” नहीं अवंतिका…शादी में तुम ही चली जाओ…और हाँ, अपनी भतीजी को जो भी देना चाहती हो, खरीद लेना।” कहकर असीम जी ने हाथ में अखबार ले लिया।तब उनके हाथ से अखबार लेकर मनुहार करती हुई अवंतिका जी बोली,” चलिये ना…उस बात को बीते तो बरसों हो गये हैं…कब तक नाराज़ बैठे रहेंगे..अब तो अपना गुस्सा थूक दीजिये…अजीत भईया ने मुझे आपके साथ ही आने के लिये कहा है…।”
” ज़िद न करो अवंति…मैं नहीं जा सकूँगा..।” कहते हुए असीम जी पत्नी से अखबार लेकर पढ़ने लगे।
सहारनपुर शहर के जाने-माने व्यवसायी श्री मणिकांत प्रसाद की तीन संतानों में सबसे छोटी थी अवंतिका।बेटा अजीत व्यवसाय को भली-भांति संभाल रहे थें।उनकी बहू पायल सुशील थी और संभ्रांत परिवार से ताल्लुक रखती थी।बेटी अरुणा अपने पति सुशांत संग कनाडा में खुश थी।
अवंतिका समाजशास्त्र विषय में एमए कर रही थी।स्वभाव में वह अपने भाई-बहन से बिल्कुल अलग थी।ऐशो-आराम में रहने के बावज़ूद भी वह सादगी को पसंद करती थी।किताबों में खोये रहना उसे अच्छा लगता था।इसीलिये उसके जीवनसाथी को लेकर उसके पिता को बहुत फ़िक्र होती थी।उसकी माँ सुलेखा जी चाहती थी
कि अरुणा की तरह अवंतिका भी बनाव-श्रृंगार करे लेकिन वो कहती,” माँ..मैं दीदी की तरह नहीं बन सकती।” सुलेखा जी पति से कहती रहती कि कोई बढ़िया लड़का देखकर इसके भी हाथ पीले कर दीजिये तो वो हँसकर कहते,” धीरज रखो भाग्यवान्…जैसे सबकी हुई है..इसकी भी हो जायेगी।”
मणिकांत जी की दिल्ली वाली साली कामिनी की बेटी की शादी तय हो गई थी।विवाह से एक दिन पहले वो सपरिवार दिल्ली पहुँच गये।रिश्तेदारों से मेल-मिलाप करते हुए उनकी नज़र एक अधेड़ सज्जन पर जाकर रुक गई।गौर से देखने पर वो खुशी- से उछल पड़े।
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” रामस्वरूप…तुम यहाँ कैसे…।”
” अरे मणिकांत तुम! ” बरसों बाद दोनों मित्र एक-दूसरे को देखकर बहुत प्रसन्न हुए।
” ये कौन हैं रामस्वरूप भाई।” साथ खड़े आकर्षक व्यक्तित्व के युवक को देखकर मणिकांत जी ने पूछ लिया।
” मेरा बेटा असीम है मणि भाई।दिल्ली यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ाता है।तुम्हारी भाभी के गुजर जाने के बाद मैं कभी-कभी इसके पास रहने आ जाता हूँ।तुम्हारे साढ़ू भाई का निमंत्रण मिला तो..।कहते हुए रामस्वरूप मुस्कुरा दिये।
” अच्छा हुआ ना…वरना तुमसे मुलाकात कैसे होती।” मणिकांत जी चहक उठे थे।तभी अवंतिका आ गई,” पापा…वो..।” असीम को देखकर वो ठिठक गयी।मणिकांत परिचय कराते हुए बोले,” मेरी बेटी अवंतिका…।” फिर बेटी से बोले,” मेरे बचपन के मित्र रामस्वरूप और उनके सुपुत्र असीम…दिल्ली यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हैं।तुम कुछ कहने आई थी….।”
” नहीं पापा…।” कहकर अवंतिका असीम से बातें करने में मशगूल हो गई।सुलेखा जी बहू संग विवाह के रस्मों-रिवाज को निभा रहीं थीं, मणिकांत जी अजीत के साथ बरात के स्वागत का निरीक्षण कर रहें थे लेकिन अवंतिका….उसकी आँखे तो बस असीम को ही तलाशती रहती थी।असीम भी अवंतिका की सादगी
