मुझे दादाजी-दादीजी चाहिए-श्वेता अग्रवाल : Moral Stories in Hindi

“वंश बेटा, कैसी थी बर्थडे पार्टी? खूब मजे किए ना?”

“हाँ, मम्मा|”

“तो फिर इतने सेड क्यों लग रहे हो?” मनीषा ने अपने बेटे से पूछा|

“मम्मा, मेरे दादाजी-दादीजी कहाँ हैं? मुझे भी अपने दादाजी- दादीजी के साथ रहना है| उनके साथ खेलना है| कहानियाँ सुननी है| पार्क जाना है| आज पता है, अंकुर के दादाजी ने कितनी मजेदार कहानी सुनाई| उसकी दादीजी ने बहुत ही टेस्टी हलवा बनाया| मुझे उनके साथ बहुत मजा आया|”

“मुझे भी दादाजी-दादीजी चाहिए” मनीषा की गोदी में सिर रखते हुए वंश ने कहा|

यह सुन मनीषा की आंखें भर आई क्योंकि मनीषा और उसके पति अंश दोनों ही अनाथ थे| बेटा यह पॉसिबल नहीं है| अपने आंसू छुपाते हुए मनीषा बोली|

“क्यों नहीं पॉसिबल है| जब सबके पास दादाजी-दादीजी हैं तो मेरे पास क्यों नहीं?

“वंश हर बात के लिए जिद नहीं करते| चलो, अब सो जाओ|”

बात आई गई हो गई| कुछ महीने बीत गए| वंश का बर्थडे आने वाला था| “बेटा आपको अपने बर्थडे पर क्या गिफ्ट चाहिए?” उसके मम्मी पापा ने उससे पूछा|

“मम्मा, पापा मुझे दादाजी-दादीजी चाहिए| “वंश तुमने फिर वही बात शुरू कर दी| बेटा,मैंने बताया था ना कि यह पॉसिबल नहीं है|” मनीषा ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा|

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“वह सब मुझे नहीं पता| मुझे दादाजी-दादीजी चाहिए| नहीं, तो मैं अपना बर्थडे नहीं मनाऊँगा| कहते हुए वंश रोते-रोते चला गया।

“हद होती है ज़िद की| जब वह है ही नहीं तो कहाँ से लाएँ? अंश ने लाचारी से कहा|

“अंश,मेरे दिमाग में एक आईडिया आ रहा है| क्यों ना हम ‘ओल्ड एज होम’ में वंश का बर्थडे मनाएँ| वहाँ उसे एक नहीं अनेकों दादाजी-दादीजी का प्यार और आशीर्वाद मिल जाएगा और वे सब भी खुश हो जाएँगे|”

“बात तो सही है|”

बर्थडे वाले दिन वे वंश को लेकर ‘ओल्ड एज होम’ गए| “वंश देखो, यहां कितने सारे दादाजी-दादीजी हैं| सबको प्रणाम करो|”

वंश ने सब को प्रणाम किया| उन सबके साथ खूब मस्ती की| ढेरों कहानियाँ सुनी और केक भी काटा| कटिंग के बाद जब वंश के मम्मी-पापा सब को केक दे रहे थे तो एक बुजुर्ग ने कहा “बेटा,थोड़ा सा केक उस कमरे में मिस्टर और मिसेज शर्मा को भी दे देना|”

“अंकल वे बाहर नहीं आए|” अंश ने पूछा|

“नहीं,वे किसी भी फंक्शन में शामिल नहीं होते हैं| बस कमरे में ही रहते हैं|”

यह सुन अंश,वंश और मनीषा के साथ उन्हें केक देने गया| वहाँ शर्मा जी को देखते ही वह उनके पैरों में गिर पड़ा “मास्टरजी आप यहाँ इस हालत में!”

“कौन? कौन है भाई?” अपने टूटे हुए चश्मे को किसी तरह आंखों पर टिकाते हुए शर्मा जी ने पूछा|

“मास्टरजी मैं अंश| आपका छोटू|”

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“अरे! छोटू जीते रहो बेटा| अब आंखों से ठीक से दिखता नहीं ना, इसलिए पहचान नहीं पाया| कैसा है तू?

“मैं तो एकदम ठीक हूँ | यह आपकी बहू और पोता| पर आप यहाँ इस हालत में कैसे?”

