दावानल – रवीन्द्र कान्त त्यागी : Moral Stories in Hindi

हमारे गाँव की जिस बिजली (ट्यूबवेल) पर बाबा जी जा रहे थे उसके ऑपरेटर एक सरदार जी थे जिन्हे पूरा गाँव मिल्खा कहकर पुकारता था।

मिल्खा बाबू कोई सामान्य सरकारी आदमी नहीं थे। बरसों तक इस इलाके में रहने के कारण यहाँ के इस ग्रामीण वातावरण में पूरी तरह रच बस गए थे। किसी की बेटी की शादी होती तो बारात को जिमाते दिखाई देते। कोई बीमार हो तो अपनी साइकिल पर बिठाकर शहर डॉक्टर को दिखाने ले जाते थे। किसी भी किसान के घर खाना खा लेते और चौकड़ी में बैठकर ताश खेल लेते थे।

अलमस्त आदमी थे मिल्खा सिंह। गाँव के लड़कों के साथ कबड्डी खेल लेते। रिश्वत के रूप में मिली शराब को रिश्वत देने वाले के साथ बैठकर पी लेते। अपने घर के लिए गाँव से गन्ने और सब्जियाँ ले जाते। यहाँ तक कि कभी कभी रिश्ते तय करवाने में भी सहायता कर देते।

अभी कुछ दिन पुरानी बात है। गाँव में एक बारात आई हुई थी। हमेशा की तरह सरदार जी बारात की आवभगत में लड़की वालों की तरफ से जुटे हुए थे। बरातियों के हाथ धुलवा रहे थे। खाना परोस रहे थे और हलवाई को निर्देश दे रहे थे।

तभी मंडप की ओर से कुछ शोर सा सुनाई दिया। दूल्हे के बाप ने शराब पी रखी थी और बेटी के बाप पर बुरी तरह भड़क रहे थे। “हरकुलिस की साइकिल तय हुई थी और तुम ने न जाने कोण सी कंपनी की पुरानी सी साइकिल भेड़ दी। न बर्तन ढंग के हैं न तियल। हमे गिरा पड़ा समझ रखा है क्या। ये तो हमारी बेइज्जती है। भाड़ में गई ऐसी शादी। बारात वापस जाएगी जी। … अभी।”

लड़की का बाप हाथ जोड़कर अपनी इज्जत का हवाला दे रहा था और लड़के वालों के सामने गिड़गिड़ा रहा था “मेरा तो इतना इंतजाम करने में ही बाल बाल कर्जे में पुत गया। अब मेरी इज्जत आप के हाथ में है समधी जी।”

झगड़े में कई उपद्रवी बाराती भी कूद पड़े और उपद्रव करने लगे। बात बढ़ गई। बाराती कह रहे थे कि बारात बिना फेरे लिए वापस जाएगी।

तभी सरदार जी अपनी अदात के अनुसार बीच में कूद पड़े और नशे में धुत्त लड़के के पिता के सामने हाथ जोड़कर कहा “ओए रिश्तेदार जी, छड्डो। छोटी छोटी बातों पे नराज नी होते। कोई गुड्डे गुड्डी की शादी नी हो रई कि बीच में छड्ड के चले जाओगे।”

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“आप कौन होते हो जी बीच में बोलने वाले। बारात तो वापस जाएगी। न खाना ढंग का न दान दहेज।”  हल्के शराब के सुरूर में लड़के के पिता जी आपे से बाहर होते हुए बोले।

कई मिनट तक मिल्खा बाबू लड़की वाले की उद्दंडता और लड़की के बाप की आँखों के आँसू और बेबसी देखते रहे। स्थिति एकदम संवेदनशील हो गई थी। 

मामला पूरी तरह से हाथ से निकलता देख अचानक सरदार जी को न जाने क्या सूझा। कूदकर लड़के के बाप के सामने पहुँच गए। अपनी कमीज का कॉलर पकड़कर ज़ोर से खींचा। कमीज फट गई।

चिल्लाकर बोले “ओए सुण लो चौधरी साब। अब तक मैं आप को समधी कहकर इज्जत दे रहा था मगर ये तो हद हो गई है। आप ने एक ऑन ड्यूटी सरकारी अफसर से हाथापाई की है। अभी सारी बारात को जेल में बंद कराता हूँ। सरकारी आदमी पर हाथ उठाते हो।”

