ये गाथा शुरू होती है,उस समय से जब ,विशालपुरी के युवराज ने,संसारिक जीवन से वैराग्य जीवन को अपनाया, पिता महाराज सिद्धार्थ ने जीवन से मोह त्याग कर खुद को कोपभवन में कैद कर लिया,चारों ओर अराजकता फैल गयी”
प्रजा ने क्रोधित होकर ,एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा दिये”
युवावर्ग, —-अक्रोशित हो,राज्य को नष्ट करने पर आतुर था!
आगजनी,विद्रोह चरम पर फैल गया “पुत्र के जाने पर रानी त्रिशला आंसू बहा रही थी”””
आखिर क्या कमी आन पडी ,,
प्रजा की मांग थी की युवराज के सिवा किसी को भी राजा न चुना जाऐ”
राजा से मिलने की अनुमति कुछ खास लोगों को ही दी गयी थी””उन्ही खास लोगों मे थे”राजनायक “सेनापति “”दक्षांक “””

!!प्रारंम्भ !!
सदियों पहले एक नगरी थी विशाल पुरी, ,जहाँ वैभव सपन्नता चरम पर थी”प्रजा का जीवन राजा के लिऐ अपने पुत्रो के जैसा”था!
चारों ओर खुशियाँ धन धान्य से पूर्ण ऊची आटिल्लिकाओं से पूर्ण था!!
यहां जल, थल और अट्टवी के नियामकों की श्रेणियां पृथक् थीं । नगर में श्रेणियों के कार्यालय और निवास पृथक् – पृथक् थे । बाहरी वस्तुओं का क्रय-विक्रय भी पृथक्- पृथक् हट्टियों में हुआ करता था । परन्तु श्रेणियों का माल अन्तरायण में बिकता था । सेट्टियों के संघ निगम कहलाते थे। सब निगमों का प्रधान नगरसेट्ठि कहलाता था ,और ,उसकी पद -मर्यादा राजनीतिक और औद्योगिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती थी ।
वत्स , कोसल , काशी और मगध साम्राज्य से घिरा रहने तथा श्रीवस्ती से राजगृह के मार्ग पर अवस्थित रहने के कारण यह स्वतन्त्र नागरिकों का नगर उन दिनों व्यापारिक और राजनीतिक संघर्षों का केन्द्र बना हुआ था । देश- देश के व्यापारी, जौहरी , शिल्पकार और यात्री लोगों से यह नगर सदा परिपूर्ण रहता था । श्रेष्ठिचत्वर में , जो यहां का प्रधान बाज़ार था , जौहरियों की बड़ी – बड़ी कोठियां थीं , जिनकी व्यापारिक शाखाएं समस्त उत्तराखण्ड से दक्षिणापथ तक फैली हुई थीं । सुदूर पतित्थान से माहिष्मती , उज्जैन , गोनर्द ,
विदिशा, कौशाम्बी और साकेत होकर पहाड़ की तराई के रास्ते सेतव्य , कपिलवस्तु , कुशीनगर , पावा , हस्तिग्राम और भण्डग्राम के मार्ग से बड़े-बड़े सार्थवाह से व्यापार स्थापित किए हुए थे। पूर्व से पश्चिम का रास्ता नदियों द्वारा था । गंगा में सहजाति और यमुना में कौशाम्बी- पर्यन्त नावें चलती थीं । विशालपुरी, से मिथिला के रास्ते गान्धार को , राजगृह के रास्ते सौवीर को , तथा के लद्दाक के रास्ते चीन तक भी भारी -भारी सार्थवाह जल और थल पर चलते रहते थे। ताम्रपर्णी, स्वर्णद्वीप , यवद्वीप आदि सुदूर – पूर्व के का यातायात चम्पा होकर जाता था ।
___ श्रेष्ठिचत्वर में बड़े -बड़े दूकानदार स्वच्छ परिधान धारण किए, पान की गिलौरियां कल्लों में दबाए, हंस-हंसकर ग्राहकों से लेन – देन करते थे। जौहरी पन्ना , लाल , मूंगा, मोती , पुखराज, हीरा और अन्य रत्नों की परीक्षा तथा लेन – देन में व्यस्त रहते थे। निपुण कारीगर अनगढ़ रत्नों को शान पर चढ़ाते ,
स्वर्णाभरणों को रंगीन रत्नों से जड़ते और रेशम की डोरियों में मोती गूंथते थे। गन्धी लोग केसर के थैले हिलाते , चन्दन के तेल में गन्ध मिलाकर इत्र बनाते थे, जिनका नागरिक खुला उपयोग करते थे। रेशम और बहुमूल्य महीन मलमल के व्यापारियों की दुकान पर विदेशी और अप्रवासी व्यापारी लम्बे – लम्बे लबादे पहने भीड़ की भीड़ पड़े रहते थे। नगर की गलियां संकरी और तंग थीं , और उनमें गगनचुम्बी अट्टालिकाएं खड़ी थीं , जिनके अंधेरे और विशाल तहखानों में धनकुबेरों की अतुल सम्पदा और स्वर्ण- रत्न भरे पड़े रहते थे ।
संध्या के समय सुन्दर वाहनों, रथों, घोड़ों, हाथियों और पालकियों पर नागरिक नगर के बाहर सैर करने राजपथ पर आ निकलते थे। इधर – उधर हाथी झूमते बढ़ा करते थे और उनके अधिपति रत्नाभरणों से सज्जित अपने दासों तथा शरीर -रक्षकों से घिरे चला करते थे।
दिन निकलने में अभी देर थी । पूर्व की ओर प्रकाश की आभा दिखाई पड़ रही थी । उसमें पुरी के राजप्रासादों के स्वर्ण- कलशों की धूमिल स्वर्णकान्ति बड़ी प्रभावोत्पादक दीख पड़ रही थी । मार्ग में अभी अंधेरा था । राजप्रासाद के मुख्य तोरण पर अभी प्र काश दिख रहा था!