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और विचारों से बहुत प्रभावित थे।विवाह के उस शोरगुल वातावरण में दोनों जब भी एकांत में मिलते तो कभी किसी विषय पर बातें करते तो कभी देश की समस्याओं पर।दोनों के विचार मिलते-मिलते दिल कब मिल गये, उन्हें पता ही नहीं चला।ऐसे ही विवाह के तीन दिन गुजर गये।मणिकांत अपने मित्र से गले लगकर विदा लेने लगे तो अवंतिका पर उनकी दृष्टि पड़ी जो नम आँखों से असीम को निहारे जा रही थी।
सहारनपुर आकर अवंतिका गुमसुम रहने लगी।पूछने पर किसी बात का सही जवाब नहीं देती थी।मणिकांत जी उसकी मनः स्थिति को समझ रहे थे।वो पत्नी को बिना बताये दिल्ली चले गये और असीम के मन की बात जानकर रामस्वरूप को गले लगाकर बोले,” भाई, बेटे के ब्याह की तैयारी करो.. आज से असीम मेरा हुआ…।”
सुलेखा जी ने सुना कि उनका होने वाला दामाद एक लेक्चरर है तो पति पर बहुत नाराज़ हुईं।कहने लगी कि एक तो मुझसे पूछे बिना ही शादी तय कर दिये, ऊपर से दामाद भी हमारी बराबरी का नहीं।मैं अपनी सहेलियों को क्या बताऊँगी कि…।तब मणिकांत जी उनके कंधे पर अपने दोनों हाथ रखते हुए बोले,” भाग्यवान्…लड़का हीरा है…
धन की हमारे पास कमी नहीं है और असीम विद्या का धनी है। हमारी बेटी उसे बहुत पसंद करती है…मिलोगी तो तुम भी पसंद करने लग जाओगी।” सुलेखा जी चुप रही और मन ही मन सोचने लगी कि दामाद के बारे में सहेलियों-रिश्तेदारों को क्या बताना है और कैसे बताना है।
एमए की परीक्षा खत्म होते ही मणिकांत जी ने दोनों का गठबंधन करा दिया।दिल्ली के दो कमरों के फ़्लैट को अवंतिका ने बड़े प्यार-से सजा दिया था।रामस्वरूप बेटे-बहू को आशीर्वाद देकर अपने पैतृक स्थल चले गये।
कनाडा से अरुणा आई तो सुलेखा जी ने गाड़ी भेजकर अवंतिका को बुला लिया।गाड़ी देखकर असीम ने नाराज़गी व्यक्त की।पहली बार है ना ‘ कहकर अवंतिका ने पति को शांत किया।
दोनों बहनों ने गले मिलकर अपने गिले-शिकवे दूर किये।डिनर के समय डाइनिंग टेबल पर सुलेखा जी दामाद सुशांत से असीम की प्रशंसा करते हुए कहने लगी,” जल्द ही असीम की सैलेरी दुगुनी हो जाएगी..उसने एक कार भी बुक कर ली है..उसका घर तो बहुत…।” असीम ने उन्हें रोकना चाहा तो अवंतिका ने उसका हाथ दबा दिया।सुलेखा जी बोलती रहीं और असीम अपमान के घूँट पीते रहें।उन्हें झूठ-दिखावा से सख्त नफ़रत थी लेकिन यही उनके साथ हो रहा था।
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कुछ दिनों के बाद सुलेखा जी बेटी से मिलने आईं तो घर में सौ कमियाँ गिनाते हुए पति को फ़ोन कर दिया और ढ़ेर सारा सामान मँगा लिया।काॅलेज़ से आकर असीम ने घर में सामान देखा तो सब समझ गये।सास के सामने तो चुप रहे लेकिन अकेले में पत्नी पर बहुत नाराज़ हुए ,” तुम्हें किसी चीज़ की आवश्यकता है तो मुझसे कहती…अपने मायके से…।” सास को देखकर वो चुप हो गये थे।
अवंतिका अपने पति की ईमानदारी और उनके स्वाभिमान की कद्र करती थी।वह पूरी कोशिश करती थी असीम की खुद्दारी को ठेस न पहुँचे।अपनी दो वर्ष की बेटी रिया को लेकर वो ममेरी बहन की शादी में गई थी। असीम के काॅलेज़ में परीक्षाएँ चल रही थीं।इसलिये वे विवाह के दिन पहुँचे।
सास को प्रणाम करने गये तो फिर सुलेखा जी ने एक बाण छोड़ दिया,” अब तो कार ले ही लीजिये दामाद जी…कब तक मेरी बेटी- नातिन बस में धक्के…।”अवंतिका बोली,” माँ…आप भी ना.., चुप नहीं रह सकती।”
