कादम्बिनी ने अपनी ड्राइंग रूम की खिड़की से बाहर देखा …पीले फूलों की बहार आई हुई थी,उसने कैलेंडर पर निगाह डाली बस दो दिन बचे है बसंत पंचमी को…तभी हवा का वासंती झोंका उसे जैसे बाहर गॉर्डन तक ले आया…सिहराने वाली ये वही तो हवा है जो उसके बीसवें वसंत को मदहोश किए जाती थी…तभी तो नील के आकर्षण ने उसे दीवाना बना दिया था।पूरा कालेज ही नील के पीछे पागल था…ऊँचा-पूरा,कसरती शरीर, गोरा-चिट्टा रंग …जब वो बाईक से गुजरता तो जाने कितने दिल आह भरते…हर महीने तो वो बाइक बदल लेता था।यही तो था उसके मन का राजा…पर पापा ले आए साँवले से अविनाश का रिश्ता…एक बार जो उसे देखा तो दिल ही टूट गया। कहाँ तो वो बिल्कुल फिल्मी हीरो सा नील और कहाँ ये बिल्कुल घरेलू सा दिखनेवाला अनरोमेंटिक अविनाश…बिल्कुल वैसा जैसा पापा उसके लिए चाहते थे ।पढ़ा-लिखा और …संस्कारी…छोटे भाई बहनों के लिए समर्पित और इतनी कम उम्र में इंजीनियर…और सबसे बड़ी बात तो अविनाश ने कादम्बरी को देखते ही पसंद कर लिया…पर उसे वो बिल्कुल नही जमा। …और उसी शाम उसने नील को हिचकिचाते हुए अपनी पसंद बतानी चाही तो उसने अनसुना करते हुए हेल्प माँगी थी नई बाईक खरीदने में।निराश हो गई थी वो।
बस …पापा की पसंद को अपना बनाना पड़ा ….लेकिन उसके बाद उस साँवले अविनाश ने अवि बनने का सफर कैसे तय किया…उसकी छोटी से छोटी बात को सर आँखों पर रखा…एक दोस्त की तरह उसे कदम कदम पर जो साथ दिया कि जिंदगी से उसे कोई शिकवा ही नही रहा कब उसने उसे जीत लिया….और वो कब खुद को हार गई पता ही न चला।..यही मौसम तो था जब…बड़े संकोच से एक बसंती साड़ी लेकर आए थे परिणय से पहले अविनाश….तब तो नहीं पर आज वो वासंती हो रही थी जब बच्चे अपने घरौंदो मे जा चुके थे…एक झोंके ने उसे फिर आज में लौटा दिया। रिटायर्मेंट के बाद रोज मार्निंग वाक से लौटकर इसी तरह
…सामने गेट से अंदर आते हुए अवि ने ऐसे सर झुकाया जैसे वो कोई शहजादी हो और साठ बरस की कादंबिनी वासंती वासंती हो रही थी…उम्र का जिसपर असर न हो वही तो है असली रोमांस…कितने नाज़ से उसकी आँखें कह रही थी …पिया बसंती।
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रश्मि स्थापक
इंदौर