समधी साहब का नशा एक पल में गाफ़ूर हो गया। अवाक सरदार जी की ओर देखने लगे।

“अब बोलो। जेल में बंद होणा है कि कराऊँ फेरे चालू।”

पुराना जमाना था। लोग पुलिस और सरकार के झमेलों से बहुत डरते थे। उसके बाद शादी सम्पन्न होने तक किसी नें चूँ की आवाज भी नहीं निकाली।

अपने सरदार जी बड़े मौज मस्ती वाले और मज़ाकिया किस्म के इंसान भी तो थे।

गाँव में रामे और राजे नाम के दो भाई बड़े सीधे सादे किसान थे। दोनों मेहनती और एक दूसरे के पूरक थे। वैसे तो दोनों की उम्र में दो साल का अंतर था मगर कुदरत ने उनका शरीर और दिमाग एक ही साँचे में ढालकर बनाया था। कई बार तो एक ही बात को दोनों मिलकर पूरा करते थे।

एक दिन सरदार जी ट्यूब वैल के पास एक पेड़ के नीचे बैठकर अपने रजिस्टर पर काम कर रहे थे कि दोनों भाई प्रगट हो गए।

“मिलखा बाबू पानी दे दो।” रामे ने कहा।

“हाँ पानी दे दो। खेत सूख रहा है।” राजे ने कहा।

“कुछ भी करो बाऊजी। किसी के दो चार घंटे इधर उधर ….. ।” रामे ने कहा।

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“हाँ मिलखा बाबू। किसी के घंटे काटकर पानी दे दो। खेत सूख रहा है।” राजे ने कहा।

“ओए बैठ कर बात करो यार। राजे रामे, तुम दोनों भी गाँव का एक आइटम हो। ओए कल शाम को मेरे पास चार घंटे है मगर क्या करोगे चार घंटे का। कितनी बार तुम से बोला है कि बिजली से सीधी नाली बना लो। दो किलोमीटर घूमकर पानी जाएगा तो चार घंटे में तो तुम्हारे खेत में नाल ही पहुंचेगा। अरे सीधी नाली होती तो चार घंटे में तुम्हारा खेत ही भर जाता।”

“सरदार बाबू, पानी दे दो। भरा (नाली) बन जाएगा।” राजे ने कहा।

रामे ने चौंककर राजे की ओर देखा। उसकी आँखों में आत्मविश्वास देखकर कहा “नाली बन जाएगी। सरदार जी चार घंटे ही दे दो।”

“ओए तुम दोनों पागल हो क्या। चार फ़र्लांग नई नाली बनानी है और वो भी कल शाम तक।”

“बन जाएगी नाली। आप पानी दे दो। खेत सूख जाएगा। बच्चे भूखे मर जाएंगे।”

“हाँ बन जाएगी नाली। आपा चार घंटे ही पानी दे दो।” रामे से सुर मिलाया।

“बावले कहीं के। चलो कल शाम चार घंटे तुम्हारे मगर सुन लो …… चार घंटे से एक मिनट फालतू नहीं है मेरे पास। बाकी तुम जानो।”

तुरंत ही दोनों भाई सूखी जमीन पर नई नाली खोदने में लगा गए।

दिन ढल गया। रात हो गई। दोनों किसान पुत्र लगातार नाली बना रहे थे। कपड़े पसीने और मिट्टी से लथपथ हो गए। शरीर का पोर पोर टूटने लगा।

रात गुजरती जा रही थी और दोनों अपना और अपने हरे भरे खेत का अस्तित्व बचाने के लिए पागलों की तरह नई नाली बनाने में जुटे हुए थे।

रात ढल गयी। सूर्य देवता रात भर विश्राम करने के बाद नए जोश के साथ अरुणिमा बिखेरने लगे मगर दोनों भाई नाली खोदने में लगे हुए थे।