” तो क्या गलत कहा..खुद तो खरीदते नहीं और हम दे तो मुँह फुला लेते हैं..।” असीम के लिये वहाँ रुकना असहनीय था।वे उसी रात दिल्ली लौट आये और फिर ससुराल में कभी कदम नहीं रखा।
मणिकांत जी ने पत्नी को डाँटा और दामाद को भी समझाने का बहुत प्रयास किया लेकिन न तो असीम की नाराज़गी दूर हुई और न ही सास-दामाद के बिगड़े संबंधों में कोई सुधार हुआ।
समय अपनी गति से चलता रहा।अजीत के बेटे की शादी का न्योता आया तब रिया ने पापा को साथ चलने को कहा, ससुर ने भी मान-मनुहार किया लेकिन असीम टस से मस नहीं हुए।इसी बीच उनके ससुर बीमार पड़े…अस्पताल में एडमिट हुए तब उन्होंने दिन-रात अपने ससुर की सेवा की थी लेकिन ससुराल नहीं गये।उनके सास-ससुर गुज़र गये…पिता का भी देहांत हो गया…रिया मुंबई में ज़ाॅब कर रही थी।उनके बाल सफ़ेद हो रहे थे लेकिन उनकी नाराज़गी अब भी बरकरार थी।
अजीत के दो बच्चों की शादी हो चुकी थी।तीसरी बेटी की और अंतिम शादी थी अवंतिका के मायके में।उसी में जाने के लिये वो अपने रूठे पति को मना रही थी।असीम ने जाने से इंकार कर दिया तब उसने भाई को मैसेज़ कर दिया और अपना सामान पैक करने लगी।
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अगली सुबह चाय पीते हुए अवंतिका पति को निर्देश दे रही थी कि मेरे पीछे दवा समय पर लीजियेगा…चाय में शक्कर कम डालियेगा…तभी उसकी डोरबेल बजी।दरवाज़े पर अजीत भईया को देखकर दोनों ही चकित रह गये।साथ आये नौकर ने उपहार और मिठाई मेज़ पर रखी तब अजीत हाथ जोड़कर असीम से बोले,” दामाद जी, मेरी बेटी की विदाई आपके हाथ से ही होगी।अनजाने में माँ के कहे शब्दों के लिये मैं कान पकड़कर….।”
” नहीं भाई साहब…अब और शर्मिंदा मुझे नहीं कीजिये।मुझे क्षमा कर दीजिये।” कहते हुए असीम भावुक होकर अजीत के पैरों पर झुक गये।अजीत ने उन्हें गले से लगा लिया।बरसों से दबा साले-बहनोई का स्नेह अश्रु-रूप में आँखों से बहने लगा था।अवंतिका के लिये सब कुछ एक स्वप्न-सा था।
असीम बोले,” भाई साहब…आप घर जाईये…भाभी राह देख रहीं होंगी।हम दोनों शाम को आते हैं।विश्वास रखिये..।” अवंतिका भी खुश होकर बोली,” हाँ भईया..हम दोनों आते हैं।
अजीत के जाते ही असीम का मोबाइल बज उठा।उठाते ही रिया चहकी,” मेरे पाsssपाss..चलेss ससुराssल…।” और बाप-बेटी एक साथ हँस पड़े।
बरसों बाद असीम जी पत्नी के साथ सहारनपुर पहुँचे तो ससुराल में उनका ऐसा भव्य स्वागत हुआ जैसे कि नये दामाद का होता है।कोई उन्हें फूफाजी तो कोई मौसा जी कह रहे थे।छोटे-छोटे बच्चे ‘दादाजी’ कहकर उनका कुरता पकड़ रहे थे।अवंतिका उनके सिर पर से गुलाब की पत्तियाँ हटाने लगी तब उसका हाथ पकड़कर बोले,” नाराज़ होने से ससुराल में ऐसा स्वागत होगा, ये पहले मालूम होता तो…।”
” तो क्या…।” अवंतिका ने पति को घूरकर देखा और दोनों हँस पड़े।
विभा गुप्ता
# नाराज़ स्वरचित, बैंगलुरु
दामाद का ससुराल वालों से नाराज़ होने का हक बनता है लेकिन इतना भी नहीं कि अपनों से दूर हो जाये।रिश्तों को प्यार-से निभायें तभी उसकी ताज़गी और मिठास बनी रहती है।
# नाराज़
VM