स्वार्थी – अनुज सारस्वत

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“चल बेटा तैयार हूं मैं, गंगा मैया की बड़ी कृपा है ,बुला ही लेती हैं ,और देखो तेरी पोस्टिंग भी अपने किनारे करवा ली ,यह संयोग नही है”

बाईक पर बैठते हुए जयंत की माँ ने कहा

“अरे मम्मी आप मेरे साथ ही रहा करो कितनी बार कहा है ,लेकिन आपको वही पुराना घर अच्छा लगता है,साथ रहोगी हमें भी आपका प्यार सानिध्य मिलता रहेगा”

जयंत ने माँ को समझाते हुए कहा

“अरे बेटा प्यार और आशीर्वाद तो सदैव बच्चों के साथ है,मैं थोड़ी स्वार्थी हूँ ,वहां तेरे पापा की याद जुड़ी है,और बेटा चिड़िया हमेशा अपने बच्चों को उड़ना सिखाती है फिर यह नहीं सोचती की यह बड़े होकर उसके लिए दाना पानी लाएंगे, बोझ नही बनती स्वतंत्र रहती है और बच्चों को भी स्वतंत्र रखती है,और आजकल सब आनलाईन है रोज वीडियोकॉल करो सब जुड़ेसे लगते हैं”

“बस बस माँ आपसे तो कोई नही जीत सकता चलो लो आ गया गंगा घाट”

जयंत ने बाईक रोकते हुए कहा

माँ बेटे ने स्नान किया तभी जयंत ने देखा माँ किसी को देखकर हँस रहीं थी और उससे कह रहीं थी



” तूने शर्ट के बटन आगे पीछे लगा लिए हैं”

जयंत ने पीछे मुड़कर देखा तो एक 10 साल का फूल बेचने वाला लड़का नहाकर कपड़े पहन रहा था तो माँ उसे बोल रहीं थी ,फिर उसके पास जाकर उसे सही से शर्ट पहनाई ,फिर उससे उसकी माँ के बारे में पूछा ,लड़के ने बताया उसकी माँ नही हैं वो फूल बेचकर अपना और छोटी बहन का गुजारा करता हैं।

माँ जयंत के पास आयीं और सारी बात बताकर बोली

” बेटा इस बच्चे के पढ़ाई लिखाई का इंतजाम करना है ,मेरे पास कुछ एफडी पढ़ी हैं ,तू तो संपन्न है तो तुझे कोई जरूरत नही मेरे पैसों की “

जयंत ने बीच में रोकते हुए कहा

“अरे माँ ऐसे कैसे सारा इंतजाम हो जायेगा और हम जानते भी नही इसे ,बात रूपये की नही हैं”

माँ ने कहा

“सब हो जायेगा गंगा मैया ने इशारा दिया है बेटा एक बात याद रखना ज्यादा बड़ा करने के चक्कर में इंसान छोटे महत्वपूर्ण कार्य छोड़ देता है ,बूंद बूंद से सागर भरता है और मानव जीवन का मतलब मानव सेवा और निष्काम सेवा है ,और धन का सदुपयोग यही है”



जयंत इशारा समझ चुका था

उस बच्चे की पढाई लिखाई का खर्चा जयंत ने उठाने का निर्णय लिया और माँ से एफडी की मना की तो माँ ने कहा

“देख एफडी तो तुझे लेनी पड़ेगी, मैनें कहा न मैं बहुत स्वार्थी हूँ, पुण्य भी अपने पैसों से लूंगी ,तू अपना देखना “

इतना कहकर मुस्करा कर वहां से उस बच्चे के घर चल दिए, जयंत माँ की दूरदर्शिता को समझ कर बारंबार प्रणाम करने लगा ।

उस बच्चे की सारी व्यवस्था हो चुकी थी ,पर जयंत के मन में कुछ अधूरापन रह गया था ,

उसने घर जाकर बात अपनी पत्नी क बताई तो पत्नी ने कहा मुस्कराते हुए

“चलो हमें भी स्वार्थी बनना है ,सब कह रहे हैं दूसरे बच्चे को करो जल्दी ,क्यों ना हम इस तरह के बेसहारा बच्चों के लिए कुछ करें “

जयंत इशारा समझ गया आज इस बात को 10 वर्ष हो चुके हैं ,जयंत ने इस दौरान करीब 8 शेल्टर होम खोले ,इस तरह के बेसहारा बच्चों के लिए एनजीओ डेवलप किया जिसका नाम उसने “स्वार्थी ” दिया ,माँ गुजर चुकी थी ।

उसी गंगा घाट पर आज दोनों पति पत्नी आये थे माँ की अस्थि प्रवाहित करने ,जयंत ने पत्नी से कहा

” आखिर स्वार्थी बना कर चली गयीं माँ “

-अनुज सारस्वत की कलम से

(स्वरचित @)

 

1 thought on “स्वार्थी – अनुज सारस्वत”

  1. क्या इतना आसान होता है चुपचाप सद्कर्म करना और आने वाली पीढ़ी का भी बिना कहे. मार्गदर्शन करना।

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