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दस बज गए। ईंख के खेतों के बीच बनी पगडंडी से सरदार मिलखा बाबू की साइकिल प्रगट हुई तो देखकर अवाक रह गए। नाली का नब्बे प्रतिशत भाग बन गया था और दोनों भाई मशीन की तरह फावड़े चला रहे थे।

सरदार जी चिल्लाये “ओए ठहरों ठहरो यार। जान दोगे क्या।”

“मिलखा बाबू, खेत सूख गया तब भी तो भूख से जान जाएगी।” छोटे ने मलीन चेहरे और टूटे शरीर से कमर सीधी करके फावड़ा कंधे पर रखते हुए कहा और बेहोश होकर धड़ाम से जमीन पर ढह गया।

“ओ पगले, मैंने ये थोड़े ही बोला था कि पूरी रात… ।” और दोनों ने मिलकर मूर्छित राजे को पेड़ की छाँह में लिटाया मगर मूर्छा नहीं टूट रही थी।

सरदार जी भागकर नलकूप के कमरे में गए और एक चौथाई भरी हुई शराब की बोतल उठा लाये और राजे के मुंह में उंडेल दी। अब पता नहीं कि दारू की महक का असर था या उसके तीखे स्वाद का। राजे ने आँखें खोल दीं थीं।

सरदार जी ने उसके कान के पास मुंह लेजाकर कहा “चार घंटे लगें या दस घंटे। तेरा खेत भरने के बाद ही किसी को पानी मिलेगा। पगला… जान देने पर उतारू है।”

राजे के चेहरे पर जमीन पर पड़े पड़े ही मुस्कान दौड़ गई।

समय गुजर गया। समय को तो गुजरना ही था।

सरदार जी रिटायर होकर अपने छब्बीस साल के बेटे, बहू, सत्रह साल की बेटी, तीन साल के पोते और अस्सी साल की माँ के साथ निकट के बारह किलोमीटर दूर शहर में विकास प्राधिकरण के छोटे से फ्लैट में रहने लगे। इसके उपरांत भी उनकी आत्मीयता अपने शहरी समाज से अधिक गाँव के लोगों से थी। सरदार जी निरंतर गाँव के मित्रों के सुख दुख से जुड़े रहते। यहाँ तक कि अपने यहाँ होने वाले शबद कीर्तन और लोहड़ी पर भी अपने ग्रामीण मित्रों को सादर आमंत्रित करते थे।

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वैसे भी पंजाब और पूरे देश में सिख उग्रवाद अपने चरम पर था इसलिए शहरों का सामनी आदमी सरदारों से दूरी बनाकर रखने लगा था और शहरी समाज के इसी दुराव के कारण सरदार जसबीर सिंह जिन्हे गाँव के लोग प्यार से मिल्खा बाबू कहते थे, अपने ग्रामीण भाइयों के और भी नजदीक आ गए थे।

खालिस्तानी आतंक अपने चरम पर था। स्थान स्थान पर उग्रवादियों के द्वारा बड़े बड़े हत्या कांडों को अंजाम दिया आ रहा था। दूसरी ओर सरकार ने स्वर्ण मंदिर से उग्रवादियों को निकालने के लिए बड़ा अभियान चलाया था जिसके कारण हिन्दू और सिखों की दूरियाँ बढ़ गई थीं। 

फिर 1984 में एक सुबह अचानक देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की उनके सिख सुरक्षा कर्मियों ने गोली मार कर हत्या कर दी।

शाम होते होते दिल्ली ही नहीं आस पास के क्षेत्रों में और धीरे धीरे पूरे भारत में आग भड़क उठी। एक ओर आम जनता में वर्षों से चल रहे खालिस्तानी आतंकवाद के प्रति भारी रोष था जिस में प्रधानमंत्री की हत्या ने आग में घी का काम किया था। दूसरी ओर आनन फानन में प्रधानमंत्री बनाए गए अनुभव हीन राजीव गांधी के एक बयान ने शोले भड़का दिये। उन्होने हालात की भयंकरता का आभास किए बिना बयान दे दिया था कि “जब एक बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिल जाती है।” उनके इस बयान को उनके समर्थकों ने एक इशारा समझा और जगह जगह निर्दोष सिखों पर टूट पड़े। जगह जगह सिख घरों में लूटपाट, हत्या, आगजनी और बलात्कार के समाचार आने लगे। लोगों के गले में गाड़ियों के टायर डालकर आग लगाई गई और दिल्ली में सिखों के पूरे के पूरे बाजार फूँक दिये गए।

