,जानती थी।दुलार कर कहा”गुड्डों,दादू की तबीयत थोड़ा और ठीक हो जाए,तब हम पक्का आ जाएंगे।शरप्राइश देकर आएंगे।”

अब शिखा क्या कहती।यहां आकर वही दादी की कंघी कर जूड़ा बना देती थी।सिंदूर और बिंदी वो खुद ही लगातीं थीं,वैसी ही विशाल लाल बिदी।अगले दिन शिखा को वापस जाना था।दादी अपने बिस्तर के पास बिठाकर बतिया रही थी शिखा से।अचानक उन्होंने कहा”,गुड्डो तू तो अब समझदार हो गई है।शादी ब्याह का मतलब भी समझती है।तुझे क्या लगता है?पत्नि सुहागन मरे तो सौभाग्यवती कहलाती है क्या?”

शिखा ने अचानक से ऐसे सवाल की उम्मीद नहीं की थी ,हड़बड़ा गई।दादी ने संयत करते हुए कहा”तू अपनी सोच बता।”

शिखा ने कहा”सब तो यही कहतें हैं कि सुहागन मरने से पुण्य मिलता है। स्वर्ग जातीं हैं वो नारियां।सिंदूर मांग में भर कर,माथे पर बड़ी बिंदी लगाकर और लाल बनारसी साड़ी पहनकर तुम्हारा जाने का मन है ना।मुझे मालूम है,तुम्हारी यह आख़िरी इच्छा रहेगी।खैर,यह सब बाद में सोचना।अभी तुम और दादू बहुत सालों तक रहोगे हमारे साथ।”

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दादी ने अपनी गोद में शिखा का सर रखकर पुचकारते हुए बोली”नहीं रे गुड्डों।मैं सुहागन नहीं ,अभागन ही मरना चाहती हूं।लोग सौभाग्य वती बोलें या ना बोलें।तेरे दादू की अंतिम व्यवस्था करके ही मैं जाना चाहती हूं।पचास साठ सालों से हम एक साथ हैं।उनके हर काम में मेरा साथ रहता है।इतनी बीमारी में मेरे अलावा किसी और के हांथ का बना खाना खाते हीं नहीं।नहाने जाने से पहले बाथरूम में गमछा,तेल ,साबुन रख के आती हैं

मैं।तब नहाते हैं।नहाकर निकलने के तुरंत बाद टेबल पर उनका खाना लगा कर रखती हूं,देर हो गई तो नहीं खाएंगे।इतना तामझाम करती आ रहीं हूं,इतने सालों से।मैं पहले चली गई इस दुनिया से तो,कौन करेगा इतना सब कुछ इन बुढ़ऊ के लिए।मैं इन्हें भेजकर ही जाऊंगी ,तू देखना।और सुहागन ही जाऊंगी।”,

दादी की बातों का गूढ़ रहस्य समझने लायक बुद्धि तो थी शिखा की।एक नारी होकर समाज में चल रही परंपरा को उन्होंने तोड़ने का मन बना लिया था।वैसे भी एक पत्नी ,जो पिछले पचास-साठ साल से पति के संग रहकर उनकी सेवा किए जा रही है,वह किसी सती से कम कहीं नहीं है।

सुबह ट्रेन में बैठकर भाई के साथ शिखा घर (कटनी)आ गई। पापा-मम्मी ने दादी का हाल -चाल पूछा,तो बताया शिखा ने”पापा ,दोनों को कभी भी कुछ भी हो सकता है।आप जाकर दोनों को ले आइये।जल्दी से जल्दी।”

एक हफ्ते बाद ही पापा लेने गए दोनों को।तभी शिखा की अर्धवार्षिक परीक्षा शुरू हो गई थी।पापा ने वहीं से टेलीग्राम भेजा कि दादू सीरियस हैं।मांको शिखा और बाकी भाई बहनों को लेकर । मनेंद्रगढ़ पहुंचकर देखा,बुआ के घर के बाहर भीड़ जमा है।मां ने कहा”लगता है बाबा(दादू)नहीं रहे।”शिखा तो रोते हुए अंदर पहुंची।अंदर पहुंची तो शिखा का रोना ही बंद हो गया।नीचे दादी का पार्थिव शरीर पड़ा हुआ था।

महिलाएं पीले रंग की पहनी हुई ब्लाउज को कैंची से काटकर सफेद ब्लाउज और सफेद साड़ी पहनाने की कोशिश कर रहे थे(विधवा का लिबास)।दादू बारह घंटे पहले ही विदा हुए थे।शिखा की बुआ ने बताया”,जैसे ही दादा(शिखा के पापा) आए ,दोनों खुशी-खुशी तैयार होने लगे,अपने घर जाने के लिए।शाम में ही बाबा(दादू)को अटैक आया और बच नहीं पाए।अच्छा हुआ कि दादा गंगाजल पिला पाया।

मां से छिपाकर बाबा को ले जाने की तैयारी की गई थी कि उन्हें पता ना चले।जैसे ही बाबा को घर से बाहर ले जा रहे थे,मां दहाड़े मारकर रोती हुई आई और बाबा से लिपटकर रोते-रोते बेहोश हो गईं।अभी तक उन्हें होश नहीं आया है।हास्पिटल में एडमिट थीं,बाबा का काम होते ही उनके कपड़े बदलने थे, सिंदूर पोंछना था तो घर ले आएं हैं।

होश में अब भी नहीं हैं वो,कुछ बोल ही नहीं रहीं।पंडित जी और मोहल्ले की उम्र दराज महिलाओं नै कहा है विधवा का लिबास पहनना चाहिए।”

शिखा और नहीं सुन पाई,दादी के पास जाकर जोर से चिल्लाती हुई बोली”दादी,तुम तो दादू को भेजकर जाना चाहती था ना,देखो दादू तो ठीक हैं अभी।तुम क्यों नहीं हो होश में।सपना देख रही हो क्या?दादू बुला रहें हैं तुम्हें,दवाई के लिए।”,

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पिछले चौबीस घंटो से बेसुध पड़ी दादी ने अपनी आंखें खोलीं और शिखा की तरफ देखा।सामने कमरे में दादू के बिस्तर की तरफ इशारा करके सिर घुमा दिया।उन्हें तभी पता चल चुका था कि उनके पति नहीं रहे।उस सती महिला ने होश तभी त्याग दिए थे,और अब प्राण त्यागने की तैयारी कर रहीं थीं।मां की तरफ देखा तो ,मां गीता पढ़ने लगी।आधी रात के पहले ही सिंदूर की गोल बिंदी माथे पर लगाएं,मांग सिंदूर से जग मग भरे उन्होंने इस दुनिया से विदा ली।

जहां दादू का अंतिम संस्कार हुआ था,ठीक उसी स्थान पर ही दीदू का दाह संस्कार भी किया गया।

शिखा को आज समझ में आया कि दादी वास्तव में सौभाग्यवती ही थी।पति के जाने के बाद अपनी मृत्यु का वरदान सिद्ध करके गईं वो।

शुभ्रा बैनर्जी 

सौभाग्यवती

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