“बेटा पुराने और टूटे-फूटे फर्नीचर की किसी को जरूरत नहीं होती|बेटे-बहू ने धोखे से जमीन और घर के कागज पर साइन करा लिए और फिर सब बेचकर विदेश चले गए और हमें यहाँ भेज दिया| ठीक ही किया यहाँ हम उम्र साथियों के साथ मन लगा रहता है हम बूढ़े बुढ़िया का| है ना ‘शर्माइन’|” दर्द और दुख भरी हंसी हंसते हुए मास्टर जी ने कहा|

“उन्हें ना होगी पर मुझे बहुत जरूरत है आपकी| मैं तो झांसी भी गया था, आपको खोजने लेकिन आपका ट्रांसफर हो गया था और किसी के पास आपका कोई अता-पता नहीं था| अब मिल गए हैं तो जाने ना दूँगा आपको|” बच्चों की तरह उनकी गोदी में सिर रखकर रो पड़ा अंश|

“वंश बेटा आपके दादाजी- दादीजी मिल गए| आज आपके पापा जो कुछ भी है इन्हीं की वजह से हैं|”

“पता है मनीषा जब मैं झांसी में मजदूरी करता था तो मास्टर जी की क्लास की खिड़की से झांककर पढ़ने की कोशिश करता था क्योंकि स्कूल कहाँ से जाता? बड़ी मुश्किल से दो जून की रोटी का जुगाड़ होता था| एकदिन मास्टर जी ने मुझे खिड़की से झांकते हुए पकड़ लिया| मुझे तो लगा कि बहुत पिटाई होगी लेकिन मास्टरजी ने ना सिर्फ मुझे फ्री में पढ़ाया बल्कि सरकार से वजीफा भी दिलाया| आज इनकी वजह से ही सड़क पर मजदूरी करने वाला लड़का डॉक्टर अंश के रूप में तुम्हारे सामने खड़ा है|

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यह सुनते ही मनीषा उनके कदमों में झुक गई| “घर चलिए|”

“नहीं, नहीं बेटा, हम यही ठीक हैं|जब हमारी बेटे-बहू को हमारी जरूरत नहीं तो तुम लोग क्यों परेशान हो रहे हो? अब यह दुख हमारे जीवन का अंग है। जरूर हमारे संस्कारों और परवरिश में ही कोई कमी रह गई जो हमें आज यह दुख देखना पड़ रहा है।”

नहीं मास्टरजी, ऐसा मत बोलिए उन्होंने क्या खोया है उन्हें नहीं मालूम। खोट आपकी परवरिश में नहीं, उनकी नियत में है। आप ही तो हमेशा कहा करते थे कि यह जीवन सुख-दुख का संगम है। आपने जितना दुख भोगना था भोग लिया। अब हमारे साथ  चलकर सुख पूर्वक रहिए। यदि आप हमारे साथ नहीं जाएंगे तो मैं भी यहॉं से नहीं जाऊॅंगा।

“हाॅं दादाजी, पापा ठीक बोल रहे हैं। यदि आप नहीं चलेंगे तो मैं भी यही आपके साथ रहूँगा|” मास्टरजी की गोद में बैठते हुए वंश बोल पड़ा|

वंश की बात सुन मास्टरजी अपने को नहीं रोक पाए और उनके साथ जाने को तैयार हो गए।इस शर्त के साथ कि अपना और अपनी पत्नी का खर्च वे अपनी पेंशन से खुद उठाएँगे| अपने स्वाभिमान से वे कोई समझौता नहीं करेंगे| उनकी इस शर्त पर अंश नतमस्तक हो गया और भरे गले से इतना ही बोल पाया ” मास्टरजी आप मेरा अभिमान थे, हैं और सदा रहेंगे| जैसा आप चाहेंगे आपका छोटू वैसा ही करेगा| बस आप हमारे आप मेरे साथ चलिए मैं आपको यहां इस हालत में नहीं देख सकता।

यह सुनते ही मास्टर जी ने अंश को अपने गले से लगा लिया और चल पड़े अपनी नई दुनिया की ओर, जहाॅं सुख और सम्मान उनका इंतजार कर रहा था।

धन्यवाद।

लेखिका –  श्वेता अग्रवाल

साप्ताहिक शब्द कहानी प्रतियोगिता#सुख दुख का संगम

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