सरदार जसबीर सिंह के मुहल्ले में एक दहशत भरा सन्नाटा पसरा हुआ था। रोज शाम को मुहल्ले के कई रिटायर लोग सामने के पार्क में इकट्ठे होकर गप्पें मारते थे मगर आज कोई दिखाई नहीं पड़ रहा  था। पड़ौस के साब्बरवाल साहब अपने पौधों में पानी देते हुए सरदार जी से बतियाते रहते। आज सरदार जी ने उन से मुखातिब होते हुए कहा “बड़ी टेंशन हो गई है जी शहर में।” तो साब्बरवाल  साहब नफरत से मुंह बिचकाते हुए बिना उत्तर दिये घर के भीतर चले गए। जिस कौलोनी में वे बरसों से रहते थे अचानक वो उनके लिए अजनबी अरण्य बन गया था। बरसों के सुख दुख के रिश्ते दंगे की लपटों में जलकर पल भर में खाक हो गए थे।

अचानक सरदार जी को याद आया और वे लपकते हुए घर के भीतर गए और चिल्लाकर पूछा “मुंडा कित्थे है। काम से नी आया अब तक।”

“आ गया है जी। अपने कमरे में मुंह लपेटे पड़ा है।” पत्नी ने बताया।

वे लपकते हुए बेटे के कमरे में गए। जवान बेटा मुंह लपेटे हुए सुबक रहा था। सरदार जी ने चेहरे से चादर हटाई और सर पर हाथ फेरते हुए पूछा “ओए पुत्तर क्या हुआ। तेरी तबीयत तो ठीक है। रो क्यूँ रहा है।”

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बेटे बलविंदर ने हिचकियां लेते हुए बताया “कोई नहीं बचेगा पापा जी। मेरे सामने दंगाइयों ने दो सिख मुंडों को पीट पीट कर मार डाला। एक ट्रक में आग लगा दी और उसके ड्राइवर के गले में टायर डालकर जिंदा ही फूँक दिया। दिल्ली में पूरे बाजार के बाज़ार जला दिये गए हैं और बंदों को पैट्रोल डालकर उसी आग में फेंका जा रहा है। कोई नई बचेगा पापा जी।” और उसकी हिचकियाँ बांध गईं।

“ठंड रख पुत्तर। हम ने किसी का क्या बिगाड़ा है। पूरी कालोनी के लोग हमारे भाई जैसे हैं।”

“भाई ही तो भाई का दुशमन बन गया है पापे जी।” लड़के ने निराश होकर कहा।

रात भर कोई नहीं सो पाया था। सारा परिवार वृद्ध माँ, जिन्हे पूरा मुहल्ला बेबे जी कहकर सम्मान करता था उनके कमरे में इकट्ठा हो गया था। सबके चेहरों पर दहशत दिखाई दे रही थी। एक दूसरे को आश्वस्त करने का प्रयास कर रहे थे किन्तु आश्वस्त कोई नहीं था।

परिवार की सबसे बुजुर्ग सदस्य बेबे जी भारी तनाव में बुदबुदा रही थीं “पाकिस्तान से लुट पिटकर आए थे। कैन्दे थे ‘ये मूलक अब अपणा नी रहा। पराया हो गया है। जहां की मिट्टी में हमारी न जाने कितनी पीढ़ियाँ खाक हो गईं वो मुल्क कैसे पराया हो गया, ये बात तो मूलक के रहनुमा ही जाणे। अपणा मूलक अब हिंदुस्तान है। वहीं जाएंगे। अपणा मूलक अब हिंदुस्तान है। पर …… पर आज रात रात में ये मुल्क भी पराया हो गया। अब कहाँ जाएंगे पुत्तर। अब कहाँ जाएंगे।” और जार जार रोने लगीं।

अगले दिन समाचार और भी अधिक डरावने, रक्तरंजित और वीभत्स थे। हजारों सिखों की हत्या हो चुकी थी। सैकड़ों जगह आगजनी, बलात्कार और लूटपाट की घटनाएँ हुई थीं।