रक्षागृहों में प्रहरी और प्रतिहार पड़े सो रहे थे। तोरण के बीचोंबीच एक दक्षांक ही था,जो भाले पर टेक दिए ऊंघ रहा था ,जो सिर्फ राज्य के प्रति समार्पण था””उसने कुछ समय पहले ही त्याग-पत्र दिया था’ जिसे राज्यकार्यकारिणी ने अस्वीकार कर दिया था!!आज पूरी रात उसके लिऐ ,अकल्पनीय थी”””फिर भी वो राज्य के प्रति अपनी निष्ठा पूर्व की तरह निभा रहा”””थकान से आंखें रक्तवर्ण हो गयी!!!
आज पूरी रात भागमभाग मे व्यतीत हो गयी,थी! रातभर राजनायक किन परिस्थितियों से गुजरा, इस बात का किसी को भान नही”””
धीरे – धीरे दिन का प्रकाश फैलने लगा। राजकर्मचारी और नागरिक इधर – उधर आने- जाने लगे । किसी-किसी
भवन से मृदुल तंतुवाद्य की झंकार के साथ किसी आरोह अवरोह की कोमल तान सुनाई पड़ने लगी। प्रतिहारों का एक नया दल तोरण पर आ पहुंचा। उसके नायक ने आगे बढ़कर भाले के सहारे खड़े ऊंघते मनुष्य को पुकारकर कहा राजनायक दक्षांक , सावधान हो जाओ और घर जाकर विश्राम करो। राजनायक ने सजग होकर अपने दीर्घकाय शरीर को और भी विस्तार करके एक ज़ोर की अंगड़ाई ली, और तुम्हारा कल्याण हो नायक , कहकर वह अपना भाला पृथ्वी पर टेकता हुआ तृतीय तोरण की ओर बढ़ गया ।
सप्तभूमि राजप्रासाद के पश्चिम की ओर प्रासाद का उपवन था , जिसकी देख -रेख राजनायक दक्षांक के ही सुपुर्द थी । यहीं वह अपनी प्रौढ़ा पत्नी के साथ अठाईस वर्ष से अकेला एकरस आंधी – पानी , सर्दी-गर्मी में रहकर राज्य की सेवा मे तत्पर था ।
___ अभी भी वह नींद में था उसकी पलकें मुदं रही थी”” दक्षांक सबसे बेखबर अपनी धुन मे चला जा रहा था””” रात जो घटनाऐं घटी थी । उसका मस्तिष्क शिथिल हो चुका था!अभी प्रभात का प्रकाश धूमिल था । उसने आगे बढ़कर , आम्रकुंज में” कदम रखा ही था की ,उसके पैर मे ठोकर लगी””वो आम के वृक्ष पर लटकी लताओं को पकडकर वृक्ष की निकली हुई जड पर बैठ गया””उसने अपने अंगूंठे पर दृष्टि डाली”ओह”””रक्त रिषकर बाहर आ रहा था”””उसने इधर उधर नजर दौडाई,,,उसे चोट पर लगाने के लिऐ,जडी की तालाश थी””वो उठा और लगडाते हुऐ,,दूसरे वृक्ष की ओर बढ गया””पीडा से उसे चलने मे कठिनाई महसूस हो रही थी”” ।
कुछ दूर चलने पर उसे वो लताऐं नजर आयी जिसका लेप लगाने पर चोट पर रक्त का बहाव बंद हो जाता””उसने लता से पत्ते तोडे और वही आम के बडे वृक्ष के नीचे बैठ गया! “पत्थर के कुछ टुकडे अपनी ओर खीचकर सिलबट्टे की तरह प्रयोग करने लगा””कुछ ही क्षण मे लेप तैयार था””लेप लगाने से पीडा कम होने लगी और रक्त का बहना भी बंद हो गया”””कुछ देर बैठने के बाद भवन की ओर प्रस्थान करने का सोच ‘वो उठकर खडा हो गया! आम के पत्तो के बीच से सूर्योदय की किरणे, आम वृक्ष के जडों के नीचे से,
निकल रही गंगा मैया की जलधारा से टकराकर उजास पैदा कर रही थी””बडा ही मोहक दृश्य था”दक्षांक वो दृश्य देखकर भावविभोर हो गया””वो वृक्ष के नीचे से जा रही ढलान की ओर बढा””तभी उसके कानों में,चप चप की आवाज सुनाई दी””वो आवाज की दिशा मे आगे बढा “” उसकी नजर आम की जड मे फसी टोकरी पर पडी””उस टोकरी मे एक शिशु अगूंठा चूस रहा था””आम के पत्तो से छनकर धूप उसके मुख पर पड रही थी”दक्षांक आगे बढा और जड मे फंसी टोकरी को अपनी ओर खीचकर ऊपर आ गया””उसने इधर उधर दृष्टि डाली,उसे कोई भी नजर न आया””
वो नन्हा शिशु उसके हाथ मे था””गंगा मैया आपकी लीला भी कोई नही जान सकता, यहां मै निसंतान हूं””जीने का कोई आधार नही””वहां कुछ लोग अपनी संतान त्याग रहे है””
अचानक वो दुधमुहां शिशु भूख से विकल हो उठा”
दक्षांक ने दूर पहाडी पर नजर डाली”””ऊपर से बह रहे झरने की ओर देखा, की अचानक उसे रात्रि की घटनाऐं याद आ गयी””कही ये शिशु”””जय हो गंगा मैया””आपकी लीला अपरम्पार है””””शिशु को सीने से चिपका दक्षांक ,लडखडाते कदमों से भवन की ओर चल पडा””उसके आंखो, मे जीवन की आस चमक रही थी!