समय गुजरने के साथ हालात और भी बद से बदतर होते जा रहे थे। किसी रिश्तेदार का फोन नहीं मिल रहा था। मुहल्ले में अकेला सिख परिवार होने के कारण दहशत से सबके चेहरे सफ़ेद हो रहे थे।

लगातार प्रयास करने पर दिल्ली के मौसेरे भाई ने फोन उठाया और उधर से बदहवसी में आवाज आई “जस्सी, हालात भोत खराब हैं भाई। जैसे भी हो जान बचाकर भाग जाओ। वरना सब मारे जाओगे।” और फोन कट गया।

सरदार जी ने अपने घर के मुख्य द्वार पर बाहर से ताला लगाया और पीछे की दीवार कूद कर घर में दाखिल हो गए। सब ने मिलकर लोहे की अलमारी और टिन का बड़ा बक्सा दरवाजे के पास सरका दिया जिस से कोई आसानी से दरवाजा तोड़कर भी अंदर न आ सके।

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सारा परिवार घर के पीछे वाले कमरे में जुटकर बैठ गया और आने खतरे से आतंकित होकर गुरू का जाप करने लगा।

दिन के लगभग ग्यारह बजे होंगे कि बाहर शोर सुनाई दिया। पचास साठ लोगों का समूह, जिनके हाथों में जलती हुई मशाल और लाठी डंडे थे और जिनके सर पर खून सवार था, सरदार जी के घर के बाहर आकर ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगे।

“बाहर निकल बे जटाजूट। हमें पता है कि तू घर में ही छुपा है खालिस्तानी। आज बनाते हैं तेरा भिंडरवाला।”

“मारो साले उग्रवादियों को। एक भी जिंदा नहीं बचना चाहिए। हम बनाएँगे तुम्हारा खालिस्तान।”

“आग लगा दो पूरे घर को। एक भी साँप का बच्चा जिंदा नहीं बचना चाहिए। लूट लो सालों के घर को। हराम का माल इकट्ठा कर रखा है।”

तरह तरह की भयानक डरावनी आवाजें आ रही थीं।

मिल्खा बाबू को लग रहा था कि अब किसी भी क्षण सब कुछ समाप्त हो जाएगा।

एक पल के लिए उनके मन में एक खतरनाक विचार कौंध गया। जब पाकिस्तान बना था तो अनेक सिक्ख और पंजाबी परिवार अपनी जान इज्जत और धर्म बचाकर वहाँ से भाग रहे थे।

कई बार ऐसे भी हालात पैदा हुए कि निकलने के सारे रास्ते बंद हो गए। तब अनेक वीरांगना स्त्रियों और लड़कियों ने स्वयं ही अपनी जान दे दी थी। कई पिताओं ने अपनी बेटियों और बहुओं अपने हाथ से मौत के घाट उतार दिया था या कुएं में धकेल दिया था।

जसबीर सिंह जी ने कातर निगाहों से अपनी जवान बेटी और बहू की ओर देखा और अपने ही विचार से सहम गए। क्या वे ऐसा कर पाएंगे। उन्होने तो जिंदगी में किसी को एक थप्पड़ भी नहीं मारा था।

उपद्रवियों के सर पर खून सवार था। वे अनर्गल गली गलोच करते हुए पत्थर और जलती हुई मशालें फेंक रहे थे।

क्या वास्तव में वे लोग अपनी नेता की मौत का बदला लेने के लिए सरदार जी के पूरे परिवार को मौत के घाट उतार देना चाहते हैं या लूट के इरादे से लाठी डंडे, छुरे तलवार और पैट्रोल बम लिए घूम रहे हैं।

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कहीं ऐसा तो नहीं कि इनमे से कुछ लोग जानते हों कि इस घर में दो जवान और सुंदर औरतें मौजूद हैं और इस उपद्रव का बहाना बनाकर उन्हे अपनी हबस का शिकार बनाने की घृणित कल्पना कर रहे हों।