रात की घटना फिर से उसके मष्तिक मे उधल पुथल करने लगी”””शायद ये शिशु उसके भाग्य मे है””।
दक्षांक शिशु को कलेजे से लगाये ,अपनी धुन मे आगे बढ रहा था, मार्ग मे आ जा रहे लोग उसे आश्चर्य से देख रहे थे””जिससे वो अनभिज्ञ था””
वो भवन के द्धार पर पहुँचा””अबतक उसके पीछे भारी भीड एकत्रित हो गयी थी””सभी के मन मे उत्सुकता थी ,की आखिर ,निसंतान दक्षांक को शिशु कहां से प्राप्त हुआ””
द्धार खोलते ही कानन चौंक उठी”””
क्या हुआ, कानन ने घबराकर पूछा “” ये शिशु किसका है””आपके पीछे भीड क्या कर रही है””
पत्नी की बात सुनकर दक्षांक पीछे घूमा “” पीछे भीड देखकर चौंक उठा”””
राजनायक ये शिशु किसका है, कहां मिला”””जायज है या नजायज “” किस कुल का ,है,एक साथ इतने सवाल”””दक्षांक की भृकुटि तन गयी”””ये शिशु कौन है कहा से आया मुझे नही पता””पर अभी इसे सहारे की जरूरत है”आपलोग कृपया अभी जाये”””संध्या को आप सभी के सम्मुख मै उपस्थित हो जाऊंगा “”” ठीक है राजनायक “”” धीरे धीरे भीड छट गयी,
दक्षांक ने भवन मे प्रवेश किया””पत्नी कानन की आंखो मे भी प्रश्न तैर रहे थे!
कानन इसे सम्भालों,शिशु को कानन की ओर बढाते हुऐ ,दक्षांक बोले””शिशु को आंचल मे लेते ही कानन की आंखे भर आयी”””उसके हृदय मे ममता हिलोंरे लेने लगी””कानन ने शिशु के कपोल को चूम लिया “” इसके वस्त्र भीग गये है””
मै,बदल देती हूं”””अरे ये तो कन्या है””कानन चहकती हुई बोली””‘दक्षांक उसके करीब आ गया”””वो कन्या दक्षांक को ही देखे जा रही थी””””उसे सुनाई दिया जैसे कन्या उसे पुकार रही हो””बाबा “””वो भावुक होकर उस कन्या को चूमने लगा “”” ये मेरी पुत्री एहै कानन, गंगा मैया ने हमारी प्रार्थना स्वीकार कर ली “” आज हमारी साध मिटी”””कानन की आंखों से भी ,खुशी के अश्रु छलक उठे”””
संध्या बेला ,सभी नगरवासी उपस्थित थे”””
दक्षांक ने सारी घटना कह सुनाई”””कुछ लोगों का मत था की कन्या ,राज्य को सौप दी जाय ,पर दक्षांक ने स्पष्ट रूप से इन्कार कर दिया”””
राजनायक ,राज्य के विरूद्ध जाने की सजा जानते हो एक समंत बोला””
जी नायक, मै खुद अपनी मर्जी से नगर त्याग दूंगा””पर अपनी पुत्री किसी को भी नही दूंगा”””
इतना बोलकर राजनायक दक्षांक ने सभा छोड दी””
किसी की हिम्मत न हुई की उसे रोके”””‘
कन्या भूख से विलख उठी”””दक्षांक समझ चुका था की इस कन्या की क्षुधा कहां शान्त होगी””वो झरने की ओर बढ गया””
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देवकन्या (भाग-2) – रीमा महेन्द्र ठाकुर : Moral stories in hindi
रीमा महेन्द्र ठाकुर