कौन हैं ये लोग। कहाँ से आए हैं। क्या हमारे साथ, हमारे बाज़ारों में, दफ्तरों में, कॉलेजों में और पड़ौस में ऐसे वहशी सफ़ेद पोष छुपे हुए हैं जो एक आदमी को जिंदा जलता देखकर खुशी से चीख सकें। किसी की छाती में छुरा घोंपकर बहते रक्त को देखकर आनंदित हो सकें। उत्सव माना सकें। क्या ये किसी दूसरी दुनिया से आए लोग हैं। नहीं। ये हमारे बीच हमारे सामने व्हाइट कॉलर के साथ मौजूद हैं।

किसी सब्जी बेचने वाले के रूप में, किसी सरकारी दफ्तर में, किसी कॉलेज में, स्कूटर रिपेयर करने वाले के रूप में या किसी दिहाड़ी मजदूर की शक्ल में समाज में घुले मिले पड़े हैं। बस आज इनके भीतर का दानव निकलकर बाहर आ गया है। ये समाज के वहीं कथित सभ्य और सुसंक्रत लोग हैं जो रोज आप को बसों में, बिल जमा कराने की लाइन में और किराना की दुकान पर मिल जाएंगे और आप से कंधा टकराने पर तीन बार सौरी बोलेंगे।

क्या पथराव करने वाले, आगजनी करने वाले, मौब लिंचिंग करने वाले या समूहिक रूप से औरतों और बच्चों तक को जिंदा जलाने वाले किसी दूसरे गृह से आते हैं या हमारे ही समाज के लोगों के भीतर का राक्षस अचानक जाग्रत हो जाता है।

दंगाइयों ने घर के मुख्य प्रवेश द्वार पर पैट्रोल छिड़ककर आग लगा दी। लकड़ी का दरवाजा धू धू कर जलने लगा। कुछ पैट्रोल में भीगे हुए जलते हुए कपड़े घर के आँगन मेन भी आकर गिरे।

मिल्खा बाबू मानसिक रूप से अब अंतिम स्थिति के लिए स्वयं को तैयार कर रहे थे। उन्हे लग रहा था कि उनके परिवार का अंतिम समय अब आ गए है। कुछ पल में ही आततायी घर में घुस जाएंगे। उनके मासूम पोते की हत्या कर देंगे। उनकी बेटी और बहू के साथ उनके सामने ही अनाचार कर सकते हैं। सबसे पहले कडा विरोध करने के कारण मेरे बेटे की हत्या कर देंगे।

उनकी पगड़ी के भीतर से पसीने की एक धार बहकर कान की लौती से टपक रही थी। उनके हाथ पाँव काँप रहे थे और आँखों के सामने अंधेरा सा छाने लगा था। उनके मुंह से लगातार अस्फुट शब्द निकल रहे थे। “सत नाम सत नाम वाहे गुरु वाहे गुरु ……. पुर्जा पुर्जा कट्ट मरै जो लडै दीन के हेत।” अचानक उन्होने अपनी दोनों बाहें फैलाकर अपने बच्चों को अपनी बाहों में समा लिया और फूट फूटकर रोने लगे मानो अपने परिवार से अंतिम विदाई ले रहे हों।

तभी बेबे जी लड़खड़ाती हुई बिस्तर से उठ खड़ी हुईं और अपनी पूरी ताकत से चिल्लाकर बोलीं “जो बोले सो निहाल, सात श्री अकाल। ओए पुत्तर रोंदा क्यूँ है। तेरी रगों में गुरू गोविंद सिंह का खून है। तू सिंहों की संतान है। जिएंगे तो इज्जत से जिएंगे और मरेंगे तो शान से मरेंगे।”

उन्होने अपने नजदीक रखे पुराने से लकड़ी के बक्से का ढक्कन उठाया। उसमे से एक जंग लगा किरपान और दो पुरानी सी तलवारें निकालकर बिस्तर पर फेंक दीं और पूरे जोश से बोलीं “उठाओ मेरे बच्चो, हथियार उठाओ। उठाओ मेरी कुड़ियो किरपान उठाओ। आज फिर अहमद शाह अफदाली और ओरंजेब का जमाना आ गया है। जिएंगे तो इज्जत से जिएंगे। मरेंगे तो लड़ते लड़ते मरेंगे। जो बोले सो निहाल।” बाकी सब से समवेत स्वर में कहा “सत श्री अकाल।” और हथियार उठा लिए। तभी पुलिस का सायरन सुनाई दिया और दंगाइयों में भगदड़ सी मच गई। लोगों के भागने की आवाज सुनाई दे रही थी।

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पुलिस ने न तो सरदार जी के जलते हुए दरवाजे पर ध्यान दिया और ना ही परिवार की सुध लेने की चिंता की और गाड़ी सायरन बजाती हुई दूर चली गई।

कुछ देर के लिए सन्नाटा सा छा गया। दूर से रह रहकर गोलीयां चलने और चीख पुकार की आवाजें वातावरण की निस्तब्धता को भंग कर रही थीं।

मिल्खा बाबू धम्म से खाट पर माथा पकड़कर बैठ गए। आने वाले खतरे की संभावना से सबके चेहरे ऐसे हो रहे थे जैसे किसी ने इन के शरीरों का खून निचोड़ दिया हो। दहशत से आँखें फटी पड़ रही थीं।

मिल्खा बाबू धीरे से कमरे से बाहर निकले और आँगन में जल रहे पैट्रोल भीगे कपड़े बुझाने लगे कि तभी बाहर किसी बड़े वाहन के रुकने का स्वर और कोलाहल सुनाई दिया।

मिल्खा बाबू भागकर दोबारा अपने बच्चों के पास छुप गए। भय के मारे पीला पड़ गया परिवार फिर एक बार निरीह सा एक दूसरे की ओर आँखें फाड़कर देख रहा था।

बाहर से आवाजें आ रही थी “अरे इधर फेंको। उधर ध्यान दो। दरवाजा तो तोड़ना ही पड़ेगा। भीतर चलो।”

मिल्खा बाबू ने दाबी सी आवाज में कहा “लूट पात कर रहे हैं बेबे जी। सब तैयार रहो। आज मरेंगे तो दो चार को मार कर मरेंगे। कुडियो तुस्सी बेबेजी की मंजी के नीचे छुप जाओ। चल पुत्तर हथियार उठा। आज इज्जत और जिंदगी का सवाल है।”

तभी बाहर से आवाज आई “अरे कहाँ हो मिल्खा बाबू। सब सुरक्शित तो हैं। बाहर आ जाओ। आग हमने बुझा दी है।”

“मिल्खा बाबू …… ये नाम तो यहाँ शहर मे कोई नहीं जनता।” और सरदार जी खरगोश की तरह कान खड़े करके बाहर की आवाजें सुनने लगे।

“अरे हम हैं मिल्खा बाबू। तुम्हारे दोस्त घनश्याम, राजे, रामे, बनवारी, बंसी लाल। बाहर आ जाओ। डरने की कोई जरूरत नहीं है।”

“ओए आ गए साड्डे बंदे। आ गए खुदा के फरिश्ते। ओए रब ने हमारी सुनली है। अब कोई हमारा बाल भी बांका नहीं कर सकता। किरपा हो गई बाब्बे दी।” और सरदार जी अश्रुपूरित नेत्रों से बाहर की ओर भागे।

बाहर दो ट्रैक्टरों में गाँव के बीस लोग लाठी डंडे हाथ में लिए खड़े थे। उन्होने अपने मिल्खा बाबू को गले से लगा लिया।

जल्दी जल्दी घर का समान ट्रॉली में डाला गया। दो जवानों ने बेबे जी की चारपाई बिना कुछ बोले ट्रैक्टर में लाद ली और सारे घर के बंदों को बैठा लिया।

“बाहर बड़ा खतरा है चाचा जी।” सरदार जी की बिटिया ने झुर्रीदार मूछों वाले दिलेर सिंह से कहा।

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“इन कायर लुटेरों में इतना दम नहीं है कि हमारी ओर आँख भी उठाकर देख सकें। तू अपने चाचा के घर जा रही है बिटिया।”

और दोनों ट्रैक्टर धड़धड़ाते हुए गांवों की तरफ भाग लिए।

(मेरे ही गाँव की सत्य कथा पर आधारित)   

रवीन्द्र कान्त त्